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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दमनो यामायनः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अव॑ सृज॒ पुन॑रग्ने पि॒तृभ्यो॒ यस्त॒ आहु॑त॒श्चर॑ति स्व॒धाभि॑: । आयु॒र्वसा॑न॒ उप॑ वेतु॒ शेष॒: सं ग॑च्छतां त॒न्वा॑ जातवेदः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । सृ॒ज॒ । पुनः॑ । अ॒ग्ने॒ । पि॒तृऽभ्यः॑ । यः । ते॒ । आऽहु॑तः । चर॑ति । स्व॒धाभिः॑ । आयुः॑ । वसा॑नः । उप॑ । वे॒तु॒ । शेषः॑ । सम् । ग॒च्छ॒ता॒म् । त॒न्वा॑ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव सृज पुनरग्ने पितृभ्यो यस्त आहुतश्चरति स्वधाभि: । आयुर्वसान उप वेतु शेष: सं गच्छतां तन्वा जातवेदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । सृज । पुनः । अग्ने । पितृऽभ्यः । यः । ते । आऽहुतः । चरति । स्वधाभिः । आयुः । वसानः । उप । वेतु । शेषः । सम् । गच्छताम् । तन्वा । जातऽवेदः ॥ १०.१६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने यः-ते-आहुतः-चरति पितृभ्यः स्वधाभिः पुनः-अवसृज) हे अग्ने ! जो तेरे अन्दर आश्रित हुआ विराजता है, उसको सूर्यरश्मियों के लिये जलों के द्वारा फिर छोड़ (जातवेदः-शेषः-आयुः-वसानः-उपवेतु तन्वा सङ्गच्छताम्) हे सर्वत्र विद्यमान अग्ने ! विनाशी पदार्थों के नष्ट हो जाने पर शेष रहनेवाला जीवात्मा शरीर के साथ सङ्गत हो जावे अर्थात् पुनर्जन्म को धारण करे, इस प्रकार कार्य में सहायक बन ॥५॥

    भावार्थ

    देहान्त के पश्चात् मृत पुरुष के दो परिणाम अग्नि द्वारा होते हैं। एक शवाग्नि से शवदहन होकर उसके सूक्ष्म कण सूर्यरश्मियों को प्राप्त होते हैं। दूसरे सर्वत्र विद्यमान सूक्ष्माग्नि तेज देहान्त के साथ ही जीव को पुनर्जन्म में जाने के लिये प्रेरक बनता है ॥५॥

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    विषय

    पुनः पितरों के प्रति अपना अर्पणपरिव्रजित होने की तैयारी

    पदार्थ

    [१] इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में माता-पिता ने सन्तानों को पितरों [= आचार्यों] के प्रति सौंपा था। आचार्यों ने उसे ज्ञान परिपक्व बनाकर घर वापिस भेजा था । यहाँ घरों में देवों के साथ अनुकूलता रखते हुए यह स्वस्थ शरीर बनाया और प्रभु की उपासना द्वारा हृदय में प्रभु का दर्शन करनेवाला बना। इस प्रकार गृहस्थ को सुन्दरता से समाप्त करके हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (पुनः) = फिर वनस्थ होने के समय (पितृभ्यः) = वनस्थ पितरों के लिये (अवसृज) = अपने को देनेवाला बन । उनके चरणों में अपना तू अर्पण कर । उनके समीप रहता हुआ ही तू फिर से साधना करके जीवन के अन्तिम प्रयाण के लिये तैयार हो सकेगा । [२] तू उस पितर के लिये अपने को अर्पित कर (य:) = जो (ते) = तेरे द्वारा (आहुतः) = आहुत हुआ हुआ, अर्थात् जिसके प्रति तूने अपना अर्पण किया है, ऐसा वह (स्वधाभिः) = आत्मतत्त्व के धारण के हेतु से (चरति) = सब क्रियाएँ करता है । अर्थात् उन पितरों का प्रयत्न यह होता है कि तुझे आत्मदर्शन के मार्ग पर डाल दें। [३] अब आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त करके तू प्रव्रजित होता है और (आयुः) = उत्कृष्ट जीवन को, सशक्त व उत्तम जीवन को (वसानः) = धारण करता हुआ, (शेषः उपवेतु) = [शेषस्= अवशिष्ट] अवशिष्ट भोजन को ही तू प्राप्त करनेवाला हो। संन्यासी ने भिक्षा माँगनी है, परन्तु माँगनी तब है जब कि 'विद्धूमे सन्नमुसले ' - रसोई में से धूआं निकलना बन्द हो चुका हो और मुसल व्यापार भी समाप्त हो चुका हो। इस समय तक सब घर के व्यक्ति खा-पी चुके होंगे और बची-खुची ही रोटी भिक्षा में प्राप्त होगी । यही 'शेष: ' है । इसके लेने में किसी पर यह संन्यासी बोझ नहीं बनता। [४] इस प्रकार गृहस्थ्य पर कम से कम बोझ होता हुआ यह (जातवेदः) = विकसित ज्ञानवाला परिव्राजक (तन्वा) = विस्तृत शक्तियों वाले शरीर से (संगच्छताम्) = संगत हो। इसका शरीर क्षीणशक्ति न होकर बढ़ी हुई शक्तियों वाला हो। इसका जीवन परिपक्व फल की तरह अधिक सुन्दर प्रतीत हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ-गृहस्थ के बाद वनस्थ होकर यह उन पितरों के सम्पर्क में आये जो कि इसे आत्मदर्शन के मार्ग पर ले चलें । संन्यास होकर यह बचे हुए अन्न का भिक्षा में प्राप्त करे, स्वस्थ सुन्दर शरीर वाला हो ।

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    विषय

    विद्यार्थी का तपोव्रत के अनन्तर पितृ-गृह में आवर्तन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! ज्ञानवन् ! (यः) जो (ते आहुतः) तेरे अधीन समर्पित होकर (स्वधाभिः) भिक्षादि अन्नों द्वारा तेरी सेवा करता है उस शिष्य को तू (पुनः) फिर (पितृभ्यः अव सृज) पालक जनों के हितार्थ प्रेरित कर। वह (वसानः) अपने को उत्तम वस्त्रों से आच्छादित कर (शेषः आयुः उपवेतु) अपनी शेष आयु को माता पिता के साथ व्यतीत करे। हे (जातवेदः) विद्वन् ! वह (तन्वा संगच्छताम्) दृढ़ शरीर से सदा युक्त रहे। इति विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने यः-ते-आहुतः-चरति पितृभ्यः स्वधाभिः पुनः-अवसृज) हे अग्ने ! यस्त आहुतः-आत्तो गृहीतश्चरति तं सूर्यरश्मिभ्य उदकैः सह पुनः पृथक् कुरु (जातवेदः शेषः-आयुः-वसानः उपवेतु तन्वा सङ्गच्छताम्) हे सर्वत्र विद्यमानाग्ने ! शिष्यतेऽसाविति शेषो जीवात्मा शरीरेण सङ्गतो भवतु ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Agni, Jataveda, form and shape out once again from material elements and energy what, having been offered to you in the fire, roams around vested with its own potentials. The soul that remained alive after giving up its material vestments in the fire may, we pray, assume a life time of earthly existence and go about with the body once again doing its karmic business as earlier.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    देहान्तानंतर मृत पुरुषाचे अग्नीद्वारे दोन परिणाम होतात. एक शवाग्नीने शवदहन होऊन त्याचे सूक्ष्म कण सूर्य रश्मींना प्राप्त होतात. दुसरा सर्वत्र विद्यमान सूक्ष्माग्नी तेज देहान्ताबरोबरच जीवाला पुनर्जन्मात जाण्यासाठी प्रेरक बनतो. ॥५॥

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