ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
इन्द्र॒मिद्धरी॑ वह॒तोऽप्र॑तिधृष्टशवसम्। ऋषी॑णां च स्तु॒तीरुप॑ य॒ज्ञं च॒ मानु॑षाणाम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । इत् । हरी॑ । व॒ह॒तः॒ । अप्र॑तिधृष्टऽशवसम् । ऋषी॑णाम् । च॒ । स्तु॒तीः । उप॑ । य॒ज्ञम् । च॒ । मानु॑षाणाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमिद्धरी वहतोऽप्रतिधृष्टशवसम्। ऋषीणां च स्तुतीरुप यज्ञं च मानुषाणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम्। इत्। हरी। वहतः। अप्रतिधृष्टऽशवसम्। ऋषीणाम्। च। स्तुतीः। उप। यज्ञम्। च। मानुषाणाम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तं कथं सत्कुर्युरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं यमप्रतिधृष्टशवसमृषीणां स्तुतीः प्राप्तं महाशुभगुणसम्पन्नं च मानुषाणामन्येषां प्राणिनां च विद्यादानसंरक्षणाख्यं यज्ञं पालयन्तमिन्द्रं हरी उपवहतस्तमित्सदा स्वीकुरुत ॥ २ ॥
पदार्थः
(इन्द्रम्) प्रजासेनापतिम् (इत्) एव (हरी) दुःखहरणशीलौ (वहतः) प्राप्नुतः (अप्रतिधृष्टशवसम्) न प्रतिधृष्यते शवो बलं यस्य तम् (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थविदाम् (च) समुच्चये (स्तुतीः) प्रशंसाः (उप) सामीप्ये (यज्ञम्) सर्वैः सङ्गमनीयम् (च) समुच्चये (मानुषाणाम्) मानवानाम् ॥ २ ॥
भावार्थः
नहि प्रशंसितपुरुषैः सत्कृतैरधिष्ठातृभिर्विना प्राणिनां सुखं भवितुं शक्यम्। न खलु सत्क्रियया विना चक्रवर्त्तिराज्यादिप्राप्तिरक्षणे च भवितुं शक्येते तस्मात् सर्वैरेतत्सर्वदाऽनुष्ठेयम् ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसका सत्कार किस प्रकार करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम जिस (अप्रतिधृष्टशवसम्) अहिंसित अत्यन्त बलयुक्त (ऋषीणाम्) वेदों के अर्थ जाननेहारों की (स्तुतीः) प्रशंसा को प्राप्त (च) महागुणसम्पन्न (मानुषाणाम्) मनुष्यों (च) और प्राणियों के विद्यादान संरक्षण नाम (यज्ञम्) यज्ञ को पालन करनेहारे (इन्द्रम्) प्रजा, सेना और सभा आदि ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले को (हरी) दुःखहरण स्वभाव, श्री, बल, वीर्य, नाम, गुण, रूप, अश्व (उप वहतः) प्राप्त होते हैं, उसको (इत्) ही सदा प्राप्त हूजिये ॥ २ ॥
भावार्थ
जो प्रशंसा सत्कार अधिकार को प्राप्त है, उनके विना प्राणियों को सुख नहीं हो सकता तथा सत्क्रिया के विना चक्रवर्त्तिराज्य आदि की प्राप्ति और रक्षण नहीं हो सकते, इस हेतु से सब मनुष्यों को यह अनुष्ठान करना उचित है ॥ २ ॥
विषय
स्तुति व यज्ञ
पदार्थ
१. (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अप्रतिधृष्टशवसम्) = अहिंसित बलवाले को (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय अश्व (इत्) = निश्चय से (ऋषीणाम्) = तत्त्वद्रष्टा पुरुषों की (स्तुतीः) = स्तुतियों के (च) = और (च) = साथ ही (मानुषाणाम्) = [मत्वा कर्माणि सीव्यति] विचारपूर्वक कर्म करनेवाले मनुष्यों के (यज्ञम्) = यज्ञ के (उप) = समीप (वहतः) = ले चलते हैं । यह पुरुष ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करके ऋषियों के समान प्रभु का स्तवन करनेवाला प्रभु का 'ज्ञानी भक्त' बनता है तथा कर्मेन्द्रियों से यज्ञों में प्रवृत्त होता हुआ मानवमात्र का हित चाहनेवाला मनुष्य बनता है । २. ऐसा वह बन तभी पाता है जब वह जितेन्द्रिय बनकर काम - क्रोधादि से अपनी शक्ति को हिंसित नहीं होने देता । काम इन्द्रियों की शक्ति को जीर्ण करके उसे यज्ञादि कर्मों के योग्य नहीं रहने देता और क्रोध उसके मन को विकृत करके प्रभुस्तवन की वृत्ति से दूर कर देता ।
भावार्थ
भावार्थ = जितेन्द्रिय बनकर हम काम - क्रोध से आक्रान्त न हों । विचारशील पुरुषों की भाँति कर्मेन्द्रियों को उत्तम कर्मों में लगाये रक्खें और तत्त्वद्रष्टा ऋषियों के समान ज्ञानेन्द्रियों से सृष्टि में प्रभु की महिमा को देखते हुए प्रभुस्तवन करनेवाले बनें ।
विषय
वीर राजा, सेनापति के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
( हरी ) वेगवान् अश्व (अप्रतिधृष्टशवसम् ) जिसके बल को कोई दबा या परास्त नहीं कर सके ऐसे ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् राजा को (इत्) ही ( हरी ) वेगवान् दोनों अश्व तथा दो ज्ञानवान् पुरुष ( ऋषीणां च ) वेदमन्त्रार्थों के जानने वाले विद्वानों की स्तुतियों और ( मानुषाणां यज्ञं च ) मनुष्यों के यज्ञ को भी ( वहतः ) प्राप्त कराते हैं । अर्थात् विद्वानों और मनुष्यों के सत्संगों में राजा अश्वों द्वारा रथ पर चढ़ कर ही जावे। और दूसरे, उसके अधीन दो विद्वान् उसके राज-कार्य-भार को चलाने के लिये नियुक्त हों। एक का कार्य विद्वानों के सत्आदेश राजा तक पहुंचाना है और दूसरे का कार्य साधारण प्रजा के उत्तम कार्यों के साथ राजा को सम्बद्ध रखना है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर उस राजा या सेनापति का सत्कार किस प्रकार करे, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं यम् अप्रतिधृष्टशवसम् ऋषीणां स्तुतीः प्राप्तं महाशुभ गुण सम्पन्नं च मानुषाणाम् अन्येषां प्राणिनां च विद्यादानसंरक्षणाख्यं यज्ञं पालयन्तम् इन्द्रं हरी उप वहतः तम् इत् सदा स्वीकुरुत ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यम्)=जिस, (अप्रतिधृष्टशवसम्) न प्रतिधृष्यते शवो बलं यस्य तम्= दुर्दमनीय, (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थविदाम्=मन्त्रों के अर्थों के ज्ञाता की, (स्तुतीः) प्रशंसाः=प्रशंसा को, (प्राप्तम्)= प्राप्त किये हुए, (महाशुभ)=बहुत शुभ, (गुण)= गुणों से, (सम्पन्नम्)=परिपूर्ण, (च) समुच्चये=और, (मानुषाणाम्) मानवानाम्=मनुष्यों के और, (अन्येषाम्)=अन्य, (प्राणिनाम्)= प्राणियों के, (च) समुच्चये=और, (विद्यादानसंरक्षणाख्यम्)= विद्या, दान और संरक्षण नाम से कहे जानेवाले, (यज्ञम्) सर्वैः सङ्गमनीयम्=सबके द्वारा संगति किये जाने योग्य, (पालयन्तम्) =रक्षा करता हुआ, (इन्द्रम्) प्रजासेनापतिम्=राजा और सेनापति, (हरी) दुःखहरणशीलौ=दुःखों को दूर करने के स्वभाववाला, (उप) सामीप्ये =निकट से, (वहतः) प्राप्नुतः=प्राप्त होते हुए, (तम्) =उसको, (इत्) एव= ही, (सदा)= सदा, (स्वीकुरुत)=स्वीकार करो ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- प्रशंसित और उत्तम कार्यों को किये हुए पुरुषों के विना प्राणियों को सुख प्राप्त नहीं हो सकता है। उत्तम क्रियाओं के विना चक्रवर्त्तिराज्य आदि की प्राप्ति और रक्षा नहीं हो सकते हैं, इसलिये सबको इसका सदा कार्यान्वित करना चाहिए ॥२॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य- चक्रवर्त्ति राज्य को ऋग्वेद के मन्त्र संख्या ०१.४८.०१ में परिभाषित किया गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यम्) जिस (अप्रतिधृष्टशवसम्) दुर्दमनीय, (ऋषीणाम्) वेद के मन्त्रों के अर्थों के ज्ञाता, (स्तुतीः) प्रशंसा को (प्राप्तम्) प्राप्त किये हुए, (महाशुभ) बहुत शुभ (गुण) गुणों से (सम्पन्नम्) परिपूर्ण (च) और (मानुषाणाम्) मनुष्यों के व (अन्येषाम्) अन्य (प्राणिनाम्) प्राणियों के लिये (विद्यादानसंरक्षणाख्यम्) विद्या, दान और संरक्षण देनेवाला, (यज्ञम्) सबके द्वारा संगति किये जाने योग्य और (पालयन्तम्) रक्षा करता हुआ (इन्द्रम्) राजा या सेनापति (हरी) दुःखों को दूर करने के स्वभाववाला और (उप) निकट से (वहतः) प्राप्त होता है, (तम्) उसको (इत्) ही (सदा) सदा (स्वीकुरुत) [राजा या सेनापति] स्वीकार करो ॥२॥
संस्कृत भाग
इन्द्र॑म् । इत् । हरी॑ । व॒ह॒तः॒ । अप्र॑तिधृष्टऽशवसम् । ऋषी॑णाम् । च॒ । स्तु॒तीः । उप॑ । य॒ज्ञम् । च॒ । मानु॑षाणाम् ॥ विषयः- पुनस्तं कथं सत्कुर्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि प्रशंसितपुरुषैः सत्कृतैरधिष्ठातृभिर्विना प्राणिनां सुखं भवितुं शक्यम्। न खलु सत्क्रियया विना चक्रवर्त्तिराज्यादिप्राप्तिरक्षणे च भवितुं शक्येते तस्मात् सर्वैरेतत्सर्वदाऽनुष्ठेयम् ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांना प्रशंसा, सत्कार, अधिकार प्राप्त झालेले आहेत त्यांच्याशिवाय प्राण्यांना सुख मिळू शकत नाही व सत्क्रियेशिवाय चक्रवर्ती राज्य इत्यादीची प्राप्ती व रक्षण होऊ शकत नाही. या कारणामुळे सर्व माणसांनी हे अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The horses carry Indra, lord of informidable force and resolution of mind, to the Rshis’ songs of praise and yajnic programmes of the people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should they honour Indra is taught further in the Second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should always accept as President or Commander of an army and respect a man who is of indomitable or irresistible might, who is admired even by the great knowers of the Vedas on account of his noble virtues and who is engaged in the performance of the Yajna in the form of imparting knowledge and protection of men and other beings, Let his strong horses bring him hither to our assembly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्रम्) प्रजासेनापतिम् = The President or the commander of an army. (यज्ञम्) सर्वे: संगमनीयं विद्यादानसंरक्षणाख्यम् = Yajna in the form of imparting knowledge and protection of men and other beings.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is not possible for men to enjoy happiness unless the persons placed in authority are noble and respected. It is not possible to attain a vast and good Government and to preserve it without doing noble deeds and honouring worthy persons. Therefore all this must always be done.
Subject of the mantra
Then, how to respect that king or commander? This has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yam) =which, (apratidhṛṣṭaśavasam) =indomitable, (ṛṣīṇām)=knowledgeable of the interpretation of mantras of Vedas, (stutīḥ) =to praise, (prāptam) =having attained, (mahāśubha) =many auspicious, (guṇa) =qualities, (sampannam) =full, (ca) =and, (mānuṣāṇām) =of humans and, (anyeṣām) =other, (prāṇinām) =for creatures, (vidyādānasaṃrakṣaṇākhyam)=The giver of knowledge, charity and protection, (yajñam)= compatible with everyone and, (pālayantam) =protecting, (indram) =king or commander, (harī)=nature of removing sorrows and, (upa) =from proximity, (vahataḥ) =gets attained, (tam) =to that, (it) =only, (sadā) =always, (svīkuruta)=accept, [rājā yā senāpati] =king or commander.
English Translation (K.K.V.)
O humans! The king or general who is indomitable, knowledgeable of the interpretation of mantras of Vedas, praised by all of you, full of many auspicious qualities, who imparts knowledge, charity and protection to humans and other creatures, who can be compatible with everyone and who protects him. Always accept as your king or commander, only the one who has the nature to remove the sorrows and is available from proximity.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Without men who are praised and have done good deeds, living beings cannot attain happiness. Without good actions, Chakravarti kingdom etc. cannot be achieved and protected, hence everyone should always implement it.
TRANSLATOR’S NOTES-
TRANSLATOR’S COMMENTS- Cakravartti Rājya- Cakravartti Rājya is defined in mantra number 01.48.01 of Rigveda.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal