ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
तमीशा॑नं॒ जग॑तस्त॒स्थुष॒स्पतिं॑ धियंजि॒न्वमव॑से हूमहे व॒यम्। पू॒षा नो॒ यथा॒ वेद॑सा॒मस॑द्वृ॒धे र॑क्षि॒ता पा॒युरद॑ब्धः स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ईशा॑नम् । जग॑तः । त॒स्थुषः॑ । पति॑म् । धि॒य॒म्ऽजि॒न्वम् । अव॑से । हू॒म॒हे॒ । व॒यम् । पू॒षा । नः॒ । यथा॑ । वेद॑सम् । अस॑त् । वृ॒धे । र॒क्षि॒ता । पा॒युः । अद॑ब्धः । स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम्। पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। ईशानम्। जगतः। तस्थुषः। पतिम्। धियम्ऽजिन्वम्। अवसे। हूमहे। वयम्। पूषा। नः। यथा। वेदसाम्। असत्। वृधे। रक्षिता। पायुः। अदब्धः। स्वस्तये ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः सर्वविद्याप्रकाशकं जगदीश्वरमाश्रित्य स्तुत्वा प्रार्थयित्वोपास्य सर्वविद्यासिद्धये परमपुरुषार्थः कार्य्य इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यथा पूषा नोऽस्माकं वेदसां वृधे यो रक्षिता स्वस्तयेऽदब्धः पूषा पायुरसत्तथा त्वं भव यथा वयमवसे तं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियं जिन्वमीशानं परमात्मानं हूमहे तथैतं त्वमप्याह्वय ॥ ५ ॥
पदार्थः
(तम्) सृष्टिविद्याप्रकाशकम् (ईशानम्) सर्वस्याः सृष्टेर्विधातारम् (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) स्थावरस्य (पतिम्) पालकम् (धियम्) समस्तपदार्थचिन्तकम् (जिन्वम्) सर्वैः सुखैस्तर्प्पकम् (अवसे) रक्षणाय (हूमहे) स्पर्धामहे (वयम्) (पूषा) पुष्टिकर्त्ता परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (यथा) (वेदसाम्) विद्यादिधनानाम्। वेद इति धननाम। (निघं०२.१०) (असत्) भवेत् (वृधे) वृद्धये (रक्षिता) (पायुः) पालनकर्त्ता (अदब्धः) अहिंसिता (स्वस्तये) सुखाय ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैस्तथाऽनुष्ठातव्यं यथेश्वरोपदेशानुकूल्यं स्यात्। यथेश्वरः सर्वस्याऽधिपतिस्तथा मनुष्यैरपि सर्वोत्तमविद्याशुभगुणप्राप्त्या सुपुरुषार्थेन सर्वाऽधिपत्यं साधनीयम्। यथेश्वरो विज्ञानमयः पुरुषार्थमयः सर्वसुखप्रदो जगद्वर्धकः सर्वाभिरक्षकः सर्वेषां सुखाय प्रवर्त्तते, तथैव मनुष्यैरपि भवितव्यम् ॥ ५ ॥
हिन्दी (6)
विषय
मनुष्यों को सर्वविद्या के प्रकाश करनेवाले जगदीश्वर की आश्रयता, स्तुति, प्रार्थना और उपासना करके सब विद्या की सिद्धि के लिये अत्यन्त पुरुषार्थ करना चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! (यथा) जैसे (पूषा) पुष्टि करनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों के (वेदसाम्) विद्या आदि धनों की (वृधे) वृद्धि के लिये (रक्षिता) रक्षा करनेवाला (स्वस्तये) सुख के लिये (अदब्धः) अहिंसक अर्थात् जो हिंसा में प्राप्त न हुआ हो (पूषा) सब प्रकार की पुष्टि का दाता और (पायुः) सब प्रकार से पालना करनेवाला (असत्) होवे वैसे तू हो जैसे (वयम्) हम (अवसे) रक्षा के लिये (तम्) उस सृष्टि का प्रकाश करने (जगतः) जङ्गम और (तस्थुषः) स्थावरमात्र जगत् के (पतिम्) पालनेहारे (धियम्) समस्त पदार्थों का चिन्तनकर्त्ता (जिन्वम्) सुखों से तृप्त करने (ईशानम्) समस्त सृष्टि की विद्या के विधान करनेहारे ईश्वर को (हूमहे) आह्वान करते हैं, वैसे तू भी कर ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि वैसा अपना व्यवहार करें कि जैसा ईश्वर के उपदेश के अनुकूल हो और जैसे ईश्वर सबका अधिपति है, वैसे मनुष्यों को भी सदा उत्तम विद्या और शुभ गुणों की प्राप्ति और अच्छे पुरुषार्थ से सब पर स्वामिपन सिद्ध करना चाहिये। और जैसे ईश्वर विज्ञान से पुरुषार्थयुक्त, सब सुखों को देने, संसार की उन्नति और सब की रक्षा करनेवाला सब के सुख के लिये प्रवृत्त हो रहा है, वैसे ही मनुष्यों को भी होना चाहिये ॥ ५ ॥
पदार्थ
पदार्थ = ( वयम् ) = हम लोग ( अवसे ) = अपनी रक्षा के लिए ( तम् ) = उस ( ईशानम् ) ईश्वर की जो ( जगतः तस्थुषः पतिम् ) = जंगम और स्थावर का स्वामी ( धियम् जिन्वम् ) = बुद्धि का प्रेरक है उसकी ( हूमहे ) = प्रार्थना करते हैं वह ( पूषा ) = पोषक ईश्वर ( न: ) = हमारे ( वेदसाम् वृधे ) = धनों की वृद्धि के लिए ( असत् ) = होवे तथा ( अदब्धः ) = किसी से न दबनेवाला ( स्वस्तये ) = हमारे कल्याण के लिए ( रक्षिता ) = रक्षक और ( पायु: ) = पालक ( असत् ) = होवे ।
भावार्थ
भावार्थ = सब चर और अचर के स्वामी परमेश्वर की, हम प्रार्थना उपासना करते हैं, कि वह हमारी बुद्धियों को शुभमार्ग में लगावे, और हमारे तन, धन की की कृपारक्षा करे, हमारे कल्याण का रक्षक तथा पालक हो, क्योंकि उस प्रभु दृष्टि के बिना न हमारा तन और धन सुरक्षित हो सकता है, और न ही हमें कल्याण प्राप्त हो सकता है। इसलिए इस लोक और परलोक में कल्याण प्राप्ति के लिए, उस जगत् पति परमात्मा की हम लोग प्रार्थना उपासना करते हैं।
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे सर्वाधिस्वामिन् ! आप ही चर और अचर जगत् के (ईशानम्) रचनेवाले हो, (धियंजिन्वम्) सर्वविद्यामय, विज्ञानस्वरूप बुद्धि को प्रकाशित करनेवाले, सबको तृप्त करनेवाले प्रीणनीयस्वरूप (पूषा) सबके पोषक हो, उन आपका हम (नः, अवसे) अपनी रक्षा के लिए (हूमहे) आह्वान करते हैं । यथा जिस प्रकार से आप हमारे विद्यादि धनों की वृद्धि वा रक्षा के लिए (अदब्ध: रक्षिता) निरालस रक्षा करने में तत्पर हो, वैसे ही कृपा करके आप (स्वस्तये) हमारी स्वस्थता के लिए (पायु:) निरन्तर रक्षक (विनाशनिवारक) हो, आपसे पालित हम लोग सदैव उत्तम कामों में उन्नति और आनन्द को प्राप्त हों ॥ १० ॥
विषय
प्रभु = रक्षण' = प्राप्ति
पदार्थ
१. (वयम्) = हम (अवसे) = रक्षण के लिए (तम्) = उस (ईशानम्) = ऐश्वर्यवान् प्रभु को (हूमहे) = पुकारते हैं जोकि (जगतः) जंगम = चेतन तथा (तस्थुषः) = स्थावर जड़जगत् के (पतिम्) = स्वामी हैं तथा (धियं जिन्वम्) = [धीभिः कर्मभिः प्रीणयितव्यम् = सा०] जो उत्तम कर्मों के द्वारा प्रीणयितव्य हैं । वस्तुतः सत्कर्मों द्वारा प्रभु को प्रीणित करके ही हम प्रभु की रक्षा के पात्र बन सकते हैं । २. हम उस प्रभु का आराधन व आह्वान इसलिए करते हैं कि (यथा) = जिससे वह (पूषा) = सबका पोषण करनेवाला प्रभु (नः) = हमारे (वेदसाम्) = धनों के (वृधे) = वृद्धि के लिए (असत्) = हो । वे प्रभु (रक्षिता) = हमारे रक्षक हों - हमें शत्रुओं का शिकार होने से बचाएँ । (पायुः) = वे हमें शरीर में होनेवाले रोगों से बचानेवाले हों । (अदब्धः) = वे अविनाशी प्रभु सब प्रकार से (स्वस्तये) = हमारे कल्याण के लिए हों । सारे संसार का वे रक्षण करते हैं, तो हमारा रक्षण वे क्यों न करेंगे ?
भावार्थ
भावार्थ = चराचर जगत् के ईशान वे प्रभु हमारा रक्षण करें ।
विषय
परमेश्वर की उपासना, प्रार्थना ।
भावार्थ
( वयम् ) हम लोग (जगतः) चर, जंगम, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि प्राणधारी और ( तस्थुषः ) वृक्ष, पर्वत आदि स्थावर संसार के ( पतिम् ), पालक ( धियं-जिन्वम् ) धारण पोषण करने वाले अन्न से सब जीवों को तृप्त करने वाले ( तम् ईशानम् ) उस परम ऐश्वर्यवान् स्वामी परमात्मा को (अवसे) ज्ञान और रक्षा को प्राप्त करने के लिये ( हूमहे) स्मरण करते हैं । वह ( पूषा ) सबका पोषक ( रक्षिता ) दुष्टों से रक्षक, (वायुः) सब प्रजाओं का पालन करने हारा और ( अदब्धः ) कभी विनष्ट न होकर, नित्य सुरक्षित रहकर ( नः ) हमारे ( वेदसाम् ) धनों और ऐश्वर्यो की ( वृधे ) वृद्धि और ( नः स्वस्तये ) सुख और कल्याण के लिये ( असत् ) हो । इति पञ्चदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ७ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराड् बृहती ॥ दशर्चं सूक्तम् ।
विषय
विषय (भाषा)- मनुष्यों को सर्वविद्या के प्रकाश करनेवाले जगदीश्वर की आश्रयता, स्तुति, प्रार्थना और उपासना करके सब विद्या की सिद्धि के लिये अत्यन्त पुरुषार्थ करना चाहिये, यह उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विद्वन् ! यथा पूषा नः अस्माकं वेदसां वृधे यः रक्षिता स्वस्तये अदब्धः पूषा पायुः असत् तथा त्वं भव यथा वयम् अवसे तं जगतः तस्थुषः पतिं धियं जिन्वम् ईशानं परमात्मानं हूमहे तथा त्वम् अपि आह्वय ॥५॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (विद्वन्)= विद्वान्! (यथा)=जिस प्रकार से, (पूषा) पुष्टिकर्त्ता परमेश्वरः=पुष्ट करनेवाला परमेश्वर, (नः) अस्माकम्=हमारे लिये, (वेदसाम्) विद्यादिधनानाम्=विद्या आदि धनों की, (वृधे) वृद्धये=वृद्धि के लिये, (यः)=जो, (रक्षिता)=रक्षित, (स्वस्तये) सुखाय=सुख के लिये, (अदब्धः) अहिंसिता=हिंसित न हुआ, (पूषा) पुष्टिकर्त्ता परमेश्वरः= पुष्ट करनेवाला परमेश्वर, (पायुः) पालनकर्त्ता=पालन करनेवाला, (असत्) भवेत्=होवे, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=तुम, (भव)=होओ। (यथा)= जिस प्रकार से, (वयम्)=हम, (अवसे) रक्षणाय=रक्षा के लिये, (तम्) सृष्टिविद्याप्रकाशकम्= सृष्टि विद्या के प्रकाशक को, (जगतः) जङ्गमस्य=चलायमान, (तस्थुषः) स्थावरस्य=अचल, (पतिम्) पालकम्=पालन करनेवाला, (धियम्) समस्तपदार्थचिन्तकम्= समस्त पदार्थों के सम्बन्ध में विचार करनेवाली बुद्धि, (जिन्वम्) सर्वैः सुखैस्तर्प्पकम्=समस्त सुखों से तृप्त करनेवाला, (ईशानम्) सर्वस्याः सृष्टेर्विधातारम्=समस्त सृष्टि का निर्माण करनेवाले, (परमात्मानम्)= परमात्मा की, (हूमहे) स्पर्धामहे= आह्वान करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=तुम, (अपि)=भी, (आह्वय)= आह्वान करो ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों के द्वारा वैसा कार्य किया जाना चाहिए जैसा ईश्वर के उपदेश के अनुकूल हो। जैसे ईश्वर सबका स्वामी है, वैसे ही मनुष्यों को भी सर्वोत्तम विद्या और शुभ गुणों को प्राप्त करके उत्तम पुरुषार्थ से सबका स्वामी होने की साधना करनी चाहिए। जैसे ईश्वर विशेष ज्ञानवाला, पुरुषार्थ से युक्त, सब सुखों को देनेवाला, संसार की उन्नति करनेवाला, सब की रक्षा करनेवाला और सब के सुख के लिये प्रवृत्त हो रहता है, वैसे ही मनुष्यों को भी होना चाहिये॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (विद्वन्) विद्वान्! (यथा) जिस प्रकार से (पूषा) पुष्ट करनेवाला परमेश्वर (नः) हमारे लिये, (वेदसाम्) विद्या आदि धनों की (वृधे) वृद्धि के लिये, (यः) जो (रक्षिता) रक्षित किये हुए (स्वस्तये) सुख के लिये, (अदब्धः) हिंसित न हुआ, (पूषा) पुष्ट करनेवाला परमेश्वर और (पायुः) पालन करनेवाला (असत्) होवे, (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (भव) होओ। (यथा) जिस प्रकार से (वयम्) हम (अवसे) रक्षा के लिये (तम्) सृष्टि विद्या के प्रकाशक, (जगतः) चलायमान और (तस्थुषः) अचल, (पतिम्) पालन करनेवाले, (धियम्) समस्त पदार्थों के सम्बन्ध में विचार करनेवाली बुद्धिवाले, (जिन्वम्) समस्त सुखों से तृप्त करनेवाले और (ईशानम्) समस्त सृष्टि का निर्माण करनेवाले (परमात्मानम्) परमात्मा का (हूमहे) आह्वान करते हैं, (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (अपि) भी (आह्वय) आह्वान करो ॥५॥
संस्कृत भाग
तम् । ईशा॑नम् । जग॑तः । त॒स्थुषः॑ । पति॑म् । धि॒य॒म्ऽजि॒न्वम् । अव॑से । हू॒म॒हे॒ । व॒यम् । पू॒षा । नः॒ । यथा॑ । वेद॑सम् । अस॑त् । वृ॒धे । र॒क्षि॒ता । पा॒युः । अद॑ब्धः । स्व॒स्तये॑ ॥ विषयः- मनुष्यैः सर्वविद्याप्रकाशकं जगदीश्वरमाश्रित्य स्तुत्वा प्रार्थयित्वोपास्य सर्वविद्यासिद्धये परमपुरुषार्थः कार्य्य इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैस्तथाऽनुष्ठातव्यं यथेश्वरोपदेशानुकूल्यं स्यात्। यथेश्वरः सर्वस्याऽधिपतिस्तथा मनुष्यैरपि सर्वोत्तमविद्याशुभगुणप्राप्त्या सुपुरुषार्थेन सर्वाऽधिपत्यं साधनीयम्। यथेश्वरो विज्ञानमयः पुरुषार्थमयः सर्वसुखप्रदो जगद्वर्धकः सर्वाभिरक्षकः सर्वेषां सुखाय प्रवर्त्तते, तथैव मनुष्यैरपि भवितव्यम् ॥५॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी असा व्यवहार करावा की जो ईश्वराच्या उपदेशानुकूल असेल व जसा ईश्वर सर्वांचा अधिपती आहे तसे माणसांनी सदैव उत्तम विद्या व शुभ गुणांची प्राप्ती व उत्तम पुरुषार्थ करून सर्वांवर स्वामित्व सिद्ध करावे व जसा ईश्वर विज्ञानाने पुरुषार्थयुक्त असून सर्व सुख देणारा, जगाचा विकास करणारा, सर्वरक्षक असून सर्वांच्या सुखासाठी प्रवृत्त होतो तसे सर्व माणसांनीही बनले पाहिजे. ॥ ५ ॥
विषय
प्रार्थना
व्याखान
हे सर्वांचा अधिपति ! तूच चर व अचर जगाची (ईशानम्) रचना करणारा आहेस. (धियंजिन्वम्) सर्वविद्या युक्त व विज्ञानस्वरूप बुद्धीला प्रकाशित करणारा प्राणनीय [संतुष्ट करणारा] स्वरूप आहेस, (पूषा) तू सर्वाचा पोषक आहेस. अशा तुला (नः अवसे) आमच्या रक्षणासाठी (हूमह) आवाहन करतो. (यथा) ज्याप्रकारे आमची विद्या, धन इत्यादी वाढावे किंवा त्याचे रक्षण व्हावे यार (अदब्धः रक्षिता) तू अत्यंत उत्साहाने आमचे रक्षण करण्यास तत्पर असतोस. याशिवाय (स्वस्तये) आम्ही स्वस्थ राहावे म्हणून तू कृपा करतोस. किंबहुना, तुझ्या कृपेनेच आम्ही स्वस्थ राहतो. (पायुः) त्यासाठी तू आमचा रक्षक बनलेला आहेस. तू पालक व पोषक असल्यामुळे आम्ही सदैव उत्तम कार्य करून उन्नति करावी व आम्हाला आनंदाची प्राप्ती व्हावी.॥१०॥
इंग्लिश (4)
Meaning
For our safety and protection, we invoke and pray to that Lord Ruler of the universe, father and controller of the moving and the non-moving world who inspires and enlightens our mind and sense so that Pusha, lord of health and growth, beyond fear and violence, protector and giver of nourishment be kind and favourable to us for our good and for the growth of our knowledge and competence.
Purport
O the Lord of all! You are the creator of animate and inanimate movable and immovable world. You are the embodiment of all knowledge. You are perfect Intelligence, Enlightner of educative and scientific intellect, satiater and nourisher of all living beings. We invoke you for our protection. Just as you are ever vigilant for the advancement and protection of our wealth of learning, similarly be watchful and protector in respect of our health and well-being. Protected and directed by You we should always advance on righteous path and attain supreme bliss in this very life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Men should take shelter in, glorify and pray to and adore God who is Illuminer of all knowledge for the accomplishment of all knowledge and should exert themselves well is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person, as God the Sustainer of all is our infallible Protector and Preserver for the increase of our spiritual wealth in the form of wisdom and material, so you should also be. As we invoke for our protection God who is the Lord of immovable and moveable world, Omniscient, Gratifier by giving us all happiness, so you should also invoke Him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(धियम्) सर्वपदार्थचिन्तकम् = Knower of all objects. (जिन्वम्) सर्वे: सुखैस्तर्पकम् = Satisfier by giving all happiness. (वेदसाम्) विद्यादिधनानाम् = Of the wealth like wisdom, knowledge and material.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should act according to the Instructions of God as I given in the Vedas. As God is the Lord of all, so men should also become Maste' s and rulers of all by the acquisition of all good knowledge and other virtues and with labour. As God is Omniscient, always Active. Giver of all delight, cause of all Advancement and Progress of the world, Protector of all and He does everything for the happiness of all beings, so should men be.
Translator's Notes
जिवि तर्पणे वेदइतिधननाम (निघ० २.१०)
Subject of the mantra
Human beings should make utmost efforts for the attainment of all knowledge by taking shelter, praising, praying and worshiping God who is the revealer of all knowledge, this has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan) =scholar, (yathā) =like, (pūṣā)= God who strengthens, (naḥ) =for us, (vedasām)=of wealth like knowledge etc,. (vṛdhe)=for the increase, (yaḥ) =that, (rakṣitā)=preserved, (svastaye) =for happiness, (adabdhaḥ) = not becoming violent, (pūṣā) =God who strengthens and, (pāyuḥ) =one who nurtures, (asat) =be, (tathā) =similarly, (tvam) =you, (bhava) =must be, (yathā) =like, (vayam) =we, (avase) =for protection, (tam)=revealer of knowledge of creation, (jagataḥ) =movable and, (tasthuṣaḥ) =immovable, (patim) =the sustainer, (dhiyam) =the one who has the intelligence to think about all things, (jinvam) the one who satisfies us with all the happiness and, (īśānam) the creator of the entire universe, (paramātmānam) =of God, (hūmahe) =invoke, (tathā) =similarly, (tvam) =you, (api) =also, (āhvaya)= invoke.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! Just as the God who strengthens us, for the increase of wealth like knowledge etc., for the happiness that we have preserved, is non-violent, the God who strengthens and nurtures us, similarly you be. Just as we invoke for protection the God who is the revealer of the knowledge of creation, the mover and the immovable, the sustainer, the one who has the intelligence to think about all things, as we invoke God who satisfies us with all the happiness and is the creator of the entire universe, in the same way you also invoke.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There are paronomasia and silent vocal simile as figurative in this mantra. Human beings should do work in accordance with God's teachings. Just as God is the master of all, similarly human beings should also strive to be the master of all with great efforts by acquiring the best knowledge and auspicious virtues. Just as God has special knowledge, is full of effort, is the giver of all happiness, is the one who makes the world progress, is the protector of all and is inclined towards the happiness of all, in the same way human beings should also be.
बंगाली (1)
পদার্থ
তমীশানং জগতস্তস্থুপস্পতিং ধিয়ং জিন্বমবসে হূমহে বয়ম্।
পূষা নো যথা বেদসামসদ্ বৃধে রক্ষিতা পায়ুরদব্ধঃ স্বস্তয়ে।।৯৩।।
(ঋগ্বেদ ১।৮৯।৫)
পদার্থঃ (বয়ম্) আমরা সবাই (অবসে) আমাদের রক্ষার জন্য (তম্) সেই (ঈশানম্) ঈশ্বরের, যিনি (জগতঃ তস্থুপঃ পতিম্) জঙ্গম্ ও স্থাবরের স্বামী (ধিয়ম্ জিন্বম্) বুদ্ধির প্রেরক, তাঁর (হূমহে) প্রার্থনা করি। হে (পূষা) জগতের পোষক ঈশ্বর! (নঃ) আমাদের (বেদসামবৃধে) ধনের বৃদ্ধির জন্য (অসৎ) প্রাপ্ত হও তথা (অদব্ধঃ) হে অদম্য তুমি! (স্বস্তয়ে) আমাদের কল্যাণের জন্য (রক্ষিতা) আমাদের রক্ষক ও (পায়ুঃ) পালক হও।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ চরাচর সমগ্র জগতের কর্তা পরমেশ্বরের নিকট আমরা প্রার্থনা করি যে, তিনি যেন আমাদের বুদ্ধিকে শুভ মার্গে নিযুক্ত করেন এবং আমাদের শরীর ও সম্পদের রক্ষা করে আমাদের কল্যাণের রক্ষক তথা পালনকর্তা হন। কেননা, সেই প্রভুর কৃপা দৃষ্টি ব্যতীত না আমাদের শরীর, না ঐশ্বর্য সুরক্ষিত হতে পারে, আর না আমাদের কল্যাণ প্রাপ্ত হতে পারে । এইজন্য ইহজন্ম ও পরজন্মের কল্যাণ প্রাপ্তির জন্য সেই জগৎপতি পরমাত্মার আমরা উপাসনা ও প্রার্থনা করে থাকি।।৯৩।।
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे सर्वाधिस्वामिन् ! हजुर नै चराचर जगत् को ईशानम्=रचनाकार हुनुहुन्छ, धियंजिन्वम् = सर्वविद्यामय, विज्ञानस्वरूप बुद्धिलाई प्रकाशित गर्ने, सबैलाई तृप्त गर्ने प्रीणनीयस्वरूप पूषा = सबैका पोषक हुनुहुन्छ, एस्तो तपाईंका हामी नः अवसे = आफ्नो रक्षा का लागी हूमहे = आह्वान् गर्दछौं । यथा जुनप्रकार ले हजुर हाम्रो विद्यादिधन हरु को वृद्धि वा रक्षा का लागी अदब्धः रक्षित = निरालस्प रही रक्षा गर्नमा तत्पर हुनुहुन्छ, तेसै गरी हजुरले कृपा गरेर स्वस्तये हाम्रो सुस्वास्थ्य का लागी पायु: = निरन्तर रक्षक [विनाशनिवारक] हुनुहोस्, हजुरद्वारा पालित हामीहरु सदैव असल काम गरेर उन्नति र आनन्द मा प्राप्त हौं ॥१०॥
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