ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 7
पृष॑दश्वा म॒रुतः॒ पृश्नि॑मातरः शुभं॒यावा॑नो वि॒दथे॑षु॒ जग्म॑यः। अ॒ग्नि॒जि॒ह्वा मन॑वः॒ सूर॑चक्षसो॒ विश्वे॑ नो दे॒वा अव॒सा ग॑मन्नि॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठपृष॑त्ऽअश्वाः । म॒रुतः॑ । पृश्नि॑ऽमातरः । शु॒भ॒म्ऽयावा॑नः । वि॒दथे॑षु । जग्म॑यः । अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः । मन॑वः । सूर॑ऽचक्षसः । विश्वे॑ । नः॒ । दे॒वाः । अव॑सा । आ । ग॒म॒न् । इ॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः। अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्निह ॥
स्वर रहित पद पाठपृषत्ऽअश्वाः। मरुतः। पृश्निऽमातरः। शुभम्ऽयावानः। विदथेषु। जग्मयः। अग्निऽजिह्वाः। मनवः। सूरऽचक्षसः। विश्वे। नः। देवाः। अवसा। आ। गमन्। इह ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदुपासकैर्मनुष्यैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
शुभंयावानोऽग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसः पृषदश्वा विदथेषु जग्मयो विश्वेदेवा इह नोऽस्मभ्यमवसा पृश्निमातरो मरुत इवागमन् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(पृषदश्वाः) सेनाया पृषान्तोऽश्वा येषान्ते (मरुतः) वायवः (पृश्निमातरः) आकाशादुत्पद्यमाना इव (शुभंयावानः) शुभस्य प्रापकाः। अत्र तत्पुरुषे कृति बहुलमिति बहुलवचनाद् द्वितीयाया अलुक्। (विदथेषु) संग्रामेषु यज्ञेषु वा। (जग्मयः) गमनशीलाः (अग्निजिह्वाः) अग्निर्जिह्वाः हूयमानो येषान्ते (मनवः) मननशीलाः (सूरचक्षसः) सूरे सूर्ये प्राणे वा चक्षो व्यक्तं वचो दर्शनं वा येषान्ते (विश्वे) सर्वे (नः) अस्मान् (देवाः) विद्वांसः (अवसा) रक्षणादिना सह वर्त्तमानाः (आ) (अगमन्) आगच्छन्तु प्राप्नुवन्तु। अत्र लिङर्थे लुङ्प्रयोगः। (इह) अस्मिन् संसारे ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा बाह्याभ्यन्तरस्था वायवः सर्वान् प्राणिनः सुखाय प्राप्नुवन्ति, तथैव विद्वांसः सर्वेषा प्राणिनां सुखाय प्रवर्त्तेरन् ॥ ७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर ईश्वर की उपासना करनेवाले मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (शुभंयावानः) जो श्रेष्ठ व्यवहार की प्राप्ति कराने (अग्निजिह्वाः) और अग्नि को हवनयुक्त करनेवाले (मनवः) विचारशील (सूरचक्षसः) जिनके प्राण और सूर्य में प्रसिद्ध वचन वा दर्शन है (पृषदश्वाः) सेना में रङ्ग-विरङ्ग घोड़ों से युक्त पुरुष (विदथेषु) जो कि संग्राम वा यज्ञों में (जग्मयः) जाते हैं, वे (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् लोग (इह) संसार में (नः) हम लोगों को (अवसा) रक्षा आदि व्यवहारों के साथ (पृश्निमातरः) आकाश से उत्पन्न होनेवाले (मरुतः) पवनों के तुल्य (आ) (अगमन्) आवें प्राप्त हुआ करें ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैस बाहर और भीतरले पवन सब प्राणियों के सुख के लिये प्राप्त होते हैं, वैसे विद्वान् लोग सबके सुख के लिये प्रवृत्त होवें ॥ ७ ॥
विषय
मरुत् और विश्वेदेव
पदार्थ
१. हे प्रभो ! आपकी कृपा से (मरुतः) = प्राण (अवसा) = रक्षण के हेतु से (इह) = इस जीवन में (नः) = हमें (आगमन्) = प्राप्त हों । कैसे प्राण - [क] (पृषदश्वाः) = [पृष् to sprinkle] रेतः कणों की ऊर्ध्वगति के द्वारा शक्ति से सिक्त किया है इन्द्रियों को जिन्होंने, [ख] (पृश्निमातरः) = [पृश्नि = A ray of light] जो ज्ञान की किरणों का निर्माण करनेवाले हैं । प्राण बुद्धि की तीव्रता के द्वारा ज्ञान को दीप्त करते हैं । प्राणसाधना से मलों का क्षय होता है । मलक्षय से ज्ञान की दीप्ति होती है और मनुष्य प्रभु - दर्शन के योग्य बनता है, [ग] (शुभंयावानः) = ये मरुत् सदा शुभ की ओर चलनेवाले हैं । शरीर की नीरोगता, मन की निर्मलता और बुद्धि की तीव्रता इन्हीं पर निर्भर करती है, [घ] ये मरुत् (विदथेषु जग्मयः) = यज्ञों में चलनेवाले होते हैं । प्राणसाधक पुरुष यज्ञमय जीवनवाला बनता है । २. इन प्राणों की साधना के परिणामस्वरूप (विश्वेदेवाः) देववृति के सब ज्ञानी पुरुष (अवसा) = ज्ञान से प्रीणित करने के हेतु से (इह) = इस जीवन में (नः) = हमें (आगमन्) = प्राप्त हों । ये देव [क] (अग्नि - जिह्वाः) = अग्नि के समान जिह्वावाले हैं । सब पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली वाणीवाले हैं । अग्नि जैसे अपनी ज्वालारूप जिह्वा से सब मलों को भस्मसात् करती चलती है, उसी प्रकार ये देव अपनी वाणी की प्रेरणा से श्रोताओं के मन के मलों को दग्ध करनेवाले होते हैं, [ख] (मनवः) = ये विचारशील होते हैं और [ग] (सूरचक्षसः) सूर्य के समान प्रकाशवाले होते हैं । इन देवों व विद्वानों के सम्पर्क में आकर हम भी ज्ञानी बनते हैं । इन देवों से दिया हुआ ज्ञान हमारा रक्षण व प्रीणन करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ = हम प्राणसाधना और विद्वानों का संग करें ।
विषय
परमेश्वर की उपासना, प्रार्थना ।
भावार्थ
( पृषदश्वाः पृश्निमातरः मरुतः जग्मयः शुभंयावानः अग्निजिह्वाः अवसा गमन् ) जिस प्रकार जल सेचन करने वाले व्यापक मेघों से युक्त, सेचन में समर्थ मेघों के उत्पादक, वायुगण गति करते हुए लोगों को उत्तम सुख प्राप्त कराते हैं और वेही अग्नि की ज्वाला से युक्त होकर (देवाः) प्रकाशयुक्त होकर ( सूरचक्षसः ) सूर्य के समान चमकते हुए हमें ( अवसा ) दीप्ति सहित प्राप्त होते हैं उसी प्रकार ( देवाः मरुतः ) तेजस्वी, दानशील, ज्ञानदर्शक विद्वान् और वीर पुरुष (पृषदश्वाः) हृष्ट पुष्ट और नाना वर्णों के अश्वादि यानों पर चढ़ कर, ( पृश्निमातरः ) मातृभूमि से उत्पन्न ( शुभंयावानः ) प्रजा को सुख और शुभ कर्मों को प्राप्त कराने वाले, ( विदथेषु जग्मयः ) संग्रामों, ज्ञान-सत्संगों में जाने वाले, ( अग्निजिह्वाः ) अग्नि के समान समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाली उपदेशप्रद वाणी से युक्त, ( मनवः ) विचारशील ( सूरचक्षसः ) सूर्य के समान तेजस्वी चक्षुवाले, अथवा सूर्य, प्राण, अन्न आदि के परम सूक्ष्म तत्वों को देखने और उनको स्पष्ट रीति से वर्णन करने वाले, ( विश्वे देवाः ) समस्त दानशील और ज्ञानोपदेष्टा, ज्ञान द्रष्टा पुरुष ( इह ) इस राष्ट्र में ( अवसा ) ज्ञान प्रकाश और रक्षण सामर्थ्य सहित ( नः ) हमें ( गमन्) प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ७ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराड् बृहती ॥ दशर्चं सूक्तम् ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर ईश्वर की उपासना करनेवाले मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, यह उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- शुभंयावानः अग्निजिह्वाः मनवः सूरचक्षसः पृषदश्वा विदथेषु जग्मयः विश्वे देवाः इह नः अस्मभ्यम् अवसा पृश्निमातरः मरुतः इव आ अगमन् ॥७॥
पदार्थ
पदार्थः- (शुभंयावानः) शुभस्य प्रापकाः=शुभ को प्राप्त करानेवाले, (अग्निजिह्वाः) अग्निर्जिह्वाः हूयमानो येषान्ते=जिह्वा से अग्नि में आहुति देनेवाले, (मनवः) मननशीलाः= मननशील, (सूरचक्षसः) सूरे सूर्ये प्राणे वा चक्षो व्यक्तं वचो दर्शनं वा येषान्ते=सूर्य या प्राण के बारे में बोलने और देखनेवाले, (पृषदश्वाः) सेनाया पृषान्तोऽश्वा येषान्ते=सेना में वर्षा की बूंदों जैसे छींटों से युक्त अश्वोंवाले, (विदथेषु) संग्रामेषु यज्ञेषु वा=संग्रामों या यज्ञों में, (जग्मयः) गमनशीलाः=जाने के स्वभाववाले, (विश्वे) सर्वे=समस्त, (देवाः) विद्वांसः= विद्वान् लोग, (इह) अस्मिन् संसारे=इस संसार में, (नः) अस्मभ्यम्= हमारे लिये, (अवसा) रक्षणादिना सह वर्त्तमानाः=रक्षण आदि के साथ उपस्थित, (पृश्निमातरः) आकाशादुत्पद्यमाना इव=आकाश से उत्पन्न होनेवालों के समान, (मरुतः) वायवः=वायु के, (इव) =समान, (आ)=हर ओर से, (अगमन्) आगच्छन्तु प्राप्नुवन्तु=प्राप्त होवें ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैस बाह्य और आन्तरिक स्थित पवन सब प्राणियों के सुख के लिये प्राप्त होते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग समस्त प्राणियों के सुख के लिये प्रवृत्त होवें ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (शुभंयावानः) शुभ कर्मों को प्राप्त करानेवाले, (अग्निजिह्वाः) जिह्वा से अग्नि में आहुति देनेवाले, [अर्थात् यज्ञ करनेवाले] (मनवः) मननशील, (सूरचक्षसः) सूर्य या प्राण के बारे में बोलने और देखनेवाले, (पृषदश्वाः) सेना में वर्षा की बूंदों जैसे छींटों से युक्त रंगवाले अश्वोंवाले और (विदथेषु) संग्रामों या यज्ञों में (जग्मयः) जाने के स्वभाववाले (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् लोग (इह) इस संसार में (नः) हमारे लिये (अवसा) रक्षण आदि के साथ उपस्थित हो करके, (पृश्निमातरः) आकाश से उत्पन्न होनेवालों के समान और (मरुतः) वायु के (इव) समान (आ) हर ओर से (अगमन्) प्राप्त होवें ॥७॥
संस्कृत भाग
पृष॑त्ऽअश्वाः । म॒रुतः॑ । पृश्नि॑ऽमातरः । शु॒भ॒म्ऽयावा॑नः । वि॒दथे॑षु । जग्म॑यः । अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः । मन॑वः । सूर॑ऽचक्षसः । विश्वे॑ । नः॒ । दे॒वाः । अव॑सा । आ । ग॒म॒न् । इ॒ह ॥ विषयः- पुनस्तदुपासकैर्मनुष्यैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा बाह्याभ्यन्तरस्था वायवः सर्वान् प्राणिनः सुखाय प्राप्नुवन्ति, तथैव विद्वांसः सर्वेषा प्राणिनां सुखाय प्रवर्त्तेरन् ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे बाहेरचे व आतले वायू सर्व प्राण्यांच्या सुखासाठी असतात तसे विद्वान लोकांनी सर्वांच्या सुखासाठी प्रवृत्त व्हावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, tempestuous heroes of war, of a variety of horses and chariots, children of the earth, lovers of good and beauty, moving to yajnas and marching to battles, having tongues of fire, thoughtful, radiant as the sun, all of them choice nobilities of the world may, we pray, come to us with the gift of protection and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should be the worshippers or devotees of God is taught further in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May all enlightened truthful persons who lead us towards God, who are performers of Yajnas by kindling fire, or realisers of Prana or vital energy, thoughtful. radiant like the sun, whose horses are spotted. gracefully moving come to us in our Yajnas (non-violent sacrifices) with their power of protection and preservation like the winds born of the sky.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पृश्निमातरः मरुतः) आकाशात् उत्पद्यमानाः वायवः इव = Like the airs or winds born out of the sky. (पृश्निरिति साधारणनाम (निघ० १.४) आकाशान्तरिक्षसाधारणमिति यावत्)(सूरचक्षसः)सूरे सूर्ये प्राणो वा चक्ष: व्यक्तवचोदर्शनं वा येषाम् = Radiant like the sun or realisers of the Prana. (चक्ष-व्यक्तायां वाचि दर्शनेऽपि)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the airs, within in the form of Prana and without, cause happiness to all beings, in the same manner, learned persons should always be engaged in causing happiness to all creatures.
Subject of the mantra
Then, how those people should be who worship God?This has been preached in the mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(śubhaṃyāvānaḥ) =those who achieves auspicious deeds, (agnijihvāḥ)= those who offer offerings to fire with their tongue, [arthāt yajña karanevāle]= tongue i.e. those who perform yajna, (manavaḥ) =who meditate, (sūracakṣasaḥ) =those who speak and see about the Sun or life, (pṛṣadaśvāḥ) = In the army there were men with horses splashed like raindrops and, (vidatheṣu)= in battles or yajnas, (jagmayaḥ)= who have the disposition, to go (viśve)=all, (devāḥ) =scholars, (iha) =in this world, (naḥ) =for us, (avasā)= by being present with protection etc., (pṛśnimātaraḥ)= like those born from the sky and, (marutaḥ) =of air, (iva) =like, (ā)= from every direction, (agaman)= be received.
English Translation (K.K.V.)
All the learned people who achieve auspicious deeds, who offer offerings to the fire with their tongue i.e. those who perform yajna, who meditate, who speak and see about the sun or life, who have horses splashed as sprinkled raindrops in the army and who have the disposition to go to wars or yajnas, are among us in this world. So, by being present with protection etc., like those born from the sky and like the wind, may you be received from every direction.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the external and internal winds are obtained for the happiness of all living beings, similarly learned people should be inclined for the happiness of all living beings.
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