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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अदि॑ति॒र्द्यौरदि॑तिर॒न्तरि॑क्ष॒मदि॑तिर्मा॒ता स पि॒ता स पु॒त्रः। विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः॒ प़ञ्च॒ जना॒ अदि॑तिर्जा॒तमदि॑ति॒र्जनि॑त्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदि॑तिः । द्यौः । अदि॑तिः । अ॒न्तरि॑क्षम् । अदि॑तिः । मा॒ता । सः । पि॒ता । सः । पु॒त्रः । विश्वे॑ । दे॒वाः । अदि॑तिः । पञ्च॑ । जनाः॑ । अदि॑तिः । जा॒तम् । अदि॑तिः । जनि॑ऽत्वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः। विश्वे देवा अदितिः प़ञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदितिः। द्यौः। अदितिः। अन्तरिक्षम्। अदितिः। माता। सः। पिता। सः। पुत्रः। विश्वे। देवाः। अदितिः। पञ्च। जनाः। अदितिः। जातम्। अदितिः। जनिऽत्वम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    एतेषां सङ्गेन किं किं सेवितुं विज्ञातुं च योग्यमित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! युष्माभिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माताऽदितिः स पिता स पुत्रश्चादितिर्विश्वे देवा अदितिः पञ्चेन्द्रियाणि जनाश्च तथा एवं जातमात्रं कार्य्यं जनित्वं जन्यञ्च सर्वमदितिरेवेति वेदितव्यम् ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (अदितिः) विनाशरहिता (द्यौः) प्रकाशमानः परमेश्वरः सूर्य्यादिर्वा (अदितिः) (अन्तरिक्षम्) (अदितिः) (माता) मान्यहेतुर्जननी विद्या वा (सः) (पिता) जनकः पालको वा (सः) (पुत्रः) औरसः क्षेत्रजादिर्विद्याजो वा (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसो दिव्यगुणाः पदार्था वा (अदितिः) (पञ्च) इन्द्रियाणि (जनाः) जीवाः (अदितिः) उत्पत्तिनाशरहिता (जातम्) यत्किञ्चिदुत्पन्नम् (अदितिः) (जनित्वम्) उत्पत्स्यमानम् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र द्यौः इत्यादीनां कारणरूपेण प्रवाहरूपेण वाऽविनाशित्वं मत्वा दिवादीनामदितिसंज्ञा क्रियते। अत्र यत्र वेदेष्वदितिशब्दः पठितस्तत्र प्रकरणाऽनुकूलतया दिवादीनां मध्याद्यस्य यस्य योग्यता भवेत्तस्य तस्य ग्रहणं कार्य्यम्। ईश्वरस्य जीवानां कारणस्य प्रकृतेश्चाविनाशित्वाददितिसंज्ञा वर्त्तत एव ॥ १० ॥ अत्र विदुषां विद्यार्थिनां प्रकाशादीनां च विश्वे देवान्तर्गतत्वाद्वर्णनं कृतमत एतदुक्तार्थस्य सूक्तस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अब इन विद्वानों के संग से क्या-क्या सेवने और जानने योग्य है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुमको चाहिये कि (द्यौः) प्रकाशयुक्त परमेश्वर वा सूर्य्य आदि प्रकाशमय पदार्थ (अदितिः) अविनाशी (अन्तरिक्षम्) आकाश (अदितिः) अविनाशी (माता) माँ वा विद्या (अदितिः) अविनाशी (सः) वह (पिता) उत्पन्न करने वा पालनेहारा पिता (सः) वह (पुत्रः) औरस अर्थात् निज विवाहित पुरुष से उत्पन्न वा क्षेत्रज अर्थात् नियोग करके दूसरे से क्षेत्र में हुआ विद्या से उत्पन्न पुत्र (अदितिः) अविनाशी है तथा (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् वा दिव्य गुणवाले पदार्थ (अदितिः) अविनाशी हैं (पञ्च) पाँचों ज्ञानेन्द्रिय और (जनाः) जीव भी (अदितिः) अविनाशी हैं, इस प्रकार जो कुछ (जातम्) उत्पन्न हुआ वा (जनित्वम्) होनेहारा है, वह सब (अदितिः) अविनाशी अर्थात् नित्य है ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमाणुरूप वा प्रवाहरूप से सब पदार्थ नित्य मानकर दिव् आदि पदार्थों की अदिति संज्ञा की है। जहाँ-जहाँ वेद में अदिति शब्द पढ़ा है, वहाँ-वहाँ प्रकरण की अनुकूलता से दिव् आदि पदार्थों में से जिस-जिस की योग्यता हो उस-उस का ग्रहण करना चाहिये। ईश्वर, जीव और प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण इनके अविनाशी होने से उसकी भी अदिति संज्ञा है ॥ १० ॥ इस सूक्त में विद्वान्, विद्यार्थी और प्रकाशमय पदार्थों का विश्वेदेव पद के अन्तर्गत होने से वर्णन किया है। इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, ऐसा जानना चाहिये ॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे त्रैकाल्याबाध्येश्वर ! (अदितिर्द्यौ:) आप सदैव विनाशरहित तथा स्वप्रकाशरूप हो । (अदितिरन्तरिक्षम्) अविकृत (विकार को न प्राप्त) और सबके अधिष्ठाता हो  (अदितिर् माता) आप प्राप्त मोक्ष जीवों को अविनश्वर (विनाश-रहित) सुख देने और अत्यन्त मान करनेवाले हों,"सःपिता" सो अविनाशीस्वरूप हम सब लोगों के पिता (जनक ) और पालक हो और (सः पुत्र:) सो आप मुमुक्षु , धर्मात्मा और विद्वानों को नरकादि दु:खों से हटाकर पवित्र और त्राणा (रक्षा) करनेवाले हो | (विश्वे देवाः अदितिः) सब दिव्यगुण - विश्व का धारण, रचन, मारण , पालन आदि कार्यों को करनवाले अविनाशी परमात्मा आप ही हैं (पंचजना  अदितिः ) पंच प्राण ,  जो जगत् के जिवानहेतु हैं , बे भी आपके रचे और आपके नाम भी हैं (जातमदितिः) एक चेन ब्रम्हा आप सता प्रादुर्भूत हैं , , और सब [पदार्थ ] कभी प्रादुर्भूत कभी अप्रदुर्भूत [विनाशभूत ] भी हो जाते हैं (अदितिर्ज्नित्वम्) वे ही अविनाशीस्वरूप आप सब जगत् के (जनित्वम्) जन्म का हेतु हैं और कोई नही ||१७|| 

    टिपण्णी

    ये सम दिव आदि अन्य वस्तुओं के भी होते हैं , परन्तु यहाँ इश्वराभिप्रेत से ही अर्थ किया, सो प्रमाण जनना चाहिए  - महर्षि 

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    विषय

    स्वास्थ्य ही सब - कुछ है

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित सौ वर्ष की आयु स्वास्थ्य पर निर्भर करती है, अतः प्रस्तुत मन्त्र में उसी के माहात्म्य का वर्णन है । यहाँ स्वास्थ्य को 'अ - दिति' = 'अखण्डन' कहा है । "His health broke down" - इस अंग्रेजी वाक्य में अस्वास्थ्य को 'स्वास्थ्य का टूटना' ही कहा है । इस स्वास्थ्य पर ही ज्ञान निर्भर है, अतः मन्त्र में कहते हैं = (अदितिः द्यौः) = यह स्वास्थ्य ही ज्ञान का प्रकाशक है । (अदितिः) = यह स्वास्थ्य ही (अन्तरिक्षम्) = सदा मध्यमार्ग में चलना है [अन्तरा क्षि] । अस्वस्थ व्यक्ति ही अति में जाता है अथवा यूँ कहें कि अति के कारण व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है । २. (अदितिः माता) = स्वास्थ्य ही सब उत्तमताओं का निर्माण करनेवाला है । स्वास्थ्य से ही हममें निर्माणशक्ति की वृद्धि होती है । अस्वस्थ व्यक्ति का मस्तिष्क तोड़ - फोड़ की ओर जाता है । (सः पिता) = यह स्वास्थ्य ही हमारे यज्ञादि उत्तम कर्मों का रक्षण करनेवाला है और इस प्रकार (सः पुत्रः) = यह स्वास्थ्य ही [पुनाति, त्रायते] हमारे जीवनों को पवित्र करता है और हमारा त्राण करता है, हमें दुर्गति में पड़ने से बचाता है । ३. यह (अदितिः) = स्वास्थ्य ही (विश्वेदेवाः) = सब देव हैं । सब दिव्य गुणों का विकास स्वास्थ्य से ही होता है । (पञ्च जनाः) = पञ्चकोशों के पाँचों विकास (अदितिः) = इस स्वास्थ्य पर निर्भर करते हैं । अन्नमयकोश का 'तेज', प्राणमय का 'वीर्य', मनोमय का 'ओज व बल', विज्ञानमय का 'मन्यु' तथा आनन्दमय का 'सहस्' स्वास्थ्यमूलक ही है । ४. संक्षेप में (जातम्) = जो विकास आज तक हुआ अथवा (जनित्वम्) = जो विकास आगे होना है, वह सब (अदितिः) = स्वास्थ्य ही है, स्वास्थ्य पर ही आश्रित है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम स्वास्थ्य के महत्त्व को समझें । सभी कुछ इसी पर निर्भर करता है ।

    विशेष / सूचना

    विशेष = सूक्त के आरम्भ में भद्रक्रतु के लिए प्रार्थना की गई है [१] । द्वितीय मन्त्र में ऋतु की भद्रता की साधनभूत 'भद्रा सुमति' की याचना है [२] । इसके लिए देवों का आह्वान किया गया है [३] । सब देव हमें कल्याणकारक 'भेषज' प्राप्त कराएँ [४] । प्रभु हमारे रक्षक हों [५] ताकि जीवनयात्रा के चारों आश्रम सुन्दर बीतें [६] । इसके लिए हम प्राणसाधना करें और ज्ञानियों के सम्पर्क में आएँ [७] । इनके उपदेशों के परिणामस्वरूप भद्र ही देखें और भद्र ही सुनें [८] । पूर्ण जीवन प्राप्त करें [९] । यह समझकर चलें की स्वास्थ्य ही सब - कुछ है [१०] । स्वस्थ बनकर हमारा जीवन कैसा हो ? इसका उत्तर देते हुए अगले सूक्त में कहते हैं -

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    विषय

    अदिति के नाना प्रकार । अदिति का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( द्यौः अदितिः ) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर, सूर्य, नक्षत्रादि और आकाश ये कभी नाश न होने से ‘अदिति’ हैं। (अन्तरिक्षम्) आकाश और उस में स्थित वायु भी ( अदितिः ) नाश न होने से ‘अदिति’ हैं । (माता) पुत्रों को उत्पन्न करने वाली माता, नित्य आदर करने योग्य, कभी पीड़ा या आज्ञा भंग न करने योग्य होने से ‘अदिति’ है । सर्वोत्पादक ‘माता’ प्रकृति और मातृस्नेहवान् परमेश्वर भी अविनाशी होने से ‘अदिति’ है । ( पिता सः ) इसी प्रकार पालन करने वाला और वीर्य और विद्या से उत्पन्न करने वाला पालक, जनक और आचार्य ये भी ( अदितिः ) पीड़ा न देने और आज्ञा उल्लंघन करने योग्य न होने से तथा उनके उपकार कभी नष्ट न होने से और उनके सदा एक भाव में आदर योग्य बने रहने से वे भी ‘अदिति’ कहाने योग्य हैं । ( सः पुत्रः ) पुत्र, पिता और पालक जनों को शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कष्टों से बचाने वाला पुत्र, शिष्य चाहे वह क्षेत्र सम्बन्ध और विद्या सम्बन्ध से हो वह भी सन्तति-परम्परा, कुल-परम्परा और सम्प्रदायपरम्परा को खण्डित करने हारा न होने से ‘अदिति’ है । ( विश्वे देवाः ) समस्त देव गण, विद्वान् पुरुष तथा सूर्यादि दिव्य पदार्थ (अदितिः) पीड़ा न देने योग्य तथा नाश न होने हारे होने से ‘अदिति’ कहाते हैं । (पञ्चजनाः अदितिः) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद ये पांचों जन नाश न करने योग्य होने तथा प्रवाह से सदा विद्यमान रहने से ‘अदिति’ हैं । ( जातम् ) समस्त उत्पन्न पदार्थ कारणरूप से (अदितिः) और नाशवान् न होने से ‘अदिति’ हैं और (जनित्वम् अदितिः) आगे भविष्यत् में भी उत्पन्न होने वाले पदार्थ कारण पदार्थों में अव्यक्त रूप से विद्यमान होने से ‘अदिति’ कहते हैं । इति षोडशो वर्गः समाप्तः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ७ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराड् बृहती ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब इन विद्वानों की संगति से क्या-क्या सेवन करने और जानने योग्य है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! युष्माभिः द्यौः अदितिः अन्तरिक्षम् अदितिः माता अदितिः स पिता स पुत्रः च अदितिः विश्वे देवाः अदितिः पञ्च इन्द्रियाणि जनाः च तथा एवं जातम् अत्र कार्य्यं जनित्वं जन्यं च सर्वम् अदितिःएव इति वेदितव्यम् ॥१०॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (युष्माभिः)=तुम्हारे द्वारा, (द्यौः) प्रकाशमानः परमेश्वरः सूर्य्यादिर्वा= प्रकाशमान परमेश्वर, अथवा सूर्य आदि, (अदितिः) विनाशरहिता= विनाश रहित, (अन्तरिक्षम्)= अन्तरिक्ष और, (अदितिः)= विनाश रहित, (माता) मान्यहेतुर्जननी विद्या वा=माता या विद्या, (सः) (पिता) जनकः पालको वा=पिता या पालन करनेवाला, (सः) =वह, (पुत्रः) औरसः क्षेत्रजादिर्विद्याजो वा=अपना माता-पिता का पुत्र या गुरु का औरस पुत्र, (च)=भी, (अदितिः)= विनाश रहित, (विश्वे) सर्वे=समस्त, (देवाः) विद्वांसो दिव्यगुणाः पदार्था वा=दिव्य गुणोंवाले विद्वान् लोग, अथवा पदार्थ, (अदितिः)= विनाश रहित, (पञ्च) इन्द्रियाणि=पांचों इन्द्रियाँ, (जनाः) जीवाः=जीव, (च)=और, (तथा)=वैसे, (एवम्)=ही, (जातम्) यत्किञ्चिदुत्पन्नम्=जो कोई उत्पन्न, (अत्र)=यहाँ, (कार्य्यम्)=कार्य को, (जनित्वम्) उत्पत्स्यमानम्=उत्पन्न होने का, (जन्यम्)= उत्पन्न होने का, (च)=और, (सर्वम्)=सबका, (अदितिः) उत्पत्तिनाशरहिता= उत्पत्ति और नाश से रहित, (एव)=ही है, (इति)=ऐसा, (वेदितव्यम्)=जानना चाहिए ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में ‘द्यौः’(=विद्युत् या सूर्य के प्रकाश) आदि की कारण और प्रवाह रूप से और पदार्थ को अविनाशी मानते हुए ‘दिव्’ आदि की अदिति संज्ञा की गई है। यहाँ वेद में ‘अदिति’ शब्द जहाँ-जहाँ पढ़ा गया है, वहाँ-वहाँ प्रकरण के अनुसार ‘दिव्’ आदि पदों के बीच में से जिस-जिस पद की योग्यता हो, उस-उस का ग्रहण करना चाहिये। ईश्वर, जीव और प्रकृति अर्थात् जगत् के कारण इनके अविनाशी होने से इनकी भी अदिति संज्ञा ही होती है ॥१०॥

    विशेष

    महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में विद्वानों और विद्यार्थियों ने प्रकाश आदि का विश्व में ‘देव’ पद के अन्तर्गत वर्णन किया है, इसलिये इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, ऐसा जानना चाहिये ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (द्यौः) प्रकाशमान परमेश्वर, अथवा सूर्य आदि, (अदितिः) विनाश रहित होने से अदिति है। (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (अदितिः) विनाश रहित होने से अदिति है। (माता) माता या विद्या, (सः) वह (पिता) पिता या पालन करनेवाला, (सः) वह (पुत्रः) अपना माता-पिता का पुत्र या गुरु का शिष्य पुत्र (च) भी (अदितिः) विनाश रहित होने से अदिति है। (विश्वे) समस्त (देवाः) दिव्य गुणोंवाले विद्वान् लोग, अथवा पदार्थ (अदितिः) विनाश रहित होने से अदिति हैं। (पञ्च) पांचों इन्द्रियाँ, (जनाः) जीव (च) और (तथा) वैसे (एवम्) ही, (जातम्) जो कोई उत्पन्न हुआ है और (अत्र) यहाँ (कार्य्यम्) कार्य को (जनित्वम्) उत्पन्न करनेवाला (च) और (सर्वम्) सबके (अदितिः) उत्पत्ति और नाश से रहित होने से अदिति (एव) ही हैं, (इति) ऐसा (वेदितव्यम्) जानना चाहिए ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    अदि॑तिः । द्यौः । अदि॑तिः । अ॒न्तरि॑क्षम् । अदि॑तिः । मा॒ता । सः । पि॒ता । सः । पु॒त्रः । विश्वे॑ । दे॒वाः । अदि॑तिः । पञ्च॑ । जनाः॑ । अदि॑तिः । जा॒तम् । अदि॑तिः । जनि॑ऽत्वम् ॥ विषयः- एतेषां सङ्गेन किं किं सेवितुं विज्ञातुं च योग्यमित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र द्यौः इत्यादीनां कारणरूपेण प्रवाहरूपेण वाऽविनाशित्वं मत्वा दिवादीनामदितिसंज्ञा क्रियते। अत्र यत्र वेदेष्वदितिशब्दः पठितस्तत्र प्रकरणाऽनुकूलतया दिवादीनां मध्याद्यस्य यस्य योग्यता भवेत्तस्य तस्य ग्रहणं कार्य्यम्। ईश्वरस्य जीवानां कारणस्य प्रकृतेश्चाविनाशित्वाददितिसंज्ञा वर्त्तत एव ॥१०॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र विदुषां विद्यार्थिनां प्रकाशादीनां च विश्वे देवान्तर्गतत्वाद्वर्णनं कृतमत एतदुक्तार्थस्य सूक्तस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥१०॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमाणूरूप (कारणरूप) किंवा प्रवाहरूपाने सर्व पदार्थ नित्य मानून दिव (दिव्य) इत्यादी पदार्थांची अदिती ही संज्ञा आहे. वेदामध्ये जेथे जेथे अदिती शब्द आलेला आहे तेथे तेथे प्रकरणानुसार दिव इत्यादी पदार्थातून जो योग्य असेल तो अर्थ ग्रहण केला पाहिजे. ईश्वर जीव व प्रकृती अर्थात जगाचे कारण हे अविनाशी असल्यामुळे त्याची अदिती ही संज्ञा आहे. ॥ १० ॥

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    हे त्रिकालाबाधित असणाऱ्या ईश्वरा ! (अदितिर्योः) तुर विनाशरहित व स्वप्रकाशस्वरूप आहेस. (अदितिरन्तरिक्षम्) कोणतीही विकृती नसलेला विकाररहित आहेस. आणि सर्वांचा अधिष्ठाता आहेस. (अदितिमाता) तू मोक्षप्राप्ती केलेल्या जीवांना मान व शाश्वत सुख देतोस. (स पिता) तू अविनाशी असून सर्वांचा पिता व पालक आहेस, विद्वानांना नरकाच्या दुःखापासून मुक्त करून त्यांचा रक्षणकर्ता बनून त्यांना पवित्र करणारा आहेस. (विश्वे देवा अदितिः) सर्व दिव्यगुणयुक्त [विश्वाची रचना धारण, पालन, नाश इत्यादी कार्ये करणारा] अविनाशी असा [परमात्मा] रक्षणकर्ता तूच आहेस. (पञ्चजना अदितिः) या जगातील जीवनासाठी आवश्यक असे पंचप्राण तुझ्याद्वारेच निर्माण झालेले आहेत. ते तुझ्या नावानेच ओळखले जातात, (जातमदितिः) तू चेतन ब्रह्म सदा प्रादुर्भूत आहेस. आणि कधी प्रादुर्भूत तर कधी अप्रादुर्भूतही असतोस. (अदितिजनित्यम्) अशा अविनाशीरयरूप परमेश्वरा या सर्व जगाचा निर्माता तूच आहेस दुसरा कोणीही नाही.॥१७॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Heaven, the region of light, the lord of light, is eternal, imperishable. Akasha, i.e., the sky region is eternal. Mother is eternal. The father is eternal. The son is eternal. All the divinities of nature and humanity are eternal. The five orders of society are eternal. All that is bom is eternal. All that is being born and will be bom is eternal.$Note: Eternal, imperishable, permanent: these terms are to be understood in the context of Vedic philosophy, and not in the context of daily life. Things are eternal in two ways: essentially and existentially. God, i.e., Ishvara/Brahma, jiva/ the soul, and Prakrti, these are eternal essentially. They are there when the universe is created and they remain after the life of one creation is over at the time of pralaya, annihilation. But the things that come into existence at the time of creation, such as light, sun, sky, air, water, earth, human and other forms of life, human relations such as father, mother, son, daughter, classes of people etc., go out of existence to annihilation at the time of pralaya. And yet, at the time of the next creation, they come into existence again. Thus they come into existence and go out of existence, and this flow of existence-non existence continues for all time, eternally. This flow is eternal. This flow is called Pravaha. These things are eternal in relation to this flow of existence. They are eternal existencially. The three, God, soul and Prakrti (nature) are eternal essentially.

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    Purport

    O Lord! You are unobstructed by the influence of wou time [past, present, future]. You are Unperishable and self-Effulgent. You are Unchangeable and sovereign Controller of all. You are Respector of the liberated souls and Bestower of immortal bliss on them. Being Immortal by nature you are our Pita Father, protector and nourisher. O God! You are sanctifier of the righteous and wise and those who are endeavouring for liberation. You take them away from the shackles of hell i.e. miserable spheres of existence and protect them. You are incorruptible Supreme Spirit possessing all great virtues, namely the capabilities of creating, sustaining and dissolving the universe at its proper time, in order to protect each being in it. Five Prāṇās [Vital airs] which are the cause of the life have been created by you. They are your names too. O the same conscious God! You are always manifest. All All other beings become manifest at sometimes while at others are non-manifest. O Imperishable Lord! You are the prime cause of the whole the prime cause of the whole world, none else.

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    Subject of the mantra

    Now, what is worth serving and knowing in the company of these scholars? This topic has been said in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (dyauḥ) =the resplendent God, or the Sun etc., (aditiḥ)= being free from destruction is Aditi, (antarikṣam) =space, (aditiḥ) being free from destruction is Aditi, (mātā) =mother or vidyā, (saḥ) =that, (pitā) =father or one who nurtures, (saḥ) =that, (putraḥ)= son of one's parents or disciple of one's teacher, (ca) =also, (aditiḥ)= being free from destruction is Aditi, (viśve) =all, (devāḥ)= learned people or things with divine virtues, (aditiḥ)= being free from destruction is Aditi, (pañca) pāṃcoṃ indriyāṁ, (janāḥ) =living beings, (ca) =and, (tathā)=similarly, (evam)=only, (jātam)= whoever is born and, (atra) =here, (kāryyam) =to work, (janitvam) =creating, (ca) =and, (sarvam) =of all, (aditiḥ) =being free from creation and destruction is Aditi, (eva)=are, (iti)=such, (veditavyam)= should be known.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! The resplendent God, or the Sun etc., is Aditi because of being free from destruction. Space is infinite because it is free from destruction. The mother or Vidya, the father or the nurturer, the son of his parents or the disciple of his preceptor are also Aditi by being free from destruction. Learned people with all divine virtues, or matters being free from destruction are Aditi. The five senses, the living beings and the like, whoever is born here, the originator of the work is free from the origin and destruction of all is Aditi, this should be known.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, 'Div' (vidyut=electricity or Sunlight) etc. have been named as ‘Aditi’, considering the cause and continuous passage form and substance as indestructible. Wherever the word 'Aditi' has been read in the Vedas, whichever term is suitable among ‘div’ etc terms, according to the context, that one should be adopted. Due to God, living beings and nature i.e. the world being indestructible, they are also known as ‘Aditi’.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- In this hymn, scholars and students have described light etc. in the world under the term ‘deva’, hence the interpretation of this hymn is consistent with the interpretation of the previous hymn, it should be known.

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    नहे त्रैकाल्याबाध्येश्वर ! अदितिर्द्यौः= तपाईं सदैव विनाशरहित र स्वप्रकाशरूप हुनुहुन्छ । अदिरन्तररिक्षम्= अविकृत - विकार मा प्राप्त न हुने तथा सबैका अधिष्ठाता हुनुहुन्छ अदितिर माता= तपाईंमोक्ष प्राप्त जीव हरु लाई - अविनश्वर अर्थात् विनाश रहित सुख दिनु हुने र अत्यन्त मान गर्नुहुने हुनुहन्छ, सःपिता-अतःअविनाशीस्वरूप हामी सबैका पिता [जनक] र पालक हुनुहुन्छ अरू सः पुत्र = अतः तपाई मुमुक्षु, धर्मात्मा र विद्वान् वर्ग लाई नरकादि दुःख हरु बाट हटाएर पवित्र र त्राणकारी हुनुहुन्छ । विश्वेदेवाः अदिती := समस्त दिव्यगुण- विश्वधारण, सिर्जन, मारण, पालन आदि दिव्य कार्यहरु गर्ने अविनाशी परमात्मा तपाईं नै हुनुहुन्छ । पञ्चजनाअदितिः- पञ्चप्राण, जुन जगत् का जीवन हुन् ती पनि तपाईंले रचनु भएको हो, तथा तपाईंका नाम पनि हुन् जातमदितिः = एक चेतन ब्रह्म हजुर सदा प्रादुभूर्त हुनुहुन्छ र सबै [पदार्थ] कहिले अप्रादुर्भूत [विनाशभूत] पनि हुन जान्छन् अदितीर्जनित्वम् = त्यो अविनाशीस्वरूप तपाईं सम्पूर्ण जगत् का जनित्वम् = जन्म का हेतु हुनुहुन्छ ॥१७॥

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