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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श॒तमिन्नु श॒रदो॒ अन्ति॑ देवा॒ यत्रा॑ नश्च॒क्रा ज॒रसं॑ त॒नूना॑म्। पु॒त्रासो॒ यत्र॑ पि॒तरो॒ भव॑न्ति॒ मा नो॑ म॒ध्या री॑रिष॒तायु॒र्गन्तोः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम् । इत् । नु । श॒रदः॑ । अन्ति॑ । दे॒वाः॒ । यत्र॑ । नः॒ । च॒क्र । ज॒रस॑म् । त॒नूना॑म् । पु॒त्रासः॑ । यत्र॑ । पि॒तरः॑ । भव॑न्ति । मा । नः॒ । म॒ध्या । रि॒रि॒ष॒त॒ । आयुः॑ । गन्तोः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्। पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम्। इत्। नु। शरदः। अन्ति। देवाः। यत्र। नः। चक्र। जरसम्। तनूनाम्। पुत्रासः। यत्र। पितरः। भवन्ति। मा। नः। मध्या। रिरिषत। आयुः। गन्तोः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसो विद्यार्थिनः प्रति कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अन्ति देवा ! यूयं यत्र तनूनां शतं शरदो जरसं चक्र यत्राऽस्माकं नो मध्या मध्ये पुत्रास इत्पितरो नु भवन्ति, तदायुर्गन्तोर्गन्तुं प्रवृत्तान्नोऽस्मान्नु मा रिरीषत ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (शतम्) शतवर्षसंख्याकान् (इत्) एव (नु) शीघ्रम् (शरदः) शरदृतूपलक्षितान् संवत्सरान् (अन्ति) अनन्ति जीवन्ति विद्यादिसुखसाधनैर्ये तेऽन्तयः। अत्रानधातोरौणादिकस्तिन् प्रत्ययः। सुपां सुलुगिति जसो लुक् च। (देवाः) विद्वांसः (यत्र) यस्मिन् सत्ये व्यवहारे। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (चक्र) कुरुत। लोडर्थे लिट्। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (जरसम्) जरां वृद्धावस्थाम्। जराया जरसन्यतरस्याम्। (अष्टा०७.२.१०१) अनेन जराशब्दस्य जरसादेशः। (तनूनाम्) शरीराणाम् (पुत्रासः) (यत्र) (पितरः) वयोविद्यावृद्धाः (भवन्ति) (मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (मध्या) मध्ये। अत्र सुपां सुलुगिति सप्तम्याः स्थाने डादेशः। (रीरिषत) हिंस्त (आयुः) जीवनम् (गन्तोः) गन्तुम् प्राप्तुम् ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    यस्यां प्राप्तायां विद्यायां बालका अपि वृद्धा भवन्ति, यत्र शुभाचरणेन वृद्धावस्था जायते, तत्सर्वं विदुषां सङ्गेनैव भवितुं शक्यते। विद्वद्भिरेतत्सर्वेभ्यः प्रापयितव्यं च ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर विद्वान् लोग विद्यार्थियों के साथ कैसे वर्त्तें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अन्ति) विद्या आदि सुख साधनों से जीनेवाले (देवाः) विद्वानो ! तुम (यत्र) जिस सत्य व्यवहार में (तनूनाम्) अपने शरीरों के (शतम्) सौ (शरदः) वर्ष (जरसम्) वृद्धपन का (चक्र) व्यतीत कर सको (यत्र) जहाँ (नः) हमारे (मध्या) मध्य में (पुत्रासः) पुत्र लोग (इत्) ही (पितरः) अवस्था और विद्या से युक्त वृद्ध (नु) शीघ्र (भवन्ति) होते हैं, उस (आयुः) जीवन को (गन्तोः) प्राप्त होने को प्रवृत्त हुए (नः) हम लोगों को शीघ्र (मा रीरिषत) नष्ट मत कीजिये ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    जिस विद्या में बालक भी वृद्ध होते वा जिस शुभ आचरण में वृद्धावस्था होती है, वह सब व्यवहार विद्वानों के संग ही से हो सकता है और विद्वानों को चाहिये कि यह उक्त व्यवहार सबको प्राप्त करावें ॥ ९ ॥

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    विषय

    शतं शरदः [जीवेम]

    पदार्थ

    १. हे (देवाः) = सब प्राकृतिक शक्तियो ! (इत् नु) = निश्चय से (शतं शरदः) = सौ वर्ष (अन्ति) = मनुष्यों के समीप आयु के रूप में है । आपने मनुष्य के लिए सौ वर्ष की आयु नियत की है । यह वह समय है (यत्र) = जहाँ कि आप (नः तनूनाम्) = हमारे शरीरों के (जरसं चक्र) = बुढ़ापे को करनेवाले होते हो । सौ वर्ष तक चलकर मनुष्य वृद्धावस्था को प्राप्त करता है और यह समय बह होता है (यत्र) = जहाँ कि (पुत्रासः) = हमारे पुत्र (पितरः भवन्ति) = पितर बन जाते हैं । हमारे पुत्र भी पुत्र - पौत्रवाले होकर पितर कहलाने लगते हैं । २. हे देवो! आप (गन्तोः) = इस निश्चित आयु की मर्यादा पर पहुंचने से पहले (मध्याः) = बीच में ही (नः) = हमारे (आयुः) = जीवन को (मा रीरिषत) = मत हिंसित करो ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम पूर्ण जीवन को प्राप्त करनेवाले हों, यौवन में ही न चले जाएँ, पोत्रों - प्रपौत्रों के आने से पूर्व ही समाप्त न हो जाएँ ।

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    विषय

    पूर्णायु का लाभ

    भावार्थ

    हे ( अन्ति ) उत्तम साधनों से प्राण धारण करने और कराने में समर्थ ( देवाः ) विद्वानो ! और अग्नि, जल, वायु, सूर्य, पृथिवी अन्न आदि जीवन देने वाले पदार्थो ! ( अन्ति) जिस जीवन दशा में ( शतम् शरदः इत् ) सौ वर्ष ही ( नः तनूनां ) हमारे शरीरों की ( जरसं ) जीर्ण दशा को ( चक्र ) करते हैं और ( यत्र ) जब ( पुत्रासः पितरः भवन्ति ) पुत्र भी बड़े होकर गृहस्थ धारण कर बच्चों के पिता अथवा हम वृद्धों के पालन करने योग्य ( भवन्ति ) हो जांय ( तत्र ) उस दशा तक ( गन्तोः ) पहुंचने तक के (मध्या) बीच २ में ( नः ) हमारी (आयुः) आयु को ( मा रीरिषत ) मत नष्ट होने दो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ७ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराड् बृहती ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर विद्वान् लोग विद्यार्थियों के साथ कैसे व्यवहार करें, यह उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अन्ति देवाः ! यूयं यत्र तनूनां शतं शरदः जरसं चक्र यत्र अस्माकं नः मध्या मध्ये पुत्रास इत् पितरः नु भवन्ति तत् आयुः गन्तोःगन्तुं प्रवृत्तान् नः अस्मान् नु मा रिरीषत ॥९॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (अन्ति) अनन्ति जीवन्ति विद्यादिसुखसाधनैर्ये तेऽन्तयः= विद्या आदि सुख और साधनों के द्वारा अनन्त काल तक जीनेवाले, (देवाः) विद्वांसः=विद्वानों ! (यूयम्)=तुम सब, (यत्र)=इस जीवन में, (तनूनाम्) शरीराणाम्=शरीरों के, (शतम्) शतवर्षसंख्याकान्=सौ वर्ष तक, (शरदः) शरदृतूपलक्षितान् संवत्सरान्=अर्थात् सौ शरद ऋतुओं के संवत्सरों की, (जरसम्) जरां वृद्धावस्थाम्=वृद्ध अवस्था को प्राप्त, (चक्र) कुरुत=करते हुए, (यत्र) यस्मिन् सत्ये व्यवहारे=जिस सत्य व्यवहार में, (नः) अस्माकम्=हमारे, (मध्या) मध्ये= मध्य में, (पुत्रासः) {यजु.25-22(वृद्धावस्थाजन्यदुःखात् त्रातारः)}= वृद्ध अवस्था मे होनेवाले दुःखों से रक्षा करनेवाले, (इत्) एव=ही, (पितरः) वयोविद्यावृद्धाः=आयु और विद्या से वृद्ध लोग, (नु) शीघ्रम्= शीघ्र, (भवन्ति)=हो जाते हैं, (तत्)=उनका, (आयुः) जीवनम्=जीवन, (गन्तोः) गन्तुम्=प्राप्तुम्=प्राप्त करने के लिये, (प्रवृत्तान्)= प्रवृत्त, (नः) अस्मान् =हम को, (नु)=शीघ्रता से, (मा) निषेधे=न, (रीरिषत) हिंस्त=हिंसित कीजिये ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- जिस विद्या को प्राप्त करने में बालक भी वृद्ध हो जाते हैं, जब शुभ आचरण से वृद्धावस्था हो जाती है, वह सब व्यवहार विद्वानों के संगति से ही हो सकता है। विद्वानों के द्वारा भी इस सबको प्राप्त किया जाना चाहिए ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अन्ति) विद्या आदि सुख और साधनों के द्वारा अनन्त काल तक जीनेवाले (देवाः) विद्वानों ! (यूयम्) तुम सब (यत्र) इस जीवन में (तनूनाम्) शरीरों के, (शतम्) सौ वर्ष तक, (शरदः) अर्थात् शरद ऋतुओं के सौ संवत्सरों की (जरसम्) वृद्ध अवस्था को प्राप्त, (चक्र) करते हुए, (यत्र) जिस सत्य व्यवहार में (नः) हमारे (मध्या) मध्य में, (पुत्रासः) वृद्ध अवस्था मे होनेवाले दुःखों से रक्षा करनेवाले पुत्र [होकर] (इत्) ही (पितरः) आयुवृद्ध और विद्यावृद्ध लोग (नु) शीघ्र (भवन्ति) हो जाते हैं। (तत्) उस (आयुः) जीवन को (गन्तोः) प्राप्त करने के लिये, (प्रवृत्तान्) प्रवृत्त (नः) हम को (नु) शीघ्रता से (मा+रीरिषत) हिंसित न कीजिये ॥९॥

    संस्कृत भाग

    श॒तम् । इत् । नु । श॒रदः॑ । अन्ति॑ । दे॒वाः॒ । यत्र॑ । नः॒ । च॒क्र । ज॒रस॑म् । त॒नूना॑म् । पु॒त्रासः॑ । यत्र॑ । पि॒तरः॑ । भव॑न्ति । मा । नः॒ । म॒ध्या । रि॒रि॒ष॒त॒ । आयुः॑ । गन्तोः॑ ॥ विषयः- पुनर्विद्वांसो विद्यार्थिनः प्रति कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यस्यां प्राप्तायां विद्यायां बालका अपि वृद्धा भवन्ति, यत्र शुभाचरणेन वृद्धावस्था जायते, तत्सर्वं विदुषां सङ्गेनैव भवितुं शक्यते। विद्वद्भिरेतत्सर्वेभ्यः प्रापयितव्यं च ॥९॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या विद्येमुळे बालकही वृद्ध (अनुभवी) होते व ज्या शुभ आचरणाने वृद्धावस्था प्राप्त होते तो सर्व व्यवहार विद्वानांच्या संगतीनेच होऊ शकतो. हा वरील व्यवहार विद्वानांनी सर्वांना प्राप्त करून द्यावा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Devas, powers of nature and divinity, hundred years is the proximity of our life in which are also provided the years of our old age. In that very period, our children will grow to be the fathers of their children. We pray, let not the life line of a person moving on to the hundred year mark be snapped on the way.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should learned persons behave with their students is taught in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened persons living well with knowledge and other means of happiness, since hundred years have been appointed for the ordinary life of a man, kindly do not interpose, in the midst of our passing existence, by inflicting infirmity in our bodies so that we may attain the age when our sons become fathers in turn.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अन्ति) अनन्ति जीवन्ति विद्यादिसुखसाधनंः ये तेऽन्तयः अत्र अन धातोरौणादिक: तिन् प्रत्ययः । सुपां सु लुक् च । = Living well with knowledge and other means of happiness. एतेषां संगेन कि सेवितुं विज्ञातुं च योग्यमित्युपदिश्यते = By the association of enlightened persons

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is possible only by the association of learned noble persons that by the acquisition of knowledge even children become respectable like old persons and by doing noble deeds, mature old age is attained. Therefore learned enlightened persons should do all this and help others to do it.

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    Subject of the mantra

    Then, how learned people should behave with students? This has been given in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (anti)= who live forever through the pleasures and means of learning! (devāḥ)= scholars, (yūyam)=all of you, (yatra) =in this life, (tanūnām) =of bodies,, (śatam) =till hundred years, (śaradaḥ)= i.e. of hundred years of autumn seasons, (jarasam)=reached old age, (cakra) =doing, (yatra) =in which true behavior, (naḥ) =our, (madhyā) =among, (putrāsaḥ)= son who protects from the sorrows of old age, [hokara]=being, (it) =only, (pitaraḥ) =elderly and learned people, (nu) =soon, (bhavanti) =become, (tat) =that, (āyuḥ) =to life, (gantoḥ) =to attain, (pravṛttān)= inclined, (naḥ) =to us, (nu) =soon, (mā+rīriṣata) =don't commit violence.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholars who live forever through the pleasures and means of learning! In this life, all of you, while attaining the old age of the bodies for a hundred years, i.e., for a hundred years of autumn seasons, in the true behaviour of which among us, by becoming a son who protects us from the sorrows of old age, we become elderly and learned people. After their life is over, inclined to attain that life, don't commit violence soon.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The knowledge which even children acquire when they grow old, when good conduct leads to old age, all that behaviour can happen only in the company of scholars. All this should be achieved even by scholars.

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