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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
    ऋषिः - दमनो यामायनः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्नेर्वर्म॒ परि॒ गोभि॑र्व्ययस्व॒ सं प्रोर्णु॑ष्व॒ पीव॑सा॒ मेद॑सा च । नेत्त्वा॑ धृ॒ष्णुर्हर॑सा॒ जर्हृ॑षाणो द॒धृग्वि॑ध॒क्ष्यन्प॑र्य॒ङ्खया॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः । वर्म॑ । परि॑ । गोभिः॑ । व्य॒य॒स्व॒ । सम् । प्र । ऊ॒णु॒ष्व॒ । पीव॑सा । मेद॑सा । च॒ । न । इत् । त्वा॒ । धृ॒ष्णुः । हर॑सा । जर्हृ॑षाणः । द॒धृक् । वि॒ऽध॒क्ष्यन् । प॒रि॒ऽअ॒ङ्खया॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेर्वर्म परि गोभिर्व्ययस्व सं प्रोर्णुष्व पीवसा मेदसा च । नेत्त्वा धृष्णुर्हरसा जर्हृषाणो दधृग्विधक्ष्यन्पर्यङ्खयाते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः । वर्म । परि । गोभिः । व्ययस्व । सम् । प्र । ऊणुष्व । पीवसा । मेदसा । च । न । इत् । त्वा । धृष्णुः । हरसा । जर्हृषाणः । दधृक् । विऽधक्ष्यन् । परिऽअङ्खयाते ॥ १०.१६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्नेः-वर्म गोभिः परिव्ययस्व पीवसा मेदसा च सम्प्रोर्णुष्व) अग्नि के घर अर्थात् चिता को इन्द्रियों और नाड़ियों सहित यह प्रेत भली प्रकार प्राप्त होवे और मांस मेदः-चर्बी द्वारा जलती हुई शववेदि अर्थात् चिता को सम्यक् पूर्णता से प्राप्त हो, क्योंकि (धृष्णुः-जर्हृषाणः-दधृक्-विधक्ष्यन्-नेत्त्वा हरसा पर्यङ्खयाते) प्रसह्यकारी अतिशय से वस्तुमात्र को अकिञ्चित् करनेवाली अग्नि उस प्रेत को विशेषरूपेण जलाती हुई शवाङ्गों को इधर-उधर न फेंक दे ॥७॥

    भावार्थ

    शवदहनवेदि का परिमाण इतना होना चाहिये कि मृत शरीर सुगमता से पूरा आ जावे और उसके प्रत्येक नस, नाड़ी, मांस, चर्बी आदि अंशों में अग्नि का प्रवेश भली प्रकार हो सके। शवदहन करनेवालों को यह ध्यान रखना चाहिये कि चिता में अग्नि इस प्रकार जलाई जावे कि वह अतितीक्ष्ण और बलवान् होकर विपरीतता से जलाती हुई शवाङ्गों को इधर-उधर न फेंक दे ॥७॥

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    विषय

    आत्म-संरक्षण प्रभुरूप कवच व भरा हुआ शरीर

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र में बाह्य कृमियों से होनेवाले विकारों की चिकित्सा का निर्देश था। प्रस्तुत मन्त्र अध्यात्म रोगों को चिकित्सा का उल्लेख करता है। इसके लिये कहते हैं कि (गोभिः) = वेद-वाणियों के द्वारा ज्ञान की वाणियों को सदा अपनाने के द्वारा (अग्नेः वर्म) = उस प्रभु के कवच को (परिव्ययस्व) = चारों ओर से ओढ़नेवाला बन । अपने को प्रभुरूप कवच से आच्छादित करले । [२] इसके अतिरिक्त तेरा शरीर भी अस्थिपंजर - सा ही न हो। तू अपने शरीर को भी (पीवसा) = मज्जा के द्वारा (मेदसा च) = और मेदस् के द्वारा (सं प्रोर्णुस्व) = आच्छादित कर । तेरा शरीर, मज्जा व मेदस् से भरा-सा प्रतीत हो, क्षीण न हो। पतला-दुबला आदमी कुछ चिड़चिड़े स्वभाव का हो जाता है । शरीर भरा हुआ हो और मनुष्य प्रभु स्मरण में चलता हो तो वासनाओं का आक्रमण नहीं होता । पतला-दुबला व्यक्ति भी वासनाओं का शिकार हो जाता है। प्रभु से दूर होने पर तो वासनाएँ हमारे पर आधिपत्य जमा ही लेती हैं। [३] तू प्रभु को कवच बना, तथा शरीर भी तेरा भरा हुआ हो । जिससे (त्वा) = तुझे यह काम (न इत् पर्यङ्ख्याते) = चारों ओर से चिपट नहीं जाता, तुझे यह अपने वशीभूत नहीं कर लेता। वह 'काम' जो कि (धृष्णुः) = धर्षण करनेवाला है, हमें कुचल डालनेवाला है । (हरसा जर्हृषाण:) = विषयों में हरण के द्वारा रोमाञ्चित करनेवाला है । (दधृक्) = पकड़ लेनेवाला है, अर्थात् इस काम के वशीभूत हो जाने पर इस से पीछा छूटना बड़ा कठिन है। (विधक्ष्यन्) = और अपने काबू करके यह काम हमें भस्म कर देनेवाला है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - इस काम के आक्रमण से हम बच तभी सकते हैं यदि स्मरण रूप कवच प्रभु हमने धारण किया हुआ हो और हमारा शरीर अस्थिपंजर-सा न होकर भरा हुआ व सुदृढ़ हो ।

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    विषय

    उत्तम वस्त्र-धारण और स्वस्थ रहने का उपदेश।

    भावार्थ

    तू (अग्नेः गोभिः) ज्ञानवान् पुरुष की शुभ वाणियों द्वारा (वर्म) अपने को रक्षा करने के योग्य वस्त्र कवचादि (परि व्ययस्व) धारण करा। और (पीवसा मेदसा च) पुष्टिकारक और स्नेहयुक्त देहधातुओं से अपने को (सं प्र ऊर्णुष्व) अच्छी प्रकार आच्छादित कर जिससे (धृष्णुः) धर्षणशील, अग्नि सदृश गुरु (जर्हृषाणः) अति प्रसन्न होकर (दधृक्) अति कठोर होकर (वि-धक्ष्यन्) विपरीत पापादि को दग्ध करना चाहता हुआ (त्वा नेत् पर्यंखयाते) तुझे न घेर ले, तुझे दण्डित न करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्नेः-वर्म गोभिः परि व्ययस्व पीवसा मेदसा च सम्प्रोर्णुष्व) अग्नेर्वर्म गृहमग्निस्थानं वेदिम् “वर्मेति गृहनाम” [नि०३।४] इन्द्रियैर्नाडीभिर्वाऽयं प्रेतः परितो गच्छेत्सर्वतः प्राप्नुयात् पुरुषव्यत्ययः “व्यय गतौ” [भ्वादिः] तथा पीवसा मांसेन मेदसा वपया च तामेव ज्वलन्तीं वेदिं सम्यक् प्रोर्णुष्व प्रसरेत्। कुतः ? (धृष्णुः-जर्हृषाणः-दधृक्-विधक्ष्यन्-नेत्त्वा-हरसा पर्यङ्खयाते) प्रसह्यकारी ‘प्रसहनार्थस्य चौरादिकस्य धृष्धातोः “त्रसिगृधिधृषिक्षिपेः क्नुः” [अष्टा०३।३।१४०] इत्यनेन क्नुः। जर्हृषाणोऽतिशयेन वस्तुमात्रमलीकं कर्त्तुं शक्तिर्यस्य सः “हृषु-अलीके” [भ्वादिः] तस्मात् “ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश्” [अष्टा०३।२।१८९] इति शक्त्यर्थे चानश् प्रत्ययः “अभ्यस्तानामादिः” [अष्टा०६।१।१८९] इत्याद्युदात्तः। दधृक् प्रगल्भोऽतिदृढ एषोऽग्निः। “धृष् प्रागल्भ्ये” [स्वादिः] “ऋत्विग्दधृक्०”  [अष्टा०३।२।५९] त्वां तं प्रेतं विधक्ष्यन् विशेषं दग्धं करिष्यन्-नेत्-नोचेत्। ज्वालया पर्यङ्खयाते-पर्यङ्खयेत् परिक्षिपेदितस्ततः पातयेत् “उपसंवादाशङ्कयोश्च” [अष्टा०३।४।८] इत्याशङ्कायां लेट् प्रत्ययः ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O soul, from fire itself, from the flames themselves, get another body form anew and cover it with flesh and marrow, and let not this fire, bold and crackling with blaze of power, embrace you and burnt you out.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शवदहन वेदीचे परिमाण एवढे हवे, की मृत शरीर सहज रीतीने मावेल व त्याच्या प्रत्येक नसनाडी, मांस, चरबी इत्यादी अंशात अग्नीचा समावेश चांगल्या प्रकारे व्हावा, शवदहन करणाऱ्याने हे लक्षात ठेवले पाहिजे, की चितेचा अग्नी या प्रकारे जाळला जावा, की तो अतितीक्ष्ण व बलवान व्हावा. विपरीत रीतीने जाळलेला शवाङ्गांना इकडे तिकडे फेकता कामा नये. ॥७॥

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