ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 16
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
को अ॒द्य यु॑ङ्क्ते धु॒रि गा ऋ॒तस्य॒ शिमी॑वतो भा॒मिनो॑ दुर्हृणा॒यून्। आ॒सन्नि॑षून्हृ॒त्स्वसो॑ मयो॒भून्य ए॑षां भृ॒त्यामृ॒णध॒त्स जी॑वात् ॥
स्वर सहित पद पाठकः । अ॒द्य । यु॒ङ्क्ते॒ । धु॒रि । गाः । ऋ॒तस्य॑ । शिमी॑ऽवतः । भा॒मिनः॑ । दुःऽहृ॒णा॒यून् । आ॒सन्ऽइ॑षून् । ह॒त्सु॒ऽअसः॑ । म॒य॒ऽभून् । यः । ए॒षा॒म् । भृ॒त्याम् । ऋ॒णध॑त् । सः । जी॒वा॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
को अद्य युङ्क्ते धुरि गा ऋतस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हृणायून्। आसन्निषून्हृत्स्वसो मयोभून्य एषां भृत्यामृणधत्स जीवात् ॥
स्वर रहित पद पाठकः। अद्य। युङ्क्ते। धुरि। गाः। ऋतस्य। शिमीऽवतः। भामिनः। दुःऽहृणायून्। आसन्ऽइषून्। हत्सुऽअसः। मयऽभून्। यः। एषाम्। भृत्याम्। ऋणधत्। सः। जीवात् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 16
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सेनापतेः कृत्यमुपदिश्यते ॥
अन्वयः
कोऽद्यर्तस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हृणायूनासन्निषून् हृत्स्वसो मयोभून् सुवीरान् धुरि युङ्क्ते य एषां भृत्यां गा ऋणधत् स चिरञ्जीवात् ॥ १६ ॥
पदार्थः
(कः) (अद्य) इदानीम् (युङ्क्ते) युक्तो भवति (धुरि) शत्रुहिंसने युद्धे (गाः) भूमीः (ऋतस्य) सत्याचारस्य (शिमीवतः) प्रशस्तकर्मयुक्तान् (भामिनः) शत्रूणामुपरिक्रोधकारिणः (दुर्हृणायून्) शत्रुभिर्दुर्लभं हृणं प्रसह्यकरणं येषां ते दुर्हृणास्त इवाचरन्तीति दुर्हृणायवस्तान् यन्त्यत्र क्याच्छन्दसीत्युः प्रत्ययः। (आसन्निषून्) आसने प्राप्ता बाणा यैस्तान् (हृत्स्वसः) ये हृत्स्वस्यन्ति बाणान् तान् (मयोभून्) मयः सुखं भावुकान् (यः) (एषाम्) (भृत्याम्) भृत्येषु साध्वीं सेनाम् (ऋणधत्) समृध्नुयात् (सः) (जीवात्) चिरञ्जीवेत् ॥ १६ ॥
भावार्थः
सर्वाध्यक्षो राजा सर्वान् प्रसिद्धामाज्ञां दद्यात् सर्वान् सेनास्थवीरान् सत्याचारेण युञ्जीत सदैषां जीविकां वर्द्धयित्वा स्वयं दीर्घायुः स्यात् ॥ १६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर सेनापति के योग्य कर्म का उपदेश करते हैं ॥
पदार्थ
(कः) कौन (अद्य) इस समय (ऋतस्य) सत्य आचरण सम्बन्धी (शिमीवतः) उत्तम क्रियायुक्त (भामिनः) शत्रुओं के ऊपर क्रोध करने (दुर्हृणायून्) शत्रुओं को जिनका दुर्लभ सहसा कर्म उनके समान आचरण करने (आसन्निषून्) अच्छे स्थान में बाण पहुँचाने (हृत्स्वसः) शत्रुओं के हृदय में शस्त्र प्रहार करने और (मयोभून्) स्वराज्य के लिये सुख करनेहारे श्रेष्ठ वीरों को (धुरि) संग्राम में (युङ्क्ते) युक्त करता है वा (यः) जो (एषाम्) इनकी जीविका के निमित्त (गाः) भूमियों को (ऋणधत्) समृद्धियुक्त करे (सः) वह (जीवात्) बहुत समय पर्यन्त जीवे ॥ १६ ॥
भावार्थ
सबका अध्यक्ष राजा सबको प्रकट आज्ञा देवे। सब सेना वा प्रजास्थ पुरुषों को सत्य आचरणों में नियुक्त करे। सर्वदा उनकी जीविका बढ़ाके आप बहुत काल पर्यन्त जीवे ॥ १६ ॥
विषय
ज्ञानोज्ज्वल जीवन
पदार्थ
१. (कः) = वह आनन्दस्वरूप प्रभु (अद्य) = आज, इस मानवदेह में (ऋतस्य धुरि) = यज्ञ के निर्वाह में, अर्थात् यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त कराने के लिए (गाः) = ज्ञान की वाणियों को (युंक्ते) = हमारे साथ युक्त करता है । ये ज्ञान की वाणियाँ (शिमीवतः) = कर्मवाली हैं, इनमें कर्मों का उपदेश दिया गया है - 'कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि' । (भामिनः) ये उज्ज्वल हैं - सत्यज्ञानवाली होने से ये चमकती हुई हैं, हमारे जीवनों को भी उज्ज्वल बनाती हैं । (दुर्हृणायून्) = [हृणीयतिर्हानिकर्मा] ये [हातुमशक्यान्] छोड़ने योग्य नहीं । स्वाध्याय के नित्य कर्तव्य होने से इनका छोड़ना सम्भव नहीं । (आसन् इषून्) = मुख में ये गमनवाली हैं । मुख से इनका उच्चारण होता है, अथवा ये इषुतुल्य हैं । उच्चरित हुई - हुई ये शत्रुओं का संहार करनेवाली हैं । (हृत्स्वसः) हृदयों में चमकनेवाली हैं [अस् कान्ति] । हृदय में ही इनका प्रकाश होता है । (मयोभून्) = ये कल्याण का भावन करनेवाली हैं । २. (यः) = जो भी व्यक्ति (एषाम्) = इन ज्ञानवचनों के (भृत्याम्) = भरण को, धारण को (ऋणधत्) = समृद्ध करता है, बढ़ाता है, अर्थात् इन्हें अधिक - से - अधिक धारण करता है (सः जीवात्) = वही वस्तुतः जीता है, सुन्दर जीवनवाला होता है । ज्ञान की वाणियों के भरण से रहित पुरुष तो पशुतुल्य जीवनवाले हैं और इस प्रकार जीवन्मृत - से ही हैं । जीवन तो वही है जोकि ज्ञान से उज्ज्वल है ।
भावार्थ
भावार्थ = ज्ञान की वाणियाँ ही मनुष्य के जीवन को उज्ज्वल बनाती हैं ।
विषय
प्रमुख सर्वनियोक्ता नायक के लक्षण ।
भावार्थ
[ प्रश्न ] ( अद्य ) आज के समान सदा ( कः ) कौन समर्थ पुरुष ( ऋतस्य धुरि गाः ) गतिशील रथ में जिस प्रकार बैलों या वेगवान् अश्वों को जोड़ा जाता है उसी प्रकार ( ऋतस्य धुरि ) सत्य न्याय प्रकाशन, यज्ञ सम्पादन, वेद ज्ञान अध्ययनाध्यापनादि कार्यों के धुरा उठाने के कार्यों में (शिमीवतः) उत्तम कर्मों वाले (भामिनः) विरोधियों पर असह्य क्रोध करने वाले तेजस्वी, (दुर्हणायून्) विरोधियों से असह्य, पराक्रम और कोप करने वाले (आसन्-इषून्) मुख्य लक्ष्य पर वाण फेंकने वाले, लक्ष्यवेधी (हृत्स्वसः) शत्रु के हृदय आदि मर्मस्थानों पर निशाना लगाने वाले, मर्मवेधी,( मयोभून् ) प्रजा को सुख शान्ति देने वाले वीर, कर्मिष्ठ, उग्र, लक्ष्य वेधी और मर्मच्छेदी सुखप्रद पुरुषों को ( युङ्क्ते ) कार्य में लगाये रखता है ? [ उत्तर ] ( कः ) वह प्रजापति, राजा ही इनको राष्ट्र के उचित कर्मों में नियुक्त करें । ( यः ) जो राजा ( एषाम् ) इन उक्त लोगों की (भृत्याम्) भरण पोषण या जीविका पर लगी सेना को, (ऋणधत्) खूब प्रबल, समृद्ध कर लेता है ( सः ) वही राजा (जीवात्) जीया करता है, उसका राज्य चिरस्थायी रहता है । अथवा —( यः भृत्याम् एषाम् ऋणधात् ) जो भृति अर्थात् वेतन पर उनको रखकर समृद्ध करता है वह ही जीता रहता है। अथवा (एषाम् भृत्याम्) इन लोगों के भरण पोषण को जो अच्छा बनाये रखता है वह स्थायी होकर रहता है। फलतः अधीनस्थ अधिकारियों को राजा अपनी स्थिरता के लिये उत्तम वेतनों पर नियुक्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।
विषय
विषय (भाषा)- अब राजा का सूर्य के समान, करने योग्य कर्म का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे राजादयो मनुष्याः ! यूयं यथा अत्र नाम गोःचन्द्रमसः {गृहे} त्वष्टुः अपीच्यम् अस्ति इत्था अमन्वत तथा अह न्यायप्रकाशाय प्रजागृहे वर्त्तध्वम् ॥१५॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (राजादयो)=राजा आदि (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यथा)=जैसे, (अत्र) अस्मिञ्जगति=इस संसार में, (नाम) प्रसिद्धं रचनं नामकरणं वा= प्रसिद्ध रचना या नाम रखी हुई, (गोः) पृथिव्याः=पृथिवी और, (चन्द्रमसः) चन्द्रलोकादेः= चन्द्रमा आदि लोकों के, {गृहे} स्थाने= स्थान में, (त्वष्टुः) मूर्तद्रव्यछेदकस्य=मूर्त पदार्थों को पृथक्-पृथक् भागों में बाँटनेवाले, (अपीच्यम्) येऽप्यञ्चन्ति प्राप्नुवन्ति तेषु साधुम्= प्रकाशित करनेवाले व्यवहार में उत्तम, (अस्ति)=है। (इत्था) अनेन हेतुना=इस कारण से, (अमन्वत) मन्यन्ते=माना जाता है, (तथा)=वैसे ही, (अह) विनिग्रहे=रोकने में और, (न्यायप्रकाशाय)= न्याय के प्रकाश के लिये, (प्रजागृहे)= प्रजा के निवास में, (वर्त्तध्वम्)=निवास करो ॥१५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि ईश्वर की विद्या की वृद्धि से कोई प्रतिकूलता और हानि नहीं हो सकती है, सब कालों और सब क्रियाओं में एकरस सृष्टि के नियम होते हैं। जैसे सूर्य का पृथिवी के साथ आकर्षण और प्रकाश आदि सम्बन्ध हैं, वैसे ही अन्य लोकों के साथ हैं। क्योंकि ईश्वर के बनाये नियम का अनुचित पालन नहीं होता है ॥१५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (राजादयो) राजा आदि (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यथा) जैसे (अत्र) इस संसार में, (नाम) प्रसिद्ध रचना या नाम रखी हुई (गोः) पृथिवी और (चन्द्रमसः) चन्द्रमा आदि लोकों के {गृहे} निवास स्थान में, (त्वष्टुः) मूर्त पदार्थों को पृथक्-पृथक् भागों में बाँटनेवाला व (अपीच्यम्) प्रकाशित करनेवाले व्यवहार में उत्तम (अस्ति) है और (इत्था) इस कारण से (अमन्वत) माना जाता है। (तथा) वैसे ही (अह) बंधन करने और (न्यायप्रकाशाय) न्याय का प्रकाश करने के लिये (प्रजागृहे) प्रजा के निवास में (वर्त्तध्वम्) रहो ॥१५॥
संस्कृत भाग
अत्र॑ । अह॑ । गोः । अ॒म॒न्व॒त॒ । नाम॑ । त्वष्टुः॑ । अ॒पी॒च्य॑म् । इ॒त्था । च॒न्द्रम॑सः । गृ॒हे ॥ विषयः- अथ राज्ञः सूर्यवत्कृत्यमुपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्ज्ञातव्यमीश्वरविद्यावृद्ध्योर्हानिर्विपरीतता भवितुं न शक्या, सर्वेषु कालेषु सर्वासु क्रियास्वेकरससृष्टिनियमा भवन्ति। यथा सूर्यस्य पृथिव्या सहाकर्षणप्रकाशादिसम्बन्धाः सन्ति, तथैवान्यभूगोलैः सह सन्ति। कुत ईश्वरेण संस्थापितस्य नियमस्य व्यभिचारो न भवति ॥१५॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वांचा अध्यक्ष असलेल्या राजाने सर्वांना प्रत्यक्ष आज्ञा द्यावी. सर्व सेना व प्रजेतील पुरुषांना सत्याचरणात नियुक्त करावे. त्यांची जीविका वाढवून स्वतः दीर्घकाळ जिवंत राहावे. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Who joins the bullocks to the front yoke of the chariot of Truth to-day as ever? The Lord Ruler of the universe. And he who joins men of noble action, heroes of passion and righteousness, frightful fighters, archers of the bow and arrow who pierce the hearts of contradictions and maintain peace and joy, may he who joins these to truth and promotes these servants of truth to prosperity live long.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duty of Indra (Commander of the army) is taught further in the 16th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Who yokes or appoints today in the battle the active, vigorous brave soldiers of the king of truthful nature whose fury to the wicked enemies is unbearable and who use powerful arrows and other weapons, who trample on the heart of the foes and who give happiness to friends. He who helps in the prosperity of the army good to all members and attendants and to the land, obtains long life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(धुरिं) शत्रुहिंसने युद्धे = In the battle where enemies are killed. (शिमीवतः) प्रशस्तकर्मयुक्तान = Actively engaged in the performance of noble deeds. (भृत्याम्) भृत्येषु साध्वीं सेनाम् = Army good to all members and attendants.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The King who is the Supervisor of all, should give orders to all and should make all soldiers of the army full of truthful character and conduct. He should always bear in mind their livelihood and welfare and should obtain long life by observing the rules of health.
Subject of the mantra
Then, He preaches about the deeds worthy of being done by a Commander.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(kaḥ) =Who, (adya) =now, (tasya) =that, (śimīvataḥ) =who has great deeds, {ṛtasya}= who has truthful conduct, (bhāminaḥ) =who is intolerant of his enemies, (durhṛṇāyūn)=Insufferable, brave and angry with opposing enemies, (āsanniṣūn)=Those who direct the arrows to the right place, (hṛtsvasaḥ) =Those who aim at hearts, (mayobhūn)= giving pleasure to emotional people and, (suvīrān)=of the best warriors, (dhuri)=killing enemies in war, (yuṅkte) =is appropriate, (yaḥ) =who, (eṣām) =of these, (bhṛtyām)= to the loyal army of servants, (gāḥ) =in the earth, (ṛṇadhat)= who enriches, (saḥ) =he. {jīvāt} =live long.
English Translation (K.K.V.)
Who is now like that one who has great deeds, who has truthful conduct, who is angry at his enemies, who is intolerant of his enemies, who is brave and angry, who directs the arrows at the right place, who aims at the hearts, who gives happiness to the emotional people and who is the best warrior in the war? It is appropriate to kill enemies. Long live the one who enriches the land with a loyal army of his servants.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The king, who is the head of all, gives a famous order to everyone that the brave men in the army should be equipped with truthful conduct and live a long life by expanding their livelihood.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal