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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तन्नो॒ वातो॑ मयो॒भु वा॑तु भेष॒जं तन्मा॒ता पृ॑थि॒वी तत्पि॒ता द्यौः। तद् ग्रावा॑णः सोम॒सुतो॑ मयो॒भुव॒स्तद॑श्विना शृणुतं धिष्ण्या यु॒वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । नः॒ । वातः॑ । म॒यः॒ऽभु । वा॒तु॒ । भे॒ष॒जम् । तत् । मा॒ता । पृ॒थि॒वी । तत् । पि॒ता । द्यौः । तत् । ग्रावा॑णः । सो॒म॒ऽसुतः॑ । म॒यः॒ऽभुवः॑ । तत् । अ॒श्वि॒ना॒ । शृ॒णु॒त॒म् । धि॒ष्ण्या॒ । यु॒वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः। तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। नः। वातः। मयःऽभु। वातु। भेषजम्। तत्। माता। पृथिवी। तत्। पिता। द्यौः। तत्। ग्रावाणः। सोमऽसुतः। मयःऽभुवः। तत्। अश्विना। शृणुतम्। धिष्ण्या। युवम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ किं कुर्यातामित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे धिष्ण्यावश्विनावध्येत्रध्यापकौ ! युवं यच्छृणुतं तन्मयोभु भेषजं नो वात इव वैद्यो वातु मातेव पृथिवी तन्मयोभु भेषजं वातु द्यौः पिता तन्मयोभु भेषजं वातु सोमसुतस्तत् ग्रावाणस्तन्मयोभुवो भेषजं वान्तु ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (तत्) विज्ञानम् (नः) अस्मभ्यम् (वातः) (मयोभु) परमसुखं भवति यस्मात्तत् (वातु) प्रापयतु (भेषजम्) सर्वदुःखनिवारकमौषधम् (तत्) मान्यम् (माता) मातृवन्मान्यहेतुः (पृथिवी) विस्तीर्णा भूमिः (तत्) पालनम् (पिता) जनक इव पालनहेतुः (द्यौः) प्रकाशमयः सूर्यः (तत्) कर्म (ग्रावाणः) मेघादयः पदार्थाः (सोमसुतः) सोमाः सुता येभ्यस्ते (मयोभुवः) सुखस्य भावयितारः (तत्) क्रियाकौशलम् (अश्विना) शिल्पविद्याध्येत्रध्यापकौ (शृणुतम्) यथावत् श्रवणं कुरुतम् (धिष्ण्या) शिल्पविद्योपदेष्टारौ (युवम्) युवाम् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    शिल्पविद्यावर्द्धितारावध्येत्रध्यापकौ यावदधीत्य विजानीयातां तावत् सर्वे सर्वेषां मनुष्याणां सुखाय निष्कपटतया नित्यं प्रकाशयेताम्। यतो वयमीश्वरसृष्टिस्थानां वाय्वादीनां पदार्थानां सकाशादनेकानुपकारान् गृहीत्वा सुखिनः स्याम ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (धिष्ण्या) शिल्पविद्या के उपदेश करने और (अश्विना) पढ़ने-पढ़ानेवालो ! (युवम्) तुम दोनों जो (शृणुतम्) सुनो (तत्) उस (मयोभु) सुखदायक उत्तम (भेषजम्) सब दुःखों को दूर करनेहारी ओषधि को (नः) हम लोगों के लिये (वातः) पवन के तुल्य वैद्य (वातु) प्राप्त करे वा (पृथिवी) विस्तारयुक्त भूमि जो कि (माता) माता के समान मान-सम्मान देने की निदान है वह (तत्) उस मान करानेहारे जिससे कि अत्यन्त सुख होता और समस्त दुःख की निवृत्ति होती है, औषधि को प्राप्त करावे वा (द्यौः) प्रकाशमय सूर्य्य (पिता) पिता के तुल्य जो कि रक्षा का निदान है, वह (तत्) उस रक्षा करानेहारे जिससे कि समस्त दुःख की निवृत्ति होती है, औषधि को प्राप्त करे वा (सोमसुतः) औषधियों का रस जिनसे निकाला जाय (तत्) वह कर्म तथा (ग्रावाणः) मेघ आदि पदार्थ (तत्) जो उनसे रस का निकालना वा जो (मयोभुवः) सुख के करानेहारे उक्त पदार्थ हैं, वे (तत्) उस क्रियाकुशलता और अत्यन्त दुःख की निवृत्ति करानेवाले ओषधि को प्राप्त करें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    शिल्पविद्या की उन्नति करनेहारे जो उसके पढ़ने-पढ़ानेहारे विद्वान् हैं, वे जितना पढ़के समझें उतना यथार्थ सबके सुखके लिये नित्य प्रकाशित करें, जिससे हम लोग ईश्वर की सृष्टि के पवन आदि पदार्थों से अनेक उपकारों को लेकर सुखी हों ॥ ४ ॥

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    विषय

    मयोभु - भेषजम्

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार देवों के गुणों का धारण करने पर सब देव हमारे अनुकूल होते हैं, उस समय हम यह प्रार्थना करने के पात्र होते हैं कि (तत्) = देवाराधन करने पर (वातः) = वायु (नः) = हमारे लिए (भयोभु) = कल्याण उत्पन्न करनेवाली (भेषजम्) = औषध को (वातु) = प्राप्त कराए । (तत्) = तब (माता पृथिवी) = सब ओषधियों को जन्म देनेवाली मातृस्थानापन्न यह पृथिवी उस भयोभु भेषज को प्राप्त कराए । (तत्) = तब यह (पिता द्यौः) = सूर्य के उचित सन्ताप के द्वारा ओषधियों का रक्षक यह द्युलोक उस भेषज को प्राप्त कराए । देवों की अनुकूलता को सिद्ध करने पर ही ओषधियाँ भी गुणवती होती हैं । प्रकृति के अधिक समीप रहने के कारण पशु मनुष्य की अपेक्षा अधिक स्वस्थ हैं । २. जब हम भी सूर्यादि देवों की अनुकूलता में जीवन चलाते हैं (तत्) = तब (सोमसुतः) = सोमलता आदि ओषधियों को जन्म देनेवाले (ग्रावाणः) = वृष्टिकारक मेघ हमें 'मयोभु भेषज' प्राप्त कराते हैं । हमारे लिए (मयोभुवः) = कल्याण उत्पन्न करनेवाले होते हैं । ३. हे (धिष्ण्या) = उत्तम बुद्धिवाले (अश्विना) = स्त्री - पुरुषो ! आप (तत्) = उस भेषज को (शृणुतम्) = सुनो और उसके समुचित प्रयोग से अपने शरीर को नीरोग बनाकर सुन्दर जीवन बितानेवाले होओ ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्राकृतिक शक्तियों के सम्पर्क में उनकी अनुकूलता को सिद्ध करने पर ओषिधयाँ भी गुणकारिणी होती हैं । हम उन ओषधियों को जानकर उनके प्रयोग से नीरोगता सिद्ध करें और सुखमय शान्त जीवन बितानेवाले हों ।

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    विषय

    धर्मात्मा विद्वान् पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( वातः ) वायु और प्राण ( नः ) हमें ( तत् ) वह नाना प्रकार के ( मयोभु ) सुखकारक ( भेषजम् ) रोग दूर करने का सामर्थ्य ( वातु ) प्राप्त करावे । ( माता पृथिवी ) माता और माता के समान पृथिवी दोनों ( तद् भेषजं वातु ) वह रोगनाशक बल दें। ( द्यौः पिता ) प्रकाशमय सूर्य पालक होकर पिता के समान ( तत् भेषजम् वातु ) उस रोगनाशक बल को प्राप्त करावे । ( सोमसुतः ) सोम अर्थात् रोगों को निकाल बाहर कर देने वाले और नाना सुखों और बलों के उत्पादक ओषधियों के रसों को तैयार करने वाले ( ग्रावाणः ) विद्वान् पुरुष तथा सिलबटा, खरल आदि साधन, उपकरण ( मयोभुवः ) सुखकारी होकर ( तत्भेषजम् ) नाना प्रकार के दुःखों के दूर करने के उपायों को प्राप्त करावें । हे ( अश्विना ) स्त्री पुरुषो ! माता पिताओ ! गुरु शिष्यो ! ( युवम् ) आप लोग ( धिष्ण्या ) बुद्धिमान् होकर (तत्) रोगों को और दुःखों को दूर करने के उपायों और साधनों का ( शृणुतं ) श्रवण करो और करावो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ७ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराड् बृहती ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे अध्ययन और अध्यापन करनेवाले क्या करें, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे धिष्ण्या अवश्विनौ अध्येत्री अध्यापकौ ! युवं यत् शृणुतं तत् मयोभु भेषजं नः वात इव वैद्यः वातु माता इव पृथिवी तत् मयोभु भेषजं वातु द्यौः पिता तत् मयोभु भेषजं वातु सोमसुतः तत् ग्रावाणः तत् मयोभुवः भेषजं वान्तु ॥४॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (धिष्ण्या) शिल्पविद्योपदेष्टारौ=शिल्प और विद्या का उपदेश करनेवालों, (अश्विना) शिल्पविद्याध्येत्रध्यापकौ= शिल्प और विद्या का अध्ययन और अध्यापन करनेवालों, (अध्येत्री) = अध्ययन (अध्यापकौ) = अध्यापन करनेवालों! (युवम्) युवाम्=तुम दोनों, (यत्)=जिसे, (शृणुतम्) यथावत् श्रवणं कुरुतम्=ठीक-ठीक सुनकर, (तत्) विज्ञानम्= विशेष ज्ञान का, (मयोभु) परमसुखं भवति यस्मात्तत्= परम सुख होता है, उस, (भेषजम्) सर्वदुःखनिवारकमौषधम्=समस्त दुःखों का निवारण करनेवाली औषधि को, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (वातः)=वायु के, (इव)=समान, (वैद्यः)= वैद्य, (वातु) प्रापयतु=प्राप्त करे। (माता) मातृवन्मान्यहेतुः=माता के समान माने जाने के कारण के, (इव) =समान, (पृथिवी) विस्तीर्णा भूमिः=विस्तृत भूमि, (तत्) मान्यम्=मान्य, (मयोभु) परमसुखं भवति यस्मात्तत्= परम सुख होता है, उस, (भेषजम्) सर्वदुःखनिवारकमौषधम्= समस्त दुःखों का निवारण करनेवाली औषधि को, (वातु) प्रापयतु= प्राप्त करे। (द्यौः) प्रकाशमयः सूर्यः= प्रकाशित सूर्य, (पिता) जनक इव पालनहेतुः= पिता के समान पालन करने के लिये, (तत्) पालनम् =पालन, (मयोभु) परमसुखं भवति यस्मात्तत्= परम सुख होता है, (भेषजम्) सर्वदुःखनिवारकमौषधम्= समस्त दुःखों का निवारण करनेवाली औषधि को, (वातु) प्रापयतु= प्राप्त करे। (सोमसुतः) सोमाः सुता येभ्यस्ते=सोम का रस जिससे निकाला जाता है, उस, (तत्) कर्म= कर्म से, (ग्रावाणः) मेघादयः पदार्थाः=बादल आदि पदार्थों के, (तत्) क्रियाकौशलम्=क्रिया और कौशल का, (मयोभुवः) सुखस्य भावयितारः=सुखकारी होकर, (भेषजम्) सर्वदुःखनिवारकमौषधम्= समस्त दुःखों का निवारण करनेवाली औषधि को, (वान्तु)= प्राप्त करें ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- शिल्पविद्या की वृद्धि करनेवाले, अध्ययन करनेवाले और अध्यापक जितना पढ़कर जानते हैं, उतना सब मनुष्यों के सुख के लिये निष्कपट रूप से नित्य प्रकाशित करें। जिस से हम लोग ईश्वर की सृष्टि में स्थित पवन आदि पदार्थों की समीपता से अनेक उपकारों को ग्रहण करके सुखी होवें ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (धिष्ण्या) शिल्प और विद्या का उपदेश करनेवाले, (अध्येत्री) अध्ययन करनेवालियों और (अश्विना) शिल्प और विद्या का अध्ययन और अध्यापन करनेवालों ! (युवम्) तुम दोनों को (यत्) जिसे (शृणुतम्) ठीक-ठीक सुनकर (तत्) विशेष ज्ञान का (मयोभु) परम सुख होता है, उस (भेषजम्) समस्त दुःखों का निवारण करनेवाली औषधि को (नः) हमारे लिये (वातः) वायु के (इव) समान (वैद्यः) वैद्य (वातु) प्राप्त करे। (माता) माता के समान माने जाने के कारण के (इव) समान (पृथिवी) विस्तृत भूमि को (तत्) मान्य और (मयोभु) परम सुख प्राप्त होता है, उस (भेषजम्) समस्त दुःखों का निवारण करनेवाली औषधि को (वातु) प्राप्त करे। (द्यौः) प्रकाशित सूर्य को (पिता) पिता के समान पालन करने के लिये, (तत्) पालन करने का (मयोभु) परम सुख प्राप्त होता है, [वह] (भेषजम्) समस्त दुःखों का निवारण करनेवाली औषधि को (वातु) प्राप्त करे। (सोमसुतः) सोम का रस जिससे निकाला जाता है, उस (तत्) कर्म से (ग्रावाणः) बादल आदि पदार्थों की (तत्) क्रिया और कौशल (मयोभुवः) सुखकारी होकर (भेषजम्) समस्त दुःखों का निवारण करनेवाली औषधि को (वान्तु) प्राप्त करें ॥४॥

    संस्कृत भाग

    तत् । नः॒ । वातः॑ । म॒यः॒ऽभु । वा॒तु॒ । भे॒ष॒जम् । तत् । मा॒ता । पृ॒थि॒वी । तत् । पि॒ता । द्यौः । तत् । ग्रावा॑णः । सो॒म॒ऽसुतः॑ । म॒यः॒ऽभुवः॑ । तत् । अ॒श्वि॒ना॒ । शृ॒णु॒त॒म् । धि॒ष्ण्या॒ । यु॒वम् ॥ विषयः- पुनस्तौ किं कुर्यातामित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- शिल्पविद्यावर्द्धितारावध्येत्रध्यापकौ यावदधीत्य विजानीयातां तावत् सर्वे सर्वेषां मनुष्याणां सुखाय निष्कपटतया नित्यं प्रकाशयेताम्। यतो वयमीश्वरसृष्टिस्थानां वाय्वादीनां पदार्थानां सकाशादनेकानुपकारान् गृहीत्वा सुखिनः स्याम ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शिल्पविद्येची उन्नती करणारे व ते शिकणारे आणि शिकविणारे विद्वान आहेत, ते जितके समजू शकतात तितके सर्वांच्या सुखासाठी सदैव प्रकट करावे, ज्यामुळे आम्ही लोक ईश्वराच्या सृष्टीतील वायू इत्यादी अनेक पदार्थांपासून अनेक उपकार घेऊन सुखी होऊ ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May the wind, refreshing and delightful, blow good and bring us that healthful medicinal freshness and joy. May mother earth and father sun give us that fresh lease of life. May the clouds, showers of joy, and the soma press of yajna rain down peace, health and happiness on us. O Ashvins, both nature’s powers of growth, complementarity and enlightenment, innately vested with universal wisdom, listen to our prayer.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O intelligent students and teachers of the science of arts and industries, hear our application. May the wind and the Vaidya (Physician) waft to us the beneficial and disease destroying medicament. May mother (who is like the earth) and father (who is like the sun) convey it to us. May the clouds which produce through rain Soma and other plants be givers of health and happiness to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (भेषजम्) सर्वदुः खनिवारकम् औषधम् = Medicament that destroys all suffering. (ग्रावारण:) मेधादयः पदार्था: = Clouds and other objects. (धिष्ण्यौ) शिल्पविद्योपदेष्टारौ = Preacher or instructors of technology.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the students and teachers of the science of arts and industries etc. to tell for the benefit of mankind what all the news that we may enjoy happiness by taking benefit from the air and other objects of the world.

    Translator's Notes

    ग्रावेति मेघनाम (निघ० १.१० धिषण्योति वाङ् नाम (निघ० १.११ )

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    Subject of the mantra

    Then, what should those who study and teach do? This matter is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (dhiṣṇyā)=those who preach crafts and knowledge, (adhyetrī) =those female who study and, (aśvinā)=those who study and teach crafts and knowledge, (yuvam) =to both of you, (yat) =to whom, (śṛṇutam) =by listening properly, (tat) =of special knowledge, (mayobhu) =there is ultimate happiness, that, (bheṣajam) =the medicine that cures all sorrows, (naḥ) =for us, (vātaḥ) =of air, (iva) =like, (vaidyaḥ) =doctor, (vātu) =must attain, (mātā)=due to being considered like a mother, (iva) =like, (pṛthivī) =to vast land, (tat)=having recognition and, (mayobhu)= ultimate happiness is attained, that, (bheṣajam)= the medicine that cures all sorrows, (vātu) =must attain, (dyauḥ)= to illuminated Sun, (pitā)= to nurture like a father, (tat) =of nurturing, (mayobhu) =one attains ultimate happiness, [vaha]=he, (bheṣajam) =the medicine that cures all sorrows, (vātu) =must attain, (somasutaḥ)= the juice from which Soma is extracted is called, by that, (tat) =deed, (grāvāṇaḥ)= of clouds etc. substances, (tat)=action and skill, (mayobhuvaḥ)=being pleasant, (bheṣajam) =the medicine that cures all sorrows, (vāntu) =must attain.

    English Translation (K.K.V.)

    O you who preach craft and knowledge, those male and female students who study and those who study and teach craft and knowledge! May you both get the supreme pleasure of special knowledge by listening properly to Him, may that medicine which removes all the sorrows be obtained for us by a doctor like air. Due to being treated like a mother, the vast land gets recognition and ultimate delight, get the medicine that removes all the sorrows. To follow the illuminated Sun like a father, he gets the supreme happiness by nurturing, may he get the medicine that removes all the sorrows. By that action from which the juice of Soma is extracted, the action and skill of clouds etc. substances become pleasurable and obtain the medicine that removes all the sorrows.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those who promote craftsmanship, students and teachers should reveal honestly every day, whatever they know after studying. So that, we can may be happy by receiving many benefactions in the proximity of things like air etc. present in God's creation.

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