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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दमनो यामायनः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒जो भा॒गस्तप॑सा॒ तं त॑पस्व॒ तं ते॑ शो॒चिस्त॑पतु॒ तं ते॑ अ॒र्चिः । यास्ते॑ शि॒वास्त॒न्वो॑ जातवेद॒स्ताभि॑र्वहैनं सु॒कृता॑मु लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒जः । भा॒गः । तप॑सा॒ । तम् । त॒प॒स्व॒ । तम् । ते॒ । शो॒चिः । त॒प॒तु॒ । तम् । ते॒ । अ॒र्चिः । याः । ते॒ । शि॒वाः । त॒न्वः॑ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । ताभिः॑ । व॒ह॒ । ए॒न॒म् । सु॒ऽकृता॑म् । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजो भागस्तपसा तं तपस्व तं ते शोचिस्तपतु तं ते अर्चिः । यास्ते शिवास्तन्वो जातवेदस्ताभिर्वहैनं सुकृतामु लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अजः । भागः । तपसा । तम् । तपस्व । तम् । ते । शोचिः । तपतु । तम् । ते । अर्चिः । याः । ते । शिवाः । तन्वः । जातऽवेदः । ताभिः । वह । एनम् । सुऽकृताम् । ऊँ इति । लोकम् ॥ १०.१६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (जातवेदः-अजः भागः तं तपसा तपस्व तं ते शोचिः तपतु तं ते-अर्चिः) सर्वत्र विराजमान यह अग्नितत्त्व इस अजन्मा जीव को अपने पार्थिव ज्वलन धर्म से ऊपर प्रेरण करता है तथा अग्नि का अन्तरिक्षस्थ तेज उसी जीव को ऊपर की ओर प्रेरित करता है और द्युस्थान रश्मितेज भी और आगे बढता है (याः-ते शिवाः तन्वः ताभिः-एनं सुकृताम्-उ-लोके वह) जो कल्याणकारी फैलनेवाली तैजस धारायें हैं, उनके द्वारा अग्नि इस जीव को पुण्य शुद्ध जन्म की ओर ले जाता है ॥४॥

    भावार्थ

    देहान्त के साथ ही अग्नितत्त्व जो सब जगह तेजोरूप से वर्तमान है, वह पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युस्थान के क्रम से ले जाता है ॥४॥

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    विषय

    देवों द्वारा प्रभु का धारण

    पदार्थ

    [१] (अज:) = [अ+ज] कभी शरीर को न धारण करनेवाला, न पैदा होनेवाला, अथवा 'अज् गतिक्षेपणयोः'=गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर करनेवाला प्रभु ही (भाग:) = तेरा उपास्य है [भज सेवायाम्] प्रभु का ही तूने उपासन करना है। (तं) = उस प्रभु को (तपसा) = तप के द्वारा (तपस्व) = तू दीप्त कर । सर्वव्यापकता के नाते अपने हृदयाकाश में वर्तमान उस प्रभु को तू तप से देखनेवाला हो । [२] (तम्) = उस प्रभु को (ते) = तेरी (शोचिः) = [शुच्] पवित्रता व ज्ञानदीप्ति (तपतु) = दीप्त करे, प्रकाशित करे । (तम्) = उस प्रभु को (ते) = तेरी (अर्चिः) = [अर्च पूजायाम्] = पूजा व उपासना दीप्त करे। प्रभु का दर्शन पवित्रता, ज्ञानदीप्ति व उपासना से ही सम्भव है । [३] हे (जातवेदः) = विकसित ज्ञान वाले 'दमन' (या:) = जो (ते) = तेरी (शिवाः तन्वः) = कल्याणमय व शुभ शरीर हैं (ताभिः) = उन से (एनम्) = इस प्रभु को वह तू धारण करनेवाला बन, जो प्रभु (उ) = निश्चय से (सुकृताम्) = पुण्यशील लोगों के (लोकम्) = निवास-स्थान है । पुण्यशील लोग उस तृतीय धाम प्रभु में ही विचरण करते हैं । इस प्रभु को हम तभी धारण कर सकते हैं जब कि हम अपने शरीरों को निर्दोष बना पाते हैं । शरीरों की निर्दोषता के लिये 'तप, पवित्रता, ज्ञानदीप्ति व उपासना' साधन हैं। इन साधनों का ही उल्लेख मन्त्र के पूर्वार्ध में 'तपसा, शोचिः व अर्चि: ' इन शब्दों से हुआ है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'तप, पवित्रता, ज्ञानदीप्ति व उपासना' से शरीरों को निर्दोष बनाते हुए उस प्रभु को धारण करनेवाले बनें, जिन प्रभु में पुण्यशील लोग निवास करते हैं ।

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    विषय

    तप द्वारा आत्मा की शुद्धि। सत्संग द्वारा आत्मोन्नति का उपदेश।

    भावार्थ

    (भागः) नाना कर्मफलों का भोक्ता आत्मा (अजः) जन्मादि से रहित है। हे (जातवेदः) विद्वन् ! (तं) उसको (तपसा तपस्व) तप से संतप्त कर, आत्मा को तप द्वारा शुद्ध कर। (ते शोचिः) तेरा शुद्ध प्रकाश (तं) उस आत्मा को (तपतु) तप्त करे और (तं ते अर्चिः तपतु) उसी आत्मा को तेरा अर्चनीय ज्ञान तप्त करे, शुद्ध करे। (याः) जो (ते शिवाः तन्वः) शान्तिदायक कल्याणकारी रूप हैं (ताभिः एनं सुकृताम् लोकम् वह) उनसे उसको तू पुण्यकर्म जनों के स्थान में प्राप्त करा, जहां वह भी उत्तम कर्म करने वाला बने।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (जातवेदः-अजः-भागः-तं तपसा तपस्व तं ते शोचिः-तपतु तं ते-अर्चिः) हे सर्वत्र विराजमानाग्ने ! अग्निर्वा योऽयमजन्मा जीवस्तं ज्वलनेन पृथिवीस्थेन तेजसा तपसोर्ध्वं प्रेरय प्रेरयति वा। तं ते शोचिर्ज्वलनमन्तरिक्षस्थं तपतूर्ध्वं प्रेरयतु, तं तेऽर्चिर्द्युस्थानं ज्वलनं तपतूर्ध्वं प्रेरयतु। “तपः, शोचिः, अर्चिः, ज्वलतो नामधेयानि” [निघ०१। १७] (याः ते शिवाः-तन्वः-ताभिः एनं सुकृताम्-उ-लोके वह) याः कल्याणकारिण्यस्तन्वः प्रसरणशीलास्तैजसधारास्ताभिरेनं जीवं पुण्यकृतलोकं स्थानं नय ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Jataveda, that part of human personality which is unborn and eternal is the soul, purify and season it to its original purity by the heat of your divine discipline. May your light and fire purify and shine it to its purity and lustre beyond the dross. And by those divine natural potentials of yours which are holy and blissful, pray carry this soul to noble body forms in blessed regions of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    देहान्ताबरोबरच जे अग्नितत्त्व सर्व स्थानी तेजोरूपाने वर्तमान असते ते पृथ्वी, अंतरिक्ष व द्युस्थानी क्रमाने घेऊन जाते. ॥४॥

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