ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 19
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वम॒ङ्ग प्र शं॑सिषो दे॒वः श॑विष्ठ॒ मर्त्य॑म्। न त्वद॒न्यो म॑घवन्नस्ति मर्डि॒तेन्द्र॒ ब्रवी॑मि ते॒ वचः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ङ्ग । प्र । शं॒सि॒षः॒ । दे॒वः । श॒वि॒ष्ठ॒ । मर्त्य॑म् । न । त्वत् । अ॒न्यः । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒स्ति॒ । म॒र्डि॒ता । इन्द्र॑ । ब्रवी॑मि । ते॒ । वचः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमङ्ग प्र शंसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम्। न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अङ्ग। प्र। शंसिषः। देवः। शविष्ठ। मर्त्यम्। न। त्वत्। अन्यः। मघऽवन्। अस्ति। मर्डिता। इन्द्र। ब्रवीमि। ते। वचः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 19
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरीश्वरसभाद्यध्याक्षौ कीदृशौ जानीयादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अङ्ग शविष्ठ ! यतस्त्वं देवोऽसि तस्मान् मर्त्यं प्रशंसिषः। हे मघवन्निन्द्र ! यतस्त्वदन्यो मर्डिता सुखप्रदाता नाऽस्ति तस्मात् ते वचो ब्रवीमि ॥ १९ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (अङ्ग) मित्र (प्र) (शंसिषः) प्रशंसे (देवः) दिव्यगुणः (शविष्ठ) अतिबलयुक्त (मर्त्यम्) मनुष्यम् (न) निषेधे (त्वत्) (अन्यः) भिन्नः (मघवन्) परमधनप्रापक (अस्ति) (मर्डिता) सुखप्रदाता (इन्द्र) दुःखविदारकं (ब्रवीमि) उपदिशामि (ते) तुभ्यम् (वचः) धर्म्यं वचनम् ॥ १९ ॥
भावार्थः
मनुष्यैः प्रशंसितकर्मणानुपमेन सततं सुखप्रदेन धार्मिकेण मनुष्येण सहैव मित्रतां कृत्वा परस्परं हितोपदेशः कर्तव्यः ॥ १९ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर ईश्वर और सभा आदि के अध्यक्षों को कैसे जानें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (अङ्ग) मित्र (शविष्ठ) परम बलयुक्त ! जिससे (त्वम्) तू (देवः) विद्वान् है, उससे (मर्त्यम्) मनुष्य को (प्र शंसिषः) प्रशंसित कर। हे (मघवन्) उत्तम धन के दाता (इन्द्र) दुःखों का नाशक ! जिससे (त्वम्) तुझसे (अन्यः) भिन्न कोई भी (मर्डिता) सुखदायक (नास्ति) नहीं है, उससे (ते) तुझे (वचः) धर्म्मयुक्त वचनों का (ब्रवीमि) उपदेश करता हूँ ॥ १९ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि उत्तम कर्म करने, असाधारण सदा सुख देनेहारे धार्मिक मनुष्यों के साथ ही मित्रता करके एक-दूसरे को सुख देने का उपदेश किया करें ॥ १९ ॥
विषय
अद्वितीय मर्डिता
पदार्थ
१. हे (अङ्ग) = [अगि गतौ, गति = प्राप्ति] सर्वत्र प्राप्त व सर्वव्यापक (शविष्ठ) = अत्यन्त शक्तिशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (देवः) = द्योतमान व सब - कुछ देनेवाले हैं । आप ही (मर्त्यम्) = इस उपासक मनुष्य को ज्योति व द्रविणादि साधनों को प्राप्त कराके (प्रशंसिषः) = कर्तव्य कर्मों का उपदेश करते हो । प्रभु 'उपदेश कर दें' इतना ही नहीं है, प्रभु ने उन उपदिष्ट कर्मों को करने का सामर्थ्य भी प्रदान किया है, सब आवश्यक साधन भी प्राप्त कराये हैं । इस सामर्थ्य व साधनों के द्वारा उन कर्तव्यों को निभाकर हम अपने जीवन को प्रशंसित बनाते हैं । २. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवान् प्रभो ! वस्तुतः (त्वत् अन्यः) = आपसे भिन्न (मर्डिता) = सुखी करनेवाला (न अस्ति) = कोई भी नहीं है । इसलिए हे (इन्द्रः) = सब शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले प्रभो ! (ते वचः ब्रवीमि) = तेरे प्रति ही मैं इन प्रार्थना - वचनों को बोलता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभु हमें सब सामर्थ्य व साधन प्राप्त कराके प्रशस्त जीवनवाला बनाते हैं और हमें वास्तविक सुख का अधिकारी भी बनाते हैं ।
विषय
प्रजारन्जक राजा ।
भावार्थ
(अङ्ग) हे राजन् ! ( शविष्ठ ) शक्तिशालिन् ! ( त्वम् देवः ) तू, तेजस्वी, विजयेच्छु और सब कार्य दर्शी होकर ही ( मर्त्यम् ) मनुष्यों को ( प्र शंसिषः ) उत्तम मार्ग का उपदेश कर, उन का अच्छी प्रकार शासन कर । हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( इन्द्र ) शत्रुओं के दुःखों के नाशक ! ( त्वद् अन्यः ) तेरे से दूसरा कोई (मर्डिता न अस्ति) प्रजाओं को सुख देने हारा कृपालु नहीं है । ( ते वचः ) तेरे लिये मैं उत्तम वचन, धर्मयुक्त वाणी का ( ब्रवीमि ) उपदेश करूं, कहूं । परमेश्वर के पक्ष में—मैं तुम्हारी स्तुति करता हूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर ईश्वर और सभा आदि के अध्यक्षों को कैसे जानें, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अङ्ग शविष्ठ ! यतः त्वं देवः असि तस्मान् मर्त्यं प्र शंसिषः। हे मघवन् इन्द्र ! यतःत्वत् अन्यः मर्डिता सुखप्रदाता न अस्ति तस्मात् ते वचः ब्रवीमि ॥१९॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (अङ्ग) मित्र= मित्र और, (शविष्ठ) अतिबलयुक्त=अत्यन्त बलशाली ! (यतः)=क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (देवः) दिव्यगुणः= दिव्य गुणवाले, (असि)=हो, (तस्मान्)=उस, (मर्त्यम्) मनुष्यम्=मनुष्य की, (प्र)=प्रकृष्ट रूप से, (शंसिषः) प्रशंसे= प्रशंसा कीजिये । हे (मघवन्) परमधनप्रापक= परम धनों को प्राप्त करानेवाले, (इन्द्र) दुःखविदारकं=दुःखों को दूर करनेवाले ! (यतः)=क्योंकि, (त्वत्)=तुम से, (अन्यः) भिन्नः= भिन्न, (मर्डिता) सुखप्रदाता= सुख प्रदान करनेवाला, (न) निषेधे=नहीं, (अस्ति)=है, (तस्मात्)=इसलिये, (ते) तुभ्यम्=तुम्हारे लिये, (वचः) धर्म्यं वचनम्=धर्म से युक्त वचनों का, (ब्रवीमि) उपदिशामि=उपदेश करता हूँ ॥१९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा प्रशंसित कर्मों से उत्कृष्ट कर्मों से निरन्तर सुख देनेवाले धार्मिक मनुष्यों के साथ ही मित्रता करके परस्पर हित के उपदेश करने चाहिएँ ॥१९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अङ्ग) मित्र और (शविष्ठ) अत्यन्त बलशाली [परमेश्वर] ! (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (देवः) दिव्य गुणवाले (असि) हो, (तस्मान्) उस (मर्त्यम्) मनुष्य की (प्र) प्रकृष्ट रूप से (शंसिषः) प्रशंसा कीजिये । हे (मघवन्) परम धनों को प्राप्त करानेवाले और (इन्द्र) दुःखों को दूर करनेवाले ! (यतः) क्योंकि (त्वत्) तुम से (अन्यः) भिन्न (मर्डिता) सुख प्रदान करनेवाला (न) नहीं (अस्ति) है, (तस्मात्) इसलिये (ते) तुम्हारे (वचः) धर्म से युक्त वचनों का (ब्रवीमि) उपदेश करता हूँ ॥१९॥
संस्कृत भाग
त्वम् । अ॒ङ्ग । प्र । शं॒सि॒षः॒ । दे॒वः । श॒वि॒ष्ठ॒ । मर्त्य॑म् । न । त्वत् । अ॒न्यः । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒स्ति॒ । म॒र्डि॒ता । इन्द्र॑ । ब्रवी॑मि । ते॒ । वचः॑ ॥ विषयः- पुनरीश्वरसभाद्यध्याक्षौ कीदृशौ जानीयादित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः प्रशंसितकर्मणानुपमेन सततं सुखप्रदेन धार्मिकेण मनुष्येण सहैव मित्रतां कृत्वा परस्परं हितोपदेशः कर्तव्यः ॥१९ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी प्रशंसित कर्म करण्यासाठी सदैव सुख देणाऱ्या धार्मिक माणसाबरोबर मैत्री करून परस्पर सुख देण्याचा उपदेश करावा. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Anga, dear friend, Indra, dear and saviour, giver of joy, omnipotent lord, self-refulgent and omniscient, reveal the truth for mortal humanity. Lord of universal wealth, none other than you is the giver of peace and bliss. I speak the very word of yours in covenant.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a man know God and the President of the Assembly is taught further in the 19th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) In the case of God : O dear friend, praise the Lord thus. O Almighty Thou art giver of peace and bliss. There is no conforter to a mortal man but Thee. O Lord ! I speak my words to Thee. (I glorify Thee sincerely). It is Thou that makest a man praise worthy. (2) In the case of the President of the Assembly O mighty friend, thou admirest and encouragest a virtuous person. There is none who is giver of happiness as thy noble self. I glorify thee sincerely.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
THE COMMENTATOR'S NOTES (अंग) मित्र = Dear friend. (इन्द्र) दुःखविदारक = Destroyer of all misery.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should glorify the Lord as the giver of happiness. They should also keep friendship with un-paralleled person of noble acts who is righteous and constant giver of delight. Thus they should utter words of advice for the mutual benefit.
Subject of the mantra
Then, how to know God and the President of the Assembly etc.?This subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (aṅga) =friend and, (śaviṣṭha)= most powerful, [parameśvara]=God,(yataḥ) =because, (tvam)=you, (devaḥ)= have divine qualities, (asi) =are, (tasmān) =that, (martyam) =person, (pra) =intensely, (śaṃsiṣaḥ) =praise, He=O! (maghavan)=who grants ultimate wealth and, (indra)=who removes sorrows, (yataḥ) =because, (tvat) =from you, (anyaḥ)=other, (marḍitā)=who provides happiness, (na) =not, (asti) =is, (tasmāt)=therefore, (te) =your, (vacaḥ)=of righteous words, (bravīmi)= I preach.
English Translation (K.K.V.)
O friend and most powerful God! Because you have divine qualities, praise that person intensely. O the one who grants ultimate wealth and removes sorrows! Because there is no one who provides happiness other than you, therefore I preach with your righteous words.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
One should give advice for mutual benefit and make friends with righteous people who give constant happiness through excellent deeds and are praised by people.
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