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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    स्व॒स्ति न॒ इन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वाः स्व॒स्ति नः॑ पू॒षा वि॒श्ववे॑दाः। स्व॒स्ति न॒स्तार्क्ष्यो॒ अरि॑ष्टनेमिः स्व॒स्ति नो॒ बृह॒स्पति॑र्दधातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒स्ति । नः॒ । इन्द्रः॑ । वृ॒द्धऽश्र॑वाः । स्व॒स्ति । नः॒ । पू॒षा । वि॒श्वऽवे॑दाः । स्व॒स्ति । नः॒ । तार्क्ष्यः॑ । अरि॑ष्टऽनेमिः । स्व॒स्ति । नः॒ । बृह॒स्पतिः॑ । द॒धा॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वस्ति। नः। इन्द्रः। वृद्धऽश्रवाः। स्वस्ति। नः। पूषा। विश्वऽवेदाः। स्वस्ति। नः। तार्क्ष्यः। अरिष्टऽनेमिः। स्वस्ति। नः। बृहस्पतिः। दधातु ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कथं प्रार्थित्वा किमेष्टव्यमित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    वृद्धश्रवा इन्द्रो नः स्वस्ति दधातु विश्ववेदाः पूषा नः स्वस्ति दधातु। अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यो नः स्वस्ति दधातु बृहस्पतिर्नः स्वस्ति दधातु ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (स्वस्ति) शरीरसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः (वृद्धश्रवाः) वृद्धं श्रवः श्रवणमन्नं वा सृष्टौ यस्य सः (स्वस्ति) धातुसाम्यसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (विश्ववेदाः) विश्वस्य वेदो विज्ञानं विश्वेषु सर्वेषु पदार्थेषु वेदः स्मरणं वा यस्य सः (स्वस्ति) इन्द्रियशान्तिसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (तार्क्ष्यः) तृक्षितुं वेदितुं योग्यस्तृक्ष्यः। तृक्ष्य एव तार्क्ष्यः। अत्र गत्यर्थात् तृक्ष धातोर्ण्यत्। ततः स्वार्थेऽण्। (अरिष्टनेमिः) अरिष्टानां दुःखानां नेमिर्वज्रवच्छेता। नेमिरिति वज्रनामसु पठितम्। (निघं०२.२०) (स्वस्ति) विद्ययाऽऽत्मसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (बृहस्पतिः) बृहत्या वेदवाचः पतिः (दधातु) धारयतु ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    न हीश्वरप्रार्थनास्वपुरुषार्थाभ्यां विना कस्यचिच्छरीरेन्द्रियात्मसुखं सम्पूर्णं सम्भवति तस्मादेतदनुष्ठेयम् ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्यों को किस प्रकार ईश्वर की प्रार्थना करके किसकी इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    (वृद्धश्रवाः) संसार में जिसकी कीर्त्ति वा अन्न आदि सामग्री अति उन्नति को प्राप्त है वह (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) शरीर के सुख को (दधातु) धारण करावे (विश्ववेदाः) जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, वह (पूषा) पुष्टि करनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) धातुओं की समता के सुख को धारण करावे जो (अरिष्टनेमिः) दुःखों का वज्र के तुल्य विनाश करनेवाला (तार्क्ष्यः) और जानने योग्य परमेश्वर है, वह (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) इन्द्रियों की शान्तिरूप सुख को धारण करावे और जो (बृहस्पतिः) वेदवाणी का प्रभु परमेश्वर है, वह (नः) हम लोगों को (स्वस्ति) विद्या से आत्मा के सुख को धारण करावे ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ के विना किसी को शरीर, इन्द्रिय और आत्मा का परिपूर्ण सुख नहीं होता, इससे उसका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये ॥ ६ ॥

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    विषय

    चार आश्रम = इन्द्र से बृहस्पति तक

    पदार्थ

    १. जीवन के प्रथम प्रयाण में हमारी प्रार्थना का स्वरूप यह होता है कि (वृद्धश्रवाः) = बढ़े हुए ज्ञानवाला - निरतिशय ज्ञानवाला (इन्द्रः) = सब आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाला प्रभु (नः स्वस्ति) = हमारा कल्याण करे । प्रभु की कृपा से हमारा ज्ञान बढ़ें और हम जितेन्द्रिय बनकर अशुभवृत्तियों से ऊपर उठनेवाले हों । ब्रह्मचर्याश्रम 'ज्ञानप्राप्ति और जितेन्द्रियता' का ही आश्रम है । इसमें हम अधिक - से - अधिक ज्ञान का संग्रह करें और इन्द्रियों को वश में रखने का अभ्यास करें । २. अब द्वितीय प्रयाण में हम प्रार्थना करते हैं कि (विश्ववेदाः) = सम्पूर्ण धनोंवाला (पूषा) = सबका पोषक प्रभु (नः स्वस्ति) = हमारा कल्याण करे । गृहस्थ - पोषण के लिए हमें पर्याप्त धन कमाना ही चाहिए । अतिरिक्त धन पतन का कारण हो जाता है, अतः यह उतना ही ठीक है, जितना कि पोषण के लिए पर्याप्त हो । ३. तृतीय प्रयाण की प्रार्थना यह है कि (अरिष्टनेमिः) = अहिंसित चक्रधारावाला (तार्क्ष्यः) = तीव्रवेगवाला प्रभु (नः स्वस्ति) = हमारा कल्याण करे । जीवन के तीसरे प्रयाण में वानप्रस्थ के रूप में हम भी 'तार्क्ष्य' बनें - आलस्यशून्य होकर तीव्रगतिवाले बनें । कामादि शत्रुओं पर वेग से आक्रमण करनेवाले हों और हमारे जीवन = रथ की चक्रधारा अहिंसित हो, अर्थात् हम मर्यादा का उल्लङ्घन करनेवाले न हों । मर्यादित जीवन में चलते हुए हम सचमुच कामादि के पूर्ण विजेता बनें । ४. इस विजय के द्वारा चतुर्थाश्रम के योग्य बनकर हम प्रार्थना करें कि (बृहस्पतिः) = सम्पूर्ण ज्ञानों का पति वह प्रभु (नः स्वस्ति दधातु) = हमारे लिए कल्याण का धारण करे । बृहस्पति का उपासन करते हुए ज्ञान का खूब संग्रह करके उस ज्ञान के प्रसार के लिए हम प्रवृत्त हों । इस प्रकार हमारी जीवन - यात्रा सफलता के साथ पूर्ण हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रथमाश्रम में हम जितेन्द्रिय व ज्ञानसञ्चयी बनें, द्वितीय में पोषण के लिए पर्याप्त धन का संग्रह करनेवाले हों, तृतीय में मर्यादित जीवनवाले कामादि के विजेता बनें और चतुर्थाश्रम में ज्ञान के पति बनकर ज्ञानप्रसार में व्याप्त हों ।

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    विषय

    परमेश्वर की उपासना, प्रार्थना ।

    भावार्थ

    ( वृद्धश्रवाः ) बढ़े हुए, बहुत अधिक ज्ञान और अन्नादि सम्पत्ति का स्वामी ( इन्द्रः ) आचार्य और परमेश्वर ( नः ) हमें ( स्वस्ति दधातु ) सुख कल्याण प्रदान करे । ( विश्ववेदाः ) समस्त ज्ञानों और ऐश्वर्यों का स्वामी, (पूषा) सबका पोषक प्रभु ( नः स्वस्ति दधातु ) हमें शरीर पोषण का सुख प्रदान करे । ( तार्क्ष्यः ) विद्वान् ज्ञानी या वेग से अन्यत्र जाने हारा शिल्पी ( अरिष्टनेमिः ) रथ चक्र की न टूटने वाली धारा वाला होकर (नः स्वस्ति दधातु) हमें मार्ग लांघने का सुख प्रदान करे और ( तार्क्ष्यः ) वेग से शत्रुपर आक्रमण करने वाला वीर पुरुष ( अरिष्टनेमिः ) अटूट, दृढ़ हथियारों से युक्त होकर ( नः स्वस्ति धातु ) हमें शत्रु जय से प्राप्त होने वाले सुख को दे । ( बृहस्पतिः ) वेदवाणी और बड़े राष्ट्र का स्वामी ( नः स्वस्ति दधातु ) हमें ज्ञानोपदेश और ऐश्वर्य समृद्धि का सुख दे । (२) प्रचुर अन्न और ज्ञान का स्वामी होने से परमेश्वर ‘वृद्धश्रवा’, सर्वज्ञ और धनों का स्वामी होने से ‘विश्ववेदाः’ व्यापक, सबका प्रेरक होने से ‘तार्क्ष्य’ और दुष्टों का नाशक होने से ‘अरिष्टनेमि’ और वेदवाणी और महान् ब्रह्माण्ड का पालक होने से वही ‘बृहस्पति’ है । वह हमें सब सुख प्रदान करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ७ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराड् बृहती ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर मनुष्यों को किस प्रकार से ईश्वर की प्रार्थना करके किसकी इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- वृद्धश्रवा इन्द्रः नः स्वस्ति दधातु विश्ववेदाः पूषा नः स्वस्ति दधातु। अरिष्टनेमिः तार्क्ष्यः नः स्वस्ति दधातु बृहस्पतिः नः स्वस्ति दधातु॥६॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (वृद्धश्रवाः) वृद्धं श्रवः श्रवणमन्नं वा सृष्टौ यस्य सः= बुद्धिमान, सुनने की शक्ति में पूर्ण विकसित, अन्न आदि, अथवा सृष्टि की प्राकृतिक संपत्तिवाला, (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः= परम ऐश्वर्यवाला ईश्वर, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (स्वस्ति) शरीरसुखम्=शारीरिक सुख, (दधातु) धारयतु=धारण कराये, (विश्ववेदाः) विश्वस्य वेदो विज्ञानं विश्वेषु सर्वेषु पदार्थेषु वेदः स्मरणं वा यस्य सः=विश्व के वेद के विशेष ज्ञान को, अथवा विश्व के समस्त पदार्थों में वेद के स्मरण की, (पूषा) पुष्टिकर्त्ता=पुष्टि करनेवाला, (नः) अस्मभ्यम्= हमारे लिये, (स्वस्ति) धातुसाम्यसुखम्=शरीर में वायु, पित्त और कफ इन तीनों धातुओं से सुख, (दधातु) धारयतु= धारण कराये, (अरिष्टनेमिः) अरिष्टानां दुःखानां नेमिर्वज्रवच्छेता=दुःखों के घेरे को वज्र के समान नष्ट करनेवाला, (तार्क्ष्यः) तृक्षितुं वेदितुं योग्यस्तृक्ष्य=गति से जानने योग्य, (नः) अस्मभ्यम्= हमारे लिये, (स्वस्ति) इन्द्रियशान्तिसुखम्=इन्द्रियों की शान्ति का सुख, (दधातु) धारयतु= धारण कराये, (बृहस्पतिः) बृहत्या वेदवाचः पतिः=बहुत बड़े रूप से वेदवाणी का स्वामी, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (स्वस्ति) विद्ययाऽऽत्मसुखम्=विद्या से आत्मा का सुख, (दधातु) धारयतु=धारण कराये, ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ के विना किसी को शरीर, इन्द्रिय और आत्मा का सम्पूर्ण सुख नहीं मिलता है, इसके अनुरूप कार्य करने से सम्पूर्ण सुख सम्भव होता है ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (वृद्धश्रवाः) बुद्धिमान, सुनने की शक्ति में पूर्ण विकसित, अन्न आदि, अथवा सृष्टि की प्राकृतिक संपत्तिवाला, (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवाला ईश्वर (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) शारीरिक सुख (दधातु) धारण कराये। (विश्ववेदाः) विश्व में वेद के विशेष ज्ञान को, अथवा विश्व के समस्त पदार्थों में वेद के स्मरण की (पूषा) पुष्टि करनेवाला (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) शरीर में वायु, पित्त और कफ इन तीनों धातुओं से सुख (दधातु) धारण कराये। (अरिष्टनेमिः) दुःखों के घेरे को वज्र के समान नष्ट करनेवाला और [तीव्र] (तार्क्ष्यः) गति से जानने योग्य (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) इन्द्रियों की शान्ति का सुख (दधातु) धारण कराये। (बृहस्पतिः) बहुत बड़े रूप से वेदवाणी का स्वामी (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) विद्या से आत्मा का सुख (दधातु) धारण कराये ॥६॥

    संस्कृत भाग

    स्व॒स्ति । नः॒ । इन्द्रः॑ । वृ॒द्धऽश्र॑वाः । स्व॒स्ति । नः॒ । पू॒षा । वि॒श्वऽवे॑दाः । स्व॒स्ति । नः॒ । तार्क्ष्यः॑ । अरि॑ष्टऽनेमिः । स्व॒स्ति । नः॒ । बृह॒स्पतिः॑ । द॒धा॒तु॒ ॥ विषयः- पुनर्मनुष्यैः कथं प्रार्थित्वा किमेष्टव्यमित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- न हीश्वरप्रार्थनास्वपुरुषार्थाभ्यां विना कस्यचिच्छरीरेन्द्रियात्मसुखं सम्पूर्णं सम्भवति तस्मादेतदनुष्ठेयम् ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराची प्रार्थना व आपल्या पुरुषार्थाशिवाय कुणालाही शरीर, इंद्रिये व आत्मा यांचे परिपूर्ण सुख मिळत नाही, त्यामुळे त्याचे अनुष्ठान अवश्य करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May Indra, lord of power and majesty, abundant in food, energy and honour, be for our good and bless us with favours. May Pusha, lord of universal growth, be for our good and bless us with progress. May Tarkshya, lord inviolable, worthy of love and friendship, destroyer of suffering, be good for us and bless us with good fortune. And may Brhaspati, lord of universal knowledge and wisdom be good and bless us with knowledge, wisdom and sweet language.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men pray for is taught in the 6th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May the Illustrious or most glorious Lord of wealth and of knowledge give us physical happiness and health. May the Omniscient Sustainer of the Universe grant us happiness. May God who is worthy of being known and Destroyer of all miseries like the thunderbolt may give us happiness got from the peace of senses. May God who is the Lord of the Vedic Knowledge or Speech give us spiritual Delight got from the light of knowledge and wisdom.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (१) (स्वस्ति) शरीरसुखम् = Physical happiness or health. (२) (स्वस्ति) इन्द्रियशान्तिसुखम् = The happiness got from the peace of the senses. (३) (स्वस्ति) विद्ययाऽऽत्मसुखम् = Spiritual Delight got from Wisdom. (तार्क्ष्य:) तृक्षितुं वेदितुं योग्यस्तर्क्ष्यः । तृक्ष्य एवतार्क्ष्यः । अत्र गत्यर्थात् तृक्षधातोर्यत् । ततः स्वार्थेऽण् = Worthy of being known. (अरिष्टनेमिः) अरिष्टानां नेमिः बज्ज्रवत् छेत्ता नेमिरिति वज्रनाम निघ० २.२० ) = Destroyer of all miseries like the thunderbolt.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can enjoy perfect happiness of the body, senses and the soul without praying to God and one's own exertion. Therefore this must be done by all.

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    Subject of the mantra

    Then, how should humans pray to God and what should they wish for? This matter has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vṛddhaśravāḥ)=Intelligent, fully developed in the power of listening, having food etc., or the natural wealth of the universe, (indraḥ)= supremely opulent God, (naḥ) =for us, (svasti) =physical happiness (dadhātu) =make possessed, (viśvavedāḥ)= the special knowledge of Veda in the world, or the remembrance of Veda in all the things of the world, (pūṣā)=one who does nourishing, (naḥ) =for us, (svasti)=happiness by the three dhātus (elementary substances) of vāyu (air), pitta (phlegm) aura kapha (bile) in body, (dadhātu) =make possessed, (ariṣṭanemiḥ)= destroyer of sorrows like a thunderbolt and, [tīvra]= rapidly, (tārkṣyaḥ)=capable of knowing, (naḥ) hamāre liye (svasti) indriyoṃ kī śānti kā sukha (dadhātu) =make possessed, (bṛhaspatiḥ) Lord of the speech of Vedas very extensively, (naḥ) =for us, (svasti)= happiness of soul through knowledge, (dadhātu)=make possessed.

    English Translation (K.K.V.)

    May God, who is intelligent, fully developed in the power of listening, has food etc. or the natural wealth of the universe, and is supremely opulent, provide us with physical happiness. The one who nourishes the special knowledge of the Vedas in the world, or the remembrance of the Vedas in all things in the world, may make our body possessed with happiness from the three dhātus (elementary substances) of vāyu (air), pitta (phlegm) aura kapha (bile). May the one who destroys the circle of sorrows like a thunderbolt and is capable of knowing rapidly, grant us the happiness of peace of senses. May the Lord of the speech of Vedas very extensively provide us with the happiness of the soul through knowledge in a very big way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without prayer to God and one's own effort, no one can attain complete happiness of body, senses and soul, complete happiness is possible by working accordingly.

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