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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 14
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒च्छन्नश्व॑स्य॒ यच्छिरः॒ पर्व॑ते॒ष्वप॑श्रितम्। तद्वि॑दच्छर्य॒णाव॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒च्छन् । अश्व॑स्य । यत् । शिरः॑ । पर्व॑तेषु । अप॑ऽश्रितम् । तत् । वि॒द॒त् । श॒र्य॒णाऽव॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इच्छन्नश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम्। तद्विदच्छर्यणावति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इच्छन्। अश्वस्य। यत्। शिरः। पर्वतेषु। अपऽश्रितम्। तत्। विदत्। शर्यणाऽवति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यथेन्द्रोऽश्वस्य यच्छर्यणावति पर्वतेष्वपश्रितं शिरोऽस्ति तज्जघान हन्ति तद्वच्छत्रुसेनाया उत्तमाङ्गं छेत्तुमिच्छन् सुखानि विदल्लभेत् ॥ १४ ॥

    पदार्थः

    (इच्छन्) (अश्वस्य) आशुगामिनः (यत्) (शिरः) उत्तमाङ्गम् (पर्वतेषु) शैलेषु मेघावयवेषु वा (अपश्रितम्) आसेवितम् (तत्) (विदत्) विद्यात् (शर्यणावति) शर्यणोऽन्तरिक्षदेशस्तस्यादूरभवे। अत्र मध्वादिभ्यश्च। (अ०। ४.२.८३) अनेन मतुप् ॥ १४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्योऽन्तरिक्षमाश्रितं मेघं छित्त्वा भूमौ निपातयति, तथैव पर्वतदुर्गाश्रितमपि शत्रुं हत्वा भूमौ निपातयेत् नैवं विना राज्यव्यवस्था स्थिरा भवितुं शक्या ॥ १४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    जैसे (इन्द्रः) सूर्य (अश्वस्य) शीघ्रगामी मेघ का (यत्) जो (शर्यणावति) आकाश में (पर्वतेषु) पहाड़ वा मेघों में (अपश्रितम्) आश्रित (शिरः) उत्तमाङ्ग के समान अवयव है, उसको छेदन करता है, वैसे शत्रु की सेना के उत्तमाङ्ग के नाश की (इच्छन्) इच्छा करता हुआ सुखों को सेनापति (विदत्) प्राप्त होवे ॥ १४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य आकाश में रहनेहारे मेघ का छेदन कर भूमि में गिराता है, वैसे पर्वत और किलों में भी रहनेहारे दुष्ट शत्रु का हनन करके भूमि में गिरा देवे, इस प्रकार किये विना राज्य की व्यवस्था स्थिर नहीं हो सकती ॥ १४ ॥

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    विषय

    अश्व का सिर

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार ध्यान के द्वारा जीवन को वासनाशून्य बनाकर हम अपने मस्तिष्क को बड़ा सुन्दर बनाते हैं । यह मस्तिष्क सब विषयों का ग्रहण करनेवाला बनता है, सब विषयों में चलता है, कुण्ठित नहीं होता । 'अश्नुते व्याप्नोति' सब विषयों को व्याप्त करता हैं, अतः यह अश्व का सिर कहलाता है, एवं 'अश्व का सिर वह सिर है जो प्रत्येक विषय का ठीक रूप में ग्रहण करे' । २. शरीर में यह मेरुदण्ड व मेरुपर्वत पर एक उलटे रखे हुए पात्र की भाँति पड़ा है - 'अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नः' - यह नीचे मुखवाला तथा ऊपर मूलवाला चमस मस्तिष्क ही है । ३. सब विषयों को सूक्ष्मता से ग्रहण करनेवाले, मेरुपर्वत पर उलटा करके रक्खे हुए इस मस्तिष्क को हम 'शर्यणावान्' - सब वासनाओं का हिंसन करनेवाले पुरुष में ही पाते हैं । वासना = विध्वंस के बिना मस्तिष्क उज्ज्वल नहीं होता । ४. मन्त्र में यह सारी भावना इस प्रकार कही गई है कि (पर्वतेषु) = मेरुपर्वत पर (अपश्रितम्) = उलटा [opposite] करके रक्खा हुआ (अश्वस्य यत् शिरः) = सब विषयों का व्यापन करनेवाला जो सिर है (तत्) = उसको (इच्छन्) = चाहता हुआ साधक (शर्यणावति) = वासनाओं का हिंसन करनेवाले व्यक्ति में (विदत्) = प्रास होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम वासनाओं का हिंसन करें और सब विषयों के ग्रहण करनेवाले मस्तिष्क को पाने का प्रयत्न करें ।

    विशेष / सूचना

    सूचना = यहाँ अश्व, पर्वत व शर्यणावान् शब्दों के भाव को न समझकर विचित्र - से पौराणिक आख्यान का निर्माण हो गया ।

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    विषय

    विजिगीषु को उपदेश । अश्व के शिर तथा शर्यणावत् का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( अश्वस्य ) शीघ्रगामी मेघ का ( शिरः ) मुख्य भाग, जलांश ( यत् ) जो (शर्यणावति) आकाश में और ( पर्वतेषु ) मेघों के खण्ड २ में व्यापक है उस को जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से व्याप लेता है और उस को छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार (इच्छन्) विजय की कामना करता हुआ, विजिगीषु बलवान् पुरुष ( अश्वस्य ) तुरंग बल या व्यापक राष्ट्र का (यत् शिरः) जो शिर या मुख्य भाग (पर्वतेषु) पर्वत अर्थात् पालक बल से सुरक्षित भागों में या पर्वत के समान उन्नत और प्रजापालक पुरुषों पर (अपश्रितम्) आश्रित है (तत्) वह उस को (शर्यणावति) हिंसा वाले, संग्राम या सैन्यबल के आश्रय पर ( विदत् ) प्राप्त करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह सेनापति कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यथा इन्द्रः अश्वस्य यत् शर्यणावति पर्वतेषु अपश्रितं शिरः अस्ति तत् जघान हन्ति तत् वत् शत्रुसेनाया उत्तमा अङ्गं छेत्तुम् इच्छन् सुखानि विदत् लभेत् ॥१४॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (यथा)=जैसे, (इन्द्रः)=सेनापति, (अश्वस्य) आशुगामिनः=तेज चलनेवाले अश्वों से, (यत्)=जो, (शर्यणावति) शर्यणोऽन्तरिक्षदेशस्तस्यादूरभवे=हिंसनीय पदार्थों से युक्त स्थानों से अन्तरिक्ष के दूर के स्थानों में, (पर्वतेषु) शैलेषु मेघावयवेषु वा=पर्वतों या बादलों में, (अपश्रितम्) आसेवितम्=बार-बार किया हुआ, (शिरः) उत्तमाङ्गम्=शिर, (अस्ति)= है, (तत्)=उसको, (जघान) हन्ति=मारते हैं, (तत्)=उसकी, (वत्)=जैसी. (शत्रुसेनाया)= शत्रु की सेना के, (उत्तमा)= उत्तम, (अङ्गम्) =अङ्ग को, (छेत्तुम्)=छिन्न-भिन्न करने की, (इच्छन्)= इच्छा करते हुए, (सुखानि)= सुखों को, (विदत्) विद्यात्=जानकर, (लभेत्) =प्राप्त करे ॥१४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य आकाश में आश्रित बादल का छेदन करके भूमि में गिराता है, वैसे ही पर्वत और किलों में आश्रित भी शत्रु का हनन करके भूमि में गिरा देवे, राज्य की व्यवस्था के विना राज्य स्थिर नहीं हो सकता है ॥१४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यथा) जैसे (इन्द्रः) सेनापति (अश्वस्य) तेज चलनेवाले अश्वों से (यत्) जो (शर्यणावति) हिंसनीय पदार्थों से युक्त स्थानों से अन्तरिक्ष के दूर के स्थानों में (पर्वतेषु) पर्वतों या बादलों में (अपश्रितम्) बार-बार पहुँचा हुआ है, [जो उसका] (शिरः) शिर (अस्ति) है, (तत्)=उसको (जघान) मारते हैं, (तत्) उसकी (वत्) जैसी. (शत्रुसेनाया) शत्रु की सेना के (उत्तमा) उत्तम, (अङ्गम्) अङ्ग को (छेत्तुम्) छिन्न-भिन्न करने की (इच्छन्) इच्छा करते हुए (सुखानि) सुखों को (विदत्) जानकर (लभेत्) प्राप्त करे ॥१४॥

    संस्कृत भाग

    इ॒च्छन् । अश्व॑स्य । यत् । शिरः॑ । पर्व॑तेषु । अप॑ऽश्रितम् । तत् । वि॒द॒त् । श॒र्य॒णाऽव॑ति ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्योऽन्तरिक्षमाश्रितं मेघं छित्त्वा भूमौ निपातयति, तथैव पर्वतदुर्गाश्रितमपि शत्रुं हत्वा भूमौ निपातयेत् नैवं विना राज्यव्यवस्था स्थिरा भवितुं शक्या ॥१४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य आकाशातील मेघाचे छेदन करून त्याला भूमीवर पाडतो तसे पर्वतावर व किल्ल्यावर राहणाऱ्या दुष्ट शत्रूंचे हनन करून भूमीवर शयन करवावे. असे केल्याशिवाय राज्य व्यवस्था स्थिर होऊ शकत नाही. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as the sun reaches and breaks the densest concentrations of vapours in the clouds fast moving in the regions of the sky, so should the ruler know the best part of his fastest forces stationed on the mountains and of the enemy forces lurking around and in the forests if he desires victory.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra is taught further in the fourteenth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the sun destroys the head or the Upper part of the rapid-going cloud that is hidden in the firmament and causes it to fall down on earth, in the same manuer, the Commander of the army or the President of the State should kill an enemy even if he has hidden himself in a mountain or fort and fell him down on earth. Without doing this, it is not possible to have stable administration of the State.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अश्वस्य) आशुगामिनः मेघस्य सैन्यस्य वा ) = Of the rapid-going cloud or army. (शर्यणावति) शर्यण: अन्तरिक्षदेशस्तस्य अदूरभवे । अत्र मध्वादिभ्यश्च अ० ४.२. ८६ अनेन मतुप = In the firmament. अथ राज्ञः सूर्यवत् कृत्यमुपदिश्यते ।

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    Subject of the mantra

    Then the action of that king has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (seneśa) =commander, (yathā) =like, (apratiṣkutaḥ)=unmanageable, (indraḥ) =Sun-sphere, (asthabhiḥ)= by the movement of unstable and fickle rays and, (nava)=through the parts of nine directions, (navatīḥ)= in number ninety, meaning innumerable, (dadhīcaḥ)= possessing those carrying air etc., (vṛtrāṇi)=water is among the five elements related to clouds, (kaṇībhūtāni)=turning into vapor particles, (jalāni)=to waters, (jaghāna) =disintegrates, (tathā) =similarly, (śatrūn) =to enemies, (hindhi) =kill.

    English Translation (K.K.V.)

    O commander! Just as the Sun-sphere, which cannot be managed by anyone, is supported by the movement of unstable and fickle rays and by the parts of nine directions, which carry the number nine, i.e. innumerable airs etc. There is water in the five elements related to clouds, they disintegrate the water turning into vapour particles, kill the enemies in the same way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Only he is worthy of being a commander, who is like the Sun, a killer of enemies and a protector of his army, this should be known.

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