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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    तान् पूर्व॑या नि॒विदा॑ हूमहे व॒यं भगं॑ मि॒त्रमदि॑तिं॒ दक्ष॑म॒स्रिध॑म्। अ॒र्य॒मणं॒ वरु॑णं॒ सोम॑म॒श्विना॒ सर॑स्वती नः सु॒भगा॒ मय॑स्करत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तान् । पूर्व॑या । नि॒ऽविदा॑ । हू॒म॒हे॒ । व॒यम् । भग॑म् । मि॒त्रम् । अदि॑तिम् । दक्ष॑म् । अ॒स्रिध॑म् । अ॒र्य॒मण॑म् । वरु॑णम् । सोम॑म् । अ॒श्विना॑ । सर॑स्वती । नः॒ । सु॒ऽभगा॑ । मयः॑ । क॒र॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तान् पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्। अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तान्। पूर्वया। निऽविदा। हूमहे। वयम्। भगम्। मित्रम्। अदितिम्। दक्षम्। अस्रिधम्। अर्यमणम्। वरुणम्। सोमम्। अश्विना। सरस्वती। नः। सुऽभगा। मयः। करत् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्याः कया कान् प्राप्य विश्वसिते विश्वसेयुरित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा वयं पूर्वया निविदाऽभिलक्षितानुक्तांस्तान् सर्वान् विदुषोऽस्रिधं भगं मित्रमदितिं दक्षमर्यमणं वरुणं सोमं च हूमहे। यथैतेषां समागमोत्पन्ना सुभगा सरस्वत्यश्विना नोऽस्माकं मयस्करन् सुखकारिणो भवेयुस्तथा यूयं कुरुत ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (तान्) उक्तान् वक्ष्यमाणान् सर्वान् विदुषः (पूर्वया) सनातन्या (निविदा) वेदावाण्याऽभिलक्षितान् निश्चितानर्थान् विदन्ति यया तया वाचा। निविदिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (हूमहे) प्रशंसेम (वयम्) (भगम्) ऐश्वर्य्यवन्तम् (मित्रम्) सर्वसुहृदम् (अदितिम्) सर्वविद्याप्रकाशवन्तम् (दक्षम्) विद्याचातुर्य्यबलयुक्तम् (अस्रिधम्) अहिंसकम् (अर्य्यमणम्) न्यायकारिणम् (वरुणम्) वरगुणयुक्तं दुष्टानां बन्धकारिणम् (सोमम्) सृष्टिक्रमेण सर्वपदार्थाभिषवकर्त्तारं शान्तम् (अश्विना) शिल्पविद्याध्यापकाध्ययनक्रियायुक्तावग्निजलादिद्वन्द्वं वा (सरस्वती) विद्यासुशिक्षया युक्ता वागिव विदुषी स्त्री (नः) अस्माकम् (सुभगा) सुष्ठ्वैश्वर्यपुत्रपौत्रादिसौभाग्यसहिता (मयः) सुखम् (करन्) कुर्य्युः। लेट्प्रयोगोऽयम्। बहुलं छन्दसीति विकरणाभावः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि कस्यचिद्वेदोक्तलक्षणैर्विना विदुषामविदुषां च लक्षणानि यथावद्विदितानि भवितुं शक्यानि न च विद्यासुशिक्षासंस्कृता वाक् सुखकारिणी भवितुं शक्या तस्मात्सर्वे मनुष्या वेदार्थविज्ञानेनैतेषां लक्षणानि विदित्वा विद्वत्सङ्गस्वीकरणमविद्वत्सङ्गत्यागं च कृत्वा सर्वविद्यायुक्ता भवन्तु ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य किससे किन्हें पाकर विश्वासयुक्त पदार्थ में विश्वास करें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (वयम्) हम लोग (पूर्वया) सनातन (निविदा) वेदवाणी जिससे सब प्रकार से निश्चित किये हुए पदार्थों को प्राप्त होते हैं, उससे कहे हुए वा जिनको कहेंगे (तान्) उन सब विद्वानों को वा (अस्रिधम्) अहिंसक अर्थात् जो हिंसा नहीं करता उस (भगम्) ऐश्वर्ययुक्त (मित्रम्) सबका मित्र (अदितिम्) समस्त विद्याओं का प्रकाश (दक्षम्) और उनकी चतुराइयोंवाला विद्वान् (अर्य्यमणम्) न्यायकारी (वरुणम्) उत्तम गुणयुक्त दुष्टों का बन्धनकर्त्ता (सोमम्) सृष्टि के क्रम से सब पदार्थों का निचोड़ करनेवाला तथा जो शान्तचित्त है, उस (अश्विना) विद्या के पढ़ने-पढ़ाने का काम रखनेवाले वा जल और आग दो-दो पदार्थों को (हूमहे) स्तुति करते हैं और जो संग से उत्पन्न हुई (सरस्वती) विद्या और (सुभगा) श्रेष्ठ शिक्षा से युक्त वाणी (नः) हम लोगों को (मयः) सुख (करन्) करें, वैसे तुम भी करो और वाणी तुम्हारे लिये भी वैसे कहें ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    किसी को भी वेदोक्त लक्षणों के विना विद्वान् और मूर्खों के लक्षण जाने नहीं जा सकते और न उनके विना विद्या और श्रेष्ठ शिक्षा से सिद्ध की हुई वाणी सुख करनेवाली हो सकती है। इससे सब मनुष्य वेदार्थ के विशेष ज्ञान से विद्वान् और मूर्खों के लक्षण जानकर विद्वानों का संग कर, मूर्खों का संग छोड़ के समस्त विद्यावाले हों ॥ ३ ॥

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    विषय

    देवाह्वान

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में देवों से दीर्घ जीवन की प्रार्थना की गई है । (तान्) = उन देवों को (पूर्वया) = पूर्वकालीन - सृष्टि के आरम्भ में उच्चारण की गई (निविदा) = [निवित् = वाङ्नाम = नि०] वेदवाणी के द्वारा (वयम्) = हम (हूमहे) = पुकारते हैं । वेदवाणी में इन सब देवों का जैसा स्तवन किया गया है, उसी प्रकार हम इनका स्तवन करते हैं । इस प्रकार इस वेदवाणी से हमें इनका ज्ञान प्राप्त होता है । २. सबसे पहले हम (भगम्) = भग को पुकारते हैं । यह ऐश्वर्य की देवता है । उत्तम मार्ग से अर्जित धन ही भग है - यही सेवनीय है । जीवन - यात्रा की पूर्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक है । ३. (मित्रम्) = हम मित्र को पुकारते हैं । यह स्नेह [ञिमिदा स्नेहने] की देवता है । संसार में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यही है कि हम सबके साथ स्नेह से चलें । प्रभु ने यह संसार परस्पर लड़ने - झगड़ने के लिए नहीं बनाया है । ४. (अदितिम्) = हम 'अदिति' को पुकारें । यह 'अ - दिति' अखण्डन की देवता है - स्वास्थ्य की । सब प्रकार की उन्नतियों का मूल यह स्वास्थ्य ही है । "धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्" [मनु०] - यह उक्ति प्रसिद्ध है । ५. (दक्षम्) = हम दक्ष को पुकारते हैं । यह शब्द Strength of will - मानस बल व दृढ निश्चय का सूचक है । यह मानस बल ही मनुष्य को संसार में सफल करता है । निर्बल मन 'बन्ध' का कारण बनता है तो सबल मन 'मोक्ष' का । ६. (अस्त्रिधम्) = हम शोषण से रहित, सदा एकरस रहनेवाले–अन्य इन्द्रियों की भाँति थक न जानेवाले - मरुद्गण [प्राणसमूह] को पुकारते हैं । इन प्राणों की साधना से हमारे शरीर, मन व बुद्धि में विकार नहीं आ पाते । "प्राणायामैर्दहेद् दोषान्" = प्राणायाम से दोषों का दहन होता है । ७. (अर्यमणम्) = हम अर्यमा को पुकारते हैं । 'अरीन् यच्छति' इस व्युत्पत्ति से इसमें काम - क्रोधादि को जीतने की भावना है । काम - क्रोध ही तो महान् शत्रु हैं, इन्हें जीते बिना किसी भी प्रकार का कल्याण सम्भव नहीं । ८. (वरुणम्) = हम वरुण को पुकारते हैं । यह द्वेष - निवारण की देवता है । द्वेष मनुष्य की सब शक्तियों को भस्म करनेवाला है । जीवनीशक्ति के लिए यह विष का काम करता है । ९. (सोमम्) = हम सोम को पुकारते हैं । शरीर में यह वीर्य के रूप में है । सुरक्षित सोमशक्तिवाला पुरुष ही सौम्य व 'द्वेषादि से ऊपर उठा हुआ' बनता है । १०. (अश्विना) = हम अश्विनी देवों को पुकारते हैं । निरुक्त १२/१ के अनुसार ये 'सूर्याचन्द्रमसौ' हैं । नित्य गतिवाले सूर्य की भाँति [सरति] सतत क्रियाशील बनकर हम सूर्य की भाँति चमकते हैं और 'चदि आह्लादे' चन्द्र की भाँति आह्लादमय मनोवृत्तिवाले होते हैं । यही वृत्ति दीर्घायुष्य का कारण बनती है । ११. अन्त में हमारी प्रार्थना यही है कि (सुभगा) = उत्तम सौभाग्य की कारणभूत, शोभन धन से युक्त (सरस्वती) = ज्ञान की अधिष्ठातृ देवता (नः) = हमारे (मयः) = कल्याण को (करत्) = करे । 'धनयुक्त ज्ञान' जीवन को अत्यन्त सुन्दर बना देता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम वेदवाणी से देवों का ज्ञान प्राप्त करके उनके गुणों को अपने जीवन में लाने का प्रयत्न करें । शोभन धनोपेत सरस्वती के हम उपासक हों ।

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    विषय

    धर्मात्मा विद्वान् पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (भगम् ) ऐश्वर्यवान्, सेवा करने योग्य, सुखजनक, ( मित्रम् ) सब सुदृढ़ ब्राह्मण, मरणादि दुःखों से बचाने वाले वैद्य आदि, (अदितिम्) कभी नाश, पीड़ा या दुःख न देने योग्य, सदा पूज्य माता,पिता भूमि और गुरु आदि पूज्य जन, ( दक्षम् ) कार्यों में चतुर ज्ञानी, गुरु और पिता आदि, ( अस्त्रिधम् ) अहिंसक, ( अर्यमणम् ) शत्रुओं को वश करने में समर्थ, न्यायकारी, ( वरुणम् ) सर्वश्रेष्ठ, दुःखों और दुष्टों के वारक, (सोमम्) सर्वोत्पादक, पिता, सर्वप्रेरक, उपदेशक, शम दमादि सम्पन्न साधक जन, ( अश्विना ) गुरु शिष्य तथा स्त्री पुरुष, अग्नि, जल, दिनरात्रि आदि युगल, (तान्) उन सभी को हम ( पूर्वया निविदा ) अपने से पूर्व के गुरुओं द्वारा पढ़ने, ज्ञान करने योग्य, सनातन से चली आयी वेदवाणी द्वारा ( हूमहे ) प्रशंसा करें, उनका वेदानुसार ज्ञान, उपयोग और आदर करें । (सरस्वती) विदुषी स्त्री और उत्तम ज्ञानों से भरपूर वेद वाणी और ज्ञानवान् परमेश्वर और विद्वज्जन भी ( सुभगा ) उत्तम ऐश्वर्यो तथा पुत्र पौत्रादि, धन धान्यादि से युक्त सेवनीय सुखकारी ज्ञान से युक्त हो कर ( नः ) हमें ( मयः करत् ) सुख प्रदान करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ७ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराड् बृहती ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- मनुष्य किससे किन्हें पाकर विश्वासयुक्त पदार्थ में विश्वास करें, यह उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यथा वयं पूर्वया निविदा अभिलक्षितान् उक्तान् तान् सर्वान् विदुषः अस्रिधं भगं मित्रम् अदितिं दक्षम् अर्यमणं वरुणं सोमं च हूमहे। यथा एतेषां समागमा उत्पन्ना सुभगा सरस्वति अश्विना नः अस्माकं मयः करन् सुखकारिणः भवेयुः तथा यूयं कुरुत ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यथा)=जिस प्रकार से, (वयम्)=हम, (पूर्वया) सनातन्या=सनातन काल से चले आ रहे, (निविदा) वेदावाण्याऽभिलक्षितान् निश्चितानर्थान् विदन्ति यया तया वाचा=वेद की वाणी से निश्चित किये हुए अर्थों को जानते हैं, उससे, (अभिलक्षितान्)= निश्चित किये हुए, (उक्तान्)=उक्त, (तान्) उक्तान् वक्ष्यमाणान् सर्वान् विदुषः=कहे गये समस्त विद्वानों को, (सर्वान्)= समस्त, (विदुषः)= विद्वानों को, (अस्रिधम्) अहिंसकम्=हिंसा रहित, (भगम्) ऐश्वर्य्यवन्तम्=ऐश्वर्य्यवाले, (मित्रम्) सर्वसुहृदम्=मित्र, (अदितिम्) सर्वविद्याप्रकाशवन्तम्=समस्त विद्या से प्रकाशित करनेवाले, (दक्षम्) विद्याचातुर्य्यबलयुक्तम्=विद्या चातुर्य्य और बल से युक्त, (अर्य्यमणम्) न्यायकारिणम्=न्यायकारी को, (वरुणम्) वरगुणयुक्तं दुष्टानां बन्धकारिणम्=श्रेष्ठ गुणों से युक्त और दुष्टों को बाँध कर रख देनेवाले, (च)=और, (सोमम्) सृष्टिक्रमेण सर्वपदार्थाभिषवकर्त्तारं शान्तम्= सृष्टि के क्रम द्वारा समस्त पदार्थों का आसवन करनेवाले की, (हूमहे) प्रशंसेम=प्रशंसा करें, (यथा)=जैसे, (एतेषाम्)=इनके, (समागमा)=मिलने से, (उत्पन्ना)= उत्पन्न हुआ, (सुभगा) सुष्ठ्वैश्वर्यपुत्रपौत्रादिसौभाग्यसहिता= उत्तम ऐश्वर्य, पुत्र और पौत्र आदि के सौभाग्य सहित, (सरस्वती) विद्यासुशिक्षया युक्ता वागिव विदुषी स्त्री= विद्या और उत्तम शिक्षा से युक्त वाणी के समानवाली विदुषी स्त्री, (अश्विना) शिल्प विद्याध्यापकाध्ययनक्रियायुक्तावग्निजलादिद्वन्द्वं वा= शिल्पविद्या सिखानेवाले और सीखनेवाले, अथवा प्रायोगिक रूप से अग्नि और जल दोनों के जोड़े से (नः) अस्माकम्=हमारे लिये, (मयः) सुखम्=सुख, (करन्) कुर्य्युः=करो, (सुखकारिणः)=सुख देनेवाले, (भवेयुः)=होओ, (तथा)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब, (कुरुत)=करो॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। किसी को भी वेद में कहे गये लक्षणों के विना विद्वानों और विद्वानों से भिन्न के लक्षण ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हो सकते हैं। और विद्या, उत्तम शिक्षा और शुद्ध न की हुई वाणी सुख देनेवाली नहीं हो सकती है। इसलिये सब मनुष्यों को वेद के अर्थ के विशेष ज्ञान से इनके लक्षणों को जान करके, विद्वानों की संगति को स्वीकार करके और विद्वानों से भिन्न की संगति का त्याग करके समस्त विद्याओं से युक्त होना चाहिए ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जिस प्रकार से (वयम्) हम (पूर्वया) सनातन काल से चले आ रहे, (निविदा) वेद की वाणी से निश्चित किये हुए अर्थों को जानते हैं, उससे (अभिलक्षितान्) निश्चित किये हुए और (उक्तान्) उक्त (तान्) कहे गये समस्त विद्वानों को (अस्रिधम्) हिंसा रहित, (भगम्) ऐश्वर्य्यवाले, (मित्रम्) मित्र, (अदितिम्) समस्त विद्या से प्रकाशित करनेवाले, (दक्षम्) विद्या के चातुर्य्य और बल से युक्त, (अर्य्यमणम्) न्यायकारी, (वरुणम्) श्रेष्ठ गुणों से युक्त दुष्टों को बाँध कर रख देनेवाले (च) और (सोमम्) सृष्टि के क्रम द्वारा समस्त पदार्थों का आसवन करनेवाले की (हूमहे) हम प्रशंसा करें। (यथा) जैसे (एतेषाम्) इनके (समागमा) मिलने से (उत्पन्ना) उत्पन्न हुआ (सुभगा) उत्तम ऐश्वर्य, पुत्र और पौत्र आदि के सौभाग्य सहित (सरस्वती) विद्या और उत्तम शिक्षा से युक्त वाणी के समानवाली विदुषी स्त्री और (अश्विना) शिल्पविद्या सिखानेवाले और सीखनेवाले, अथवा प्रायोगिक रूप से अग्नि और जल दोनों के जोड़े से, (नः) हमारे लिये (मयः) सुख (करन्) करो, अर्थात् (सुखकारिणः) सुख देनेवाले (भवेयुः) होओ, (तथा) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (कुरुत) करो॥३॥

    संस्कृत भाग

    तान् । पूर्व॑या । नि॒ऽविदा॑ । हू॒म॒हे॒ । व॒यम् । भग॑म् । मि॒त्रम् । अदि॑तिम् । दक्ष॑म् । अ॒स्रिध॑म् । अ॒र्य॒मण॑म् । वरु॑णम् । सोम॑म् । अ॒श्विना॑ । सर॑स्वती । नः॒ । सु॒ऽभगा॑ । मयः॑ । क॒र॒त् ॥ विषयः- मनुष्याः कया कान् प्राप्य विश्वसिते विश्वसेयुरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि कस्यचिद्वेदोक्तलक्षणैर्विना विदुषामविदुषां च लक्षणानि यथावद्विदितानि भवितुं शक्यानि न च विद्यासुशिक्षासंस्कृता वाक् सुखकारिणी भवितुं शक्या तस्मात्सर्वे मनुष्या वेदार्थविज्ञानेनैतेषां लक्षणानि विदित्वा विद्वत्सङ्गस्वीकरणमविद्वत्सङ्गत्यागं च कृत्वा सर्वविद्यायुक्ता भवन्तु ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वेदोक्त लक्षणाशिवाय कुणालाही विद्वान व मूर्खांचे लक्षण जाणता येऊ शकत नाहीत. त्याशिवाय विद्या व श्रेष्ठ शिक्षणाने सिद्ध झालेली वाणी सुख देणारी असू शकत नाही. त्यासाठी सर्व माणसांनी वेदार्थाच्या विशेष ज्ञानाने विद्वान व मूर्खांचे लक्षण जाणून विद्वानांची संगती व मूर्खांचा संग त्यागून संपूर्ण विद्या प्राप्त करावी. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Them, with the ancient and eternal Vedic voice of omniscience, do we invoke and celebrate: we praise and celebrate Bhaga, lord of glory, Mitra, universal friend, Aditi, mother of light, Daksha, lord of skill and expertise, Asridha, lord of love and ahinsa, Aryaman, lord of justice, Varuna, lord of all virtue worthy of choice, Soma, lord of beauty, peace and joy, Ashvins, lords of natural complementarities, and Sarasvati, mother of knowledge and learning and giver of good fortune who may, we pray, do us all the good in life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued-who should be trusted ?

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As we praise with the Vedic Speech which gives us exact and true knowledge of all, objects (Bhaga) a prosperous man (Mitra) a-man friendly to all (Aditi) person endowed with the light of all knowledge (दक्षम्) a dexterous learned man, (asridham) a non-violent person (Arnyaman) a just man (Varuna) a virtuous person punishing the wicked, (Soma) a man of peaceful nature, so you should also do. A learned woman who is like the cultured and refined speech and who is source of prosperity and good children to us may make us happy. May the teachers and students of technology and be the combination of fire and water etc. source of happiness to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (निविदा) वेदवाण्या अभिलक्षितान् निश्चितार्थाम् विदन्ति यया तथा वाचा । निवित् इति वाङ् नाम (निघ० १. ११) = With the Vedic Speech which gives us true knowledge of all objects. (अस्त्रिधंम्) अहिन्सकम् = Non-violent. (अदितिम्) सर्वविद्याप्रकाशवन्तम् = Endowed with the light of all sciences. (अश्विना) शिल्पविद्याध्यापकाध्ययन क्रियायुक्तौ अग्निजलादि द्वन्द्व वा = The teachers and students of the science of arts and industries or the pair of fire and water etc. (सरस्वती) विद्या सुशिक्षया युक्ता वाग् इव विदुषी स्त्री = A learned woman or wife like the refined and cultured speech as the result of wisdom and good education.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is not possible for any one to know correctly the definition of learned and foolish persons. A speech which is not cultured and refined as the result of wisdom and good education can never be the source of happiness. Therefore, it is the duty of all persons to acquire knowledge of all sciences by knowing the definition of the learned and foolish persons, by accepting the association of the wise enlightened and by giving up the company of un-educated persons.

    Translator's Notes

    सरस्वतीति वाङ्नाम (निघ० १.११ ) सरस्वतीति पदनाम (निघ० ५.५) पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च यत्र ज्ञानार्थग्रहणम् विदुषी स्त्री सृ-गतौ इत्यस्मादपि अयम् एवार्थ: वागेवसरस्वती (ऐतरेय० २.२४,६.६) योषा वै सरस्वती वृषा पूषा (शत० २.५.१.११)

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    Subject of the mantra

    People should believe in whom after getting whom? This has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ)=humans, (yathā) =like, (vayam) =we, (pūrvayā)= going on since eternal times, (nividā) =know the meanings determined by the words of the Vedas, by that, (abhilakṣitān) =determined and, (uktān) =aforesaid, (tān)=all the scholars said, (asridham)=without violence, (bhagam)=the one with opulence, (mitram) =friend, (aditim)= the one who enlightens with all knowledge, (dakṣam)= equipped with wisdom, tact and strength, (aryyamaṇam) =judicial, (varuṇam) =the one who binds the evil ones with the best qualities, (ca) =and, (somam)= of the one who distills all things through the order of creation, (hūmahe)=let us praise, (yathā) =like, (eteṣām) =of these, (samāgamā) =by union, (utpannā) =created, (subhagā) =with great opulence, good fortune of sons and grandsons etc., (sarasvatī) =a wise woman with equal speech and good education and, (aśvinā)= the one who teaches craftsmanship and the one who learns it, or experiments with the pair of fire and water, (naḥ) =for us, (mayaḥ) =happiness, (karan) =do, i.e.(sukhakāriṇaḥ) =provider of happiness, (bhaveyuḥ) =be, (tathā) =similarly, (yūyam) =all of you, (kuruta) =do.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Just as we know the meaning determined by the words of the Vedas, which have been going on since times eternal; all the scholars determined by it and said above are considered to be free from violence, affluent, friendly, enlightened with all the knowledge, clever in knowledge. And let us praise the one who is powerful, just, endowed with noble qualities, who binds the wicked and who distills all things through the order of creation. Like the wonderful opulence that was born from their union, the good fortune of having sons and grandsons etc., a wise woman of equal speech with knowledge and good education, and one who teaches and learns crafts, or experiments with the pair of fire and water, please bring happiness for us, i.e. be the one who gives happiness, you all do the same.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Without the characteristics mentioned in the Vedas, no one can accurately know the characteristics of scholars and those other than scholars. And knowledge, good education and unpurified speech cannot give happiness. Therefore, all human beings should be equipped with all the knowledge by having special knowledge of the interpretation of the Vedas, knowing its characteristics, accepting the company of scholars and shunning the company of others who are not scholars.

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