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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दमनो यामायनः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यो अ॒ग्निः क्र॑व्य॒वाह॑नः पि॒तॄन्यक्ष॑दृता॒वृध॑: । प्रेदु॑ ह॒व्यानि॑ वोचति दे॒वेभ्य॑श्च पि॒तृभ्य॒ आ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अ॒ग्निः । क्र॒व्य॒ऽवाह॑नः । पि॒तॄन् । यक्ष॑त् । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । प्र । इत् । ऊँ॒ इति॑ । ह॒व्यानि॑ । वो॒च॒ति॒ । दे॒वेभ्यः॑ । च॒ । पि॒तृऽभ्यः॑ । आ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अग्निः क्रव्यवाहनः पितॄन्यक्षदृतावृध: । प्रेदु हव्यानि वोचति देवेभ्यश्च पितृभ्य आ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । अग्निः । क्रव्यऽवाहनः । पितॄन् । यक्षत् । ऋतऽवृधः । प्र । इत् । ऊँ इति । हव्यानि । वोचति । देवेभ्यः । च । पितृऽभ्यः । आ ॥ १०.१६.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः क्रव्यवाहनः-अग्निः ऋतावृधः पितॄन्-यक्षत्-इत्-उ-देवेभ्यः-च पितृभ्यः-आ हव्यानि प्रवोचति) जो शवमांस की वोढा अग्नि यज्ञवर्धक सूर्यरश्मियों से सङ्गत होती है, वही अग्नि इस समय आहुतियुक्त चमस से देवों दिव्यगुणयुक्त पदार्थों और पूर्वोक्त सूर्यरश्मियों के लिये भी हव्यों का उच्चारण अर्थात् शवमांस के चटपटा शब्द के स्थान में घृतादि हव्य की सरसर ध्वनि करती है ॥११॥

    भावार्थ

    शवाग्नि में घृतादि हव्य डालने से शवमांस के चटपटा शब्द को भी दबाकर हव्य की सरसर ध्वनि के साथ उक्त अग्नि देवयज्ञ और पितृयज्ञ के रूप को धारण कर लेती है ॥११॥

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    विषय

    देवत्व व पितृत्व तथा शाकाहार

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो यह (क्रव्यवाहनः) = मांस का वहन करनेवाला (अग्निः) = क्रव्याद अग्नि अर्थात् मांस भोजन (ऋतावृधः) = ऋत का वर्धन करनेवाले, यज्ञ [= ऋत] को अपने जीवन में बढ़ानेवाले (पितॄन्) = पितरों के साथ भी (यक्षत्) = संगत हो जाता है अर्थात् यज्ञशील पितरों में भी कभी-कभी मांस भोजन की ओर झुकाव हो जाता है । सो वे प्रभु (देवेभ्यः) = देवताओं के लिये (च) = और (पितृभ्यः) = पितरों के लिये भी (इद् उ) = निश्चय से (हव्यानि) = हव्य पदार्थों का (प्रवोचति) = प्रकृष्ट उपदेश देते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार से, भिन्न-भिन्न शब्दों में प्रभु मांस भोजन की हीनता व त्याज्यता का प्रतिपादन करते हैं और शाक भोजन की उपादेयता को कहते हैं । अथर्व के ये शब्द प्रसिद्ध हैं कि 'व्रीहिमत्तं यवमत्तं माष भक्षो तिलम्' जौ, चावल, उड़द व तिल आदि पदार्थों को ही तुमने भोजन के रूप में लेना है । [२] बारम्बार उपदेश की आवश्यकता को ही यहाँ यह कहकर व्यक्त किया गया है कि यह मांस भोजन बड़ों-बड़ों को भी लुब्ध कर लेता है। सो इससे बचने के लिये आवश्यक है कि हमें स्थान-स्थान पर प्रभु की ओर से हव्य पदार्थों के प्रयोग का उपदेश हो । यह उपदेश विशेषकर देववृत्ति व पितृवृत्ति वालों के लिये आवश्यक है, क्योंकि उनका अनुकरण ही सामान्य लोगों ने करना होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- देव व पितर सदा हव्य पदार्थों को ही ग्रहण करनेवाले हों । वस्तुतः यह हव्य पदार्थों का स्वीकार ही उनके देवत्व व पितृत्व को कायम रखता है। मांस भोजन से वे देव व पितर नहीं रह जाते ।

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    विषय

    समिधा हाथ में लेकर शिष्य को गुरु के समीप जाना।

    भावार्थ

    (यः) जो (क्रव्य-वाहनः अग्निः) कटे काष्टादि में लगे अग्नि के तुल्य तेजस्वी पुरुष (क्रव्य-वाहनः) उत्तम अन्नों या कटी हुई समिधादि को हाथ में धारण करने वाला होकर (ऋतवृधः पितृन् यक्षत्) सत्यज्ञान को बढ़ाने वाले गुरु आदि पालक जनों का आदर-सत्कार और सत्संग करता है वह ही (देवेभ्यः च) उत्तम विद्वानों और (पितृभ्यः) गुरु जनों के (हव्यानि) उत्तम ग्राह्य ज्ञानों को (प्र वोचति, आ वोचति) प्रवचन करता और कराता और अन्यों को उपदेश करता है।

    टिप्पणी

    ‘क्रव्य-वाहनः’—क्रव्यस्य हविषः वोढा इति सायणः॥ क्रविषः—भक्षितस्य (यजु २५। ३३) अथवा गन्तुः इति दयानन्दः (यजु० २५। ३२। निष्क्रव्यादम्—क्रव्यम् पक्वं मासम् अत्ति इति दयानन्दः। (यजु० १ । ७)। क्रव्यं विकृत्ताज्जायते इति नैरुक्ताः (निरु० ६। ३ २) ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः क्रव्यवाहनः अग्निः ऋतावृधः पितॄन्-यक्षत्-इत्-उ-देवेभ्यः-च पितृभ्यः-आ हव्यानि प्रवोचति) यः शवमांसस्य वोढाऽग्निः “क्रव्ये च” [अष्टा०३।२।६९] इति योगविभागात् क्रव्योपपदे वहधातोर्ञ्युट्। ऋतावृधः-ऋतस्य यज्ञस्य वर्धयितॄन् “ऋतावृधो यज्ञवृधः” [निरु०१२।१३] पितॄन्-सूर्यरश्मीन् जयेत्-सङ्गतो भवेत्, “सङ्गतिकरणमत्र यज्ञार्थः”। स एवाग्निरिदु-इदानीं तु-आहुतियुक्तचमसेन देवेभ्यः-दिव्यगुणेभ्यश्च पितृभ्यश्च पूर्वोक्तेभ्यः, ‘आकारः समुच्चयार्थः’। “एतस्मिन्नेवार्थे (समुच्चयार्थे) देवेभ्यश्च पितृभ्य एत्याकारः” [निरु०१।४] हव्यानि प्रवोचति प्रवदति, ‘लडर्थे लेट्’। शवमांसचटचटास्थानेऽधुना हव्य-सरसरशब्दं करोति-इत्यर्थः ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The fire, participant of natural law, which carries the elements of the corpse to nature, pervades in senior humanity and vibrates in natural energies too. The same fire carries the yajnic homage and proclaims the gifts for the ancestors, for the divines and for nature.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शवाग्नीमध्ये घृत इत्यादी हव्य घालण्याने शवमांसाच्या चटचट आवाजाचे दमन करून अग्नी हव्याच्या सरसर ध्वनीबरोबर देवयज्ञ व पितृयज्ञाच्या रूपाला धारण करतो.

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