ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 14
शीति॑के॒ शीति॑कावति॒ ह्लादि॑के॒ ह्लादि॑कावति । म॒ण्डू॒क्या॒३॒॑ सु सं ग॑म इ॒मं स्व१॒॑ग्निं ह॑र्षय ॥
स्वर सहित पद पाठशीति॑के । शीति॑काऽवति । ह्लादि॑के । ह्लादि॑काऽवति । म॒ण्डू॒क्या॑ । सु । सम् । ग॒मः॒ । इ॒मम् । सु । अ॒ग्निम् । ह॒र्ष॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शीतिके शीतिकावति ह्लादिके ह्लादिकावति । मण्डूक्या३ सु सं गम इमं स्व१ग्निं हर्षय ॥
स्वर रहित पद पाठशीतिके । शीतिकाऽवति । ह्लादिके । ह्लादिकाऽवति । मण्डूक्या । सु । सम् । गमः । इमम् । सु । अग्निम् । हर्षय ॥ १०.१६.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 14
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शीतिके शीतिकावति ह्लादिके ह्लादिकावति मण्डूक्या सुसङ्गमः-इमम्-अग्निं सुहर्षय) हे शीतरूप दूब ! हे शीतदूबयुक्त भूमे ! हे मन को प्रसन्न करनेवाली सुगन्धवल्लकि ! हे सुगन्धवल्लकियुक्त भूमे ! तू मण्डूकी के साथ भली-भाँति इस प्रकार सङ्गत हो कि अन्त्येष्टि अग्नि के प्रभाव का यहाँ कोई भी चिह्न न रहे ॥१४॥
भावार्थ
शवाग्नि के पश्चात् उस भूमि का उपचार इस प्रकार होना चाहिये कि वहाँ ठण्डी-ठण्डी दूब और सुगन्धलता उगकर भूमि हरी-भरी और मेण्डकियों के साथ सुन्दर प्रतीत होने लगे एवं शवाग्नि के प्रभाव का कोई भी चिह्न न रहे ॥१४॥
विषय
मण्डूकी
पदार्थ
[१] प्रस्तुत मन्त्र में (मण्डूकी) = मण्डूकपर्णी का उल्लेख है, यह कोश के अनुसार कई पौधों का नाम है [Name of sevaral plants] । ये सब पौधे शीतवीर्य व सुख प्रीति के बढ़ानेवाले हैं। शीतवीर्य होने से इन्हें मन्त्र में 'शीतिके' शब्द से सम्बोधित किया गया है तथा सुख-प्रीतिवर्धक होने से 'ह्लादिके' कहा गया है। हे (शीतिकावति) = शीतवीर्य वाली, शरीर में उत्तेजना को दूर करके शान्ति को जन्म देनेवाली (शीतिके) = शीतिका नाम वाली ओषधि, हे (ह्लादिकावति) = शरीर में उत्तम धातुओं को जन्म देकर आह्लाद को बढ़ानेवाली (ह्लादिके) = ह्लादिका नामवाली ओषधि; ऐ (ह्लादिकावति) = शरीर को उत्तम धातुओं से मण्डित करनेवाली है। तू (आ सु संगम) = सब प्रकार से उत्तमता से हमारे साथ संगत हो और (इमं) = इस (अग्निम्) = प्रगतिशील जीव की वैश्वानर अग्नि को (हर्षय) = हर्षित कर । इस की यह जाठराग्नि बुझ न जाए। यह दीप्त अग्नि इसके जीवन को भी दीप्त करनेवाली हो। दीप्त अग्नि ही शरीर में शान्ति व हर्ष के वर्धन का कारण बनती है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे भोजन मण्डूकपर्णी ओषधि के समान शीतवीर्य व प्रीतिवर्धक हो । सूक्त के प्रारम्भ में आचार्य विद्यार्थी को तप व दण्ड की उचित व्यवस्था से ज्ञान परिपक्व करते हैं। [१] आचार्यकुल में विद्यार्थी असुनीति प्राणविद्या का अध्ययन करता है और स्वास्थ्य की कला को सीखता है, [२] सूर्यादि देवों के साथ यह अपनी अनुकूलता बनाता है, [३] तप पवित्रता व ज्ञानदीप्ति से यह प्रभु को धारण करता है, [४] गृहस्थ की समाप्ति पर फिर से पितरों के समीप वन में आता है, [५] विषादि को अग्नि प्रयोग से दूर करता है, [६] प्रभु स्मरण रूप कवच को धारण करता है, [७] अपने जीवन से कुटिलता को दूर करता है, [८] मांस भोजन को सर्वथा छोड़ता है, [९] वानस्पतिक भोजन द्वारा यज्ञिय वृत्ति वाला बनता है, [१०] शाकाहार से ही देवत्व तथा पितृत्व की वृद्धि होती है, [११] हम प्रभु की प्राप्ति की कामना वाले बनते हैं, [१२] हम कियाम्बु व पाकदूर्वा का प्रयोग करें, [१३] मण्डूकपर्णी जाति की ओषधियों को अपनायें जो कि शीतवीर्य व हर्षवर्धक हैं, [१४] ऐसा होने पर त्वष्टा की दुहिता सरण्यू से हमारा परिणय होगा ।
विषय
शान्तिप्रद विद्या का वर्णन।
भावार्थ
हे (शीतिके) शीतल स्वभाव वाली ! हे (शीतिकावति) शीतवत् शान्तिदायक वाणियों से युक्त ! हे (ह्लादिके) आल्हाददायिनि ! हे (ह्लादिकावति) आह्लाद देने वाली वाणियों से युक्त विद्ये ! तू (मण्डूक्या) तत्वज्ञान में जल में मण्डूकी के समान निमग्न होने अर्थात् गहरी डुबकी लगाने वाली बुद्धि के द्वारा (आ गमः) प्राप्त हो, (सं गमः) अच्छी प्रकार विदित हो। और (इमं अग्निम्) उस विद्वान् को (सु हर्षय) अच्छी प्रकार हर्षित कर। इति द्वाविंशो वर्गः॥ इति प्रथमोऽनुवाकः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शीतिके शीतिकावति ह्लादिके ह्लादिकावति मण्डूक्या सु सङ्गमः-इमम्-अग्निं सुहर्षय) हे शीतिके शीतरूपे दूर्वे ! “शीता दूर्वानाम” [धन्वन्तरिनिघण्टौ पर्पटादिवर्गे तथा च वाचस्पत्ये] ‘ततोऽनुकम्पायां कन्’। शीतिकावति ! हे दूर्वावति भूमे ! ह्लादिके-मनःप्रसादिके वल्लकि ! “वल्लकी ह्लादा सुरभिः सुस्रवा च सा” [धन्वन्तरिनिघण्टौ] ह्लादिकावति-हे ह्लादिकावति भूमे ! मण्डूक्या सह सु सम्यक् सङ्गमः-सङ्गच्छस्व तथेममग्निमग्निप्रभावं सुहर्षय-सम्यगलीकं शान्तं कुरु, “हृषु-अलीके” [भ्वादिः] ॥१४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O cool grass, O refreshing land, growing with luxuriant grass, O delightful spot covered with delightful flowers, rejoice with beauty and grace, let this place of holy fire be renewed, joyous and gracious.
मराठी (1)
भावार्थ
शवाग्नीनंतर त्या भूमीवर अशा योजना केल्या पाहिजेत, की तेथे थंड थंड गवत व सुगंधित वेली उगवून भूमी हिरवीगार व मंडुकासह सुंदर वाटली पाहिजे, व शवाग्नीचे कोणतेही चिन्ह राहता कामा नये. ॥१४॥
टिप्पणी
वक्तव्य $ या संपूर्ण सूक्ताची देवता अग्नी आहे. देहान्त झाल्यावर कृत्रिम व सर्वत्र सिद्ध अग्नी शवाचे कसे छेदन, भेदन विभाग करतो व अजन्मा जीवात्म्याला पुनर्देह धारण करण्यायोग्य बनवितो. अग्निसंस्काराचे औषधतुल्य वर्णन, शवाग्नी परिणाम व त्याचा घृत इत्यादी आहुतीने शवदहनगंधदोषनिवारणाद्वारे उपचार, शवाग्नीने दग्ध देशभूमीची प्रतिक्रिया, त्याला पुन्हा पूर्वीसारखे बनविणे इत्यादी प्रतिकार योग्य गोष्टींचे वर्णन आहे. माणूस ज्याकडे लक्ष न देता त्याप्रमाणे आचरण न करून शवदहन इत्यादीने निर्माण झालेल्या हानीच्या अपराधापासून सुटू शकत नाही.
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