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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दमनो यामायनः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सूर्यं॒ चक्षु॑र्गच्छतु॒ वात॑मा॒त्मा द्यां च॑ गच्छ पृथि॒वीं च॒ धर्म॑णा । अ॒पो वा॑ गच्छ॒ यदि॒ तत्र॑ ते हि॒तमोष॑धीषु॒ प्रति॑ तिष्ठा॒ शरी॑रैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑म् । चक्षुः॑ । ग॒च्छ॒तु॒ । वात॑म् । आ॒त्मा । द्याम् । च॒ । ग॒च्छ॒ । पृ॒थि॒वीम् । च॒ । धर्म॑णा । अ॒पः । वा॒ । ग॒च्छ॒ । यदि॑ । तत्र॑ । ते॒ । हि॒तम् । ओष॑धीषु । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । शरी॑रैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यं चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा । अपो वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यम् । चक्षुः । गच्छतु । वातम् । आत्मा । द्याम् । च । गच्छ । पृथिवीम् । च । धर्मणा । अपः । वा । गच्छ । यदि । तत्र । ते । हितम् । ओषधीषु । प्रति । तिष्ठ । शरीरैः ॥ १०.१६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (चक्षुः सूर्यं गच्छतु-आत्मा वातं द्यां च पृथिवीं च धर्मणा गच्छ) नेत्रप्रकाश सूर्यप्रकाश को प्राप्त हो, जीवात्मा वायुमय अन्तरिक्ष को एवं पुनः प्रकाशयुक्त लोक को या पृथिवीलोक को अपने किये कर्म से प्राप्त हो (अपः-वा गच्छ यदि तत्र ते हितम्) जलमय लोक को जा, यदि तेरा वहाँ कर्मफल हो (शरीरैः-ओषधीषु प्रतितिष्ठ) शरीरधारणमात्र गुणों से ओषधियों में गमनाभावरूप स्थावरत्व जड़त्व को प्राप्त हो, यदि वहाँ तेरा कर्मफल हो ॥३॥

    भावार्थ

    देहपात के अनन्तर देह तो अपने-अपने कारण पदार्थों में लीन हो जाता है और जीव स्वकर्मानुसार प्रकाशमय, जलमय, पृथिवीमय लोकों तथा वृक्षादि की जड़योनियों तक प्राप्त होता है ॥३॥

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    विषय

    वृक्षों में जीव

    शब्दार्थ

    हे मृत जीव ! (चक्षुः सूर्य गच्छतु) तुम्हारा नेत्र सूर्य को प्राप्त करे । (आत्मा वातम्) प्राण, वायु को प्राप्त करे । तू (धर्मणा) अपने पुण्यफल के आधार पर (द्यां च गच्छ) द्युलोक को प्राप्त करे (च) अथवा (पृथिवीम्) पृथिवी पर जन्म धारण कर । (वा) अथवा (अप: गच्छ) जलों में, जलीय जीवों में शरीर धारण कर । (शरीरैः) शरीर के अवयवों द्वारा (ओषधीषु) ओषधियों, वनस्पतियों में (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठा प्राप्त कर (यदि ते तत्र हितम्) यदि उसमें तेरा हित हो ।

    भावार्थ

    मनुष्य का शरीर पञ्चभौतिक है । मरने पर शरीर के अंश पाँच भूतों में विलीन हो जाते हैं । आँख सूर्य-तत्व से बनी है, अतः सूर्य में मिल जाती है । प्राणश्वास, वायु में मिल जाता है। इसी प्रकार अन्य भूत भी अपने-अपने कारण में लीन हो जाते हैं । अपने पुण्यों के आधार पर जीव या तो द्युलोक में जन्म धारण करता है अथवा पृथिवीलोक में उत्पन्न होता है । अपने कर्मों के अनुसार वह जलीय जीवों में भी उत्पन्न होता है । यदि जीव का हित इस बात में हो कि वह वनस्पतियों की योनि को प्राप्त करे तो परमात्मा अपनी न्याय-व्यवस्था के अनुसार उसे वनस्पतियों में भेज देता है, वह वृक्ष को अपना शरीर बनाकर उसमें प्रतिष्ठित होता है । इस मन्त्र में ‘वृक्षों में जीव’ स्पष्ट सिद्ध है ।

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    विषय

    देवों के साथ लाड़ाई का न होना

    पदार्थ

    [१] कभी-कभी पिता पुत्र में भी संघर्ष हो जाता है, पुत्र अलग घर बना लेता है और उसका पितृगृह में आना जाना नहीं रहता । यहाँ 'सूर्य' पिता है तो शरीर में अक्षि में निवास करनेवाली चक्षु उसका पुत्र है। 'वात' पिता है, शरीरस्थ प्राण उसका पुत्र है। 'द्युलोक' पिता है, 'मस्तिष्क' पुत्र । 'पृथिवी' पिता है, 'शरीर' पुत्र। ' अन्तरिक्ष' पिता है, 'हृदय' पुत्र । इन से पिता पुत्रों का संघर्ष हो जाए तो सारा स्वास्थ्य ही समाप्त हो जाए । सो कहते हैं कि (चक्षुः) = तेरी आँख (सूर्यं गच्छतु) = सूर्य को जाये। सूर्य के यहां उसका आना-जाना बना रहे। सूर्य के साथ चक्षु का संघर्ष होते ही चक्षु विकृत हो जाती है, वैदिक संस्कृति में सूर्याभिमुख होकर ध्यान करने का विधान इस दृष्टिकोण से कितना महत्त्वपूर्ण है ? हम प्रभु का ध्यान करते हैं, और 'सूर्य' आँख को शक्ति देता है । [२] (आत्मा) = [ प्राणः सा० ] तेरा प्राण (वातम्) = वायु के प्रति जानेवाला हो। शुद्ध वायु में प्राणायाम के द्वारा कौन-सा दोष दूर नहीं किया जा सकता ? [३] इसी प्रकार (द्यां च गच्छ) = तू मस्तिष्क के दृष्टिकोण से द्युलोक को जा । तेरे मस्तिष्क व द्युलोक में अनुकूलता हो । द्युलोक के सूर्य व नक्षत्रों की तरह तेरे मस्तिष्क में भी ज्ञान-विज्ञान के सूर्य व नक्षत्र चमकें । [४] (पृथिवीं च) = तू शरीर से पृथिवी को जानेवाला बन । 'अखाड़े में लोटना-पोटना व शरीर पर भस्म रमाना' शारीरिक दोषों को दूर करता है । मट्टी की रोटी पेट पर रखने से ज्वर उतर जाता है। यही शरीर के विषों को खैंच लेती है । [५] (अपो वा गच्छ) = [आपः = अन्तरिक्ष] हृदय के दृष्टिकोण से तू अन्तरिक्ष को जानेवाला हो । जैसे 'अन्तरिक्ष' [अन्तरिक्ष] द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में है, इसी प्रकार तेरा हृदय सदा मध्यमार्ग का सेवन करनेवाला हो, वहाँ 'अकामता' न हो और 'कामात्मता' भी न हो जाए। [६] इस प्रकार सदा बना रहे । (धर्मणा) = शरीर के धारण के हेतु से यह आवश्यक है। जब देवों के साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तब शरीर का धारण न होकर शरीर भी गिर जाता है। सो (यदि) = यदि (तत्र) = वहां देवों में (ते हितम्) = तेरा स्थापन [ धा + क्त] होना है (शरीरैः) = इन स्थूल व सूक्ष्म शरीरों से तू (ओषधीषु प्रतितिष्ठा) = ओषधियों में प्रतिष्ठित हो । अर्थात् तू शरीरों के धारण के लिये ओषधियों, वानस्पतिक भोजनों का ही प्रयोग कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्य आदि देवों के साथ हमारी अनुकूलता बनी रहे । हम इसके लिये वानस्पतिक भोजनों का ही प्रयोग करें। देव वनस्पति का ही सेवन करते हैं।

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    विषय

    स्वस्थ रहने के लिये भिन्न २ इन्द्रियों का युक्त मार्ग में उपयोग।

    भावार्थ

    हे मनुष्य ! जीव ! (सूर्यं चक्षुः गच्छतु) आंख सूर्य के प्रकाश को प्राप्त करे। (आत्मा वातम्) आत्मा, यह प्राण या देह वायु को प्राप्त करे, शुद्ध वायु ग्रहण करे। तू (धर्मणा) धर्म, सामर्थ्य के अनुसार, (द्यां च गच्छ) आकाश और (पृथिवीं च) पृथिवी को वा माता और पिता को भी वा काम्य फल और देह को प्राप्त कर। (वा अपः गच्छ) वा तू कर्म, जलतत्व, आप्त जनों, प्राप्तव्य पदार्थों को भी प्राप्त कर। (यदि ते तत्र हितम्) यदि उनमें तेरा हितकारी अभिप्राय विद्यमान है तो तू (शरीरैः) शरीरों, उसके अंगों द्वारा (ओषधीषु) ओषधियों और अन्नों के आधार पर (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठा प्राप्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (चक्षुः सूर्यं गच्छतु-आत्मा वातं द्यां च पृथिवीं च धर्मणा गच्छ) चक्षुः-नेत्रं नेत्रप्रकाशः सूर्यम्-सूर्यप्रकाशं गच्छतु प्राप्नोतु, जीवो वातं जीवाधारं वायुं वाय्वालयं यमालयमन्तरिक्षं प्राप्नोतु। ‘एष वाय्वालय एव यमालयः’ “यमेन वायुना” इति प्रामाण्यात्। द्युलोकं प्रकाशयुक्तलोकं वा पृथिवीलोकं वा धर्मणा-स्वकृतकर्मणा गच्छ (अपः-वा गच्छ यदि तत्र ते हितम्) जलमयं लोकं वा गच्छ यदि तत्र-ते-तव हितं पथ्यं कर्मफलं स्यात् (शरीरैः-ओषधीषु प्रतितिष्ठ) शरीरधारणमात्रधर्मैरोषधीषु प्रतितिष्ठ गमनाभावेन स्थिरत्वं जडत्वं प्राप्नुहि यदि तत्र ते कर्मफलं स्यात् ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let the eye go the sun. Let the soul go to the wind or to the region of light or to the earth in consequence of its dharmic performance, or, if such be its interest and desire, let it go to the water or reach in herbs and trees there to stay in mere body form.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    देहपातानंतर देह आपापल्या कारण पदार्थात लीन होतो व जीव स्वकर्मानुसार प्रकाशमय, जलमय, पृथ्वीमय लोक व वृक्ष इत्यादींच्या जड योनीतही जातो. ॥३॥

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