ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 8
इ॒मम॑ग्ने चम॒सं मा वि जि॑ह्वरः प्रि॒यो दे॒वाना॑मु॒त सो॒म्याना॑म् । ए॒ष यश्च॑म॒सो दे॑व॒पान॒स्तस्मि॑न्दे॒वा अ॒मृता॑ मादयन्ते ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । अ॒ग्ने॒ । च॒म॒सम् । मा । वि । जि॒ह्व॒रः॒ । प्रि॒यः । दे॒वाना॑म् । उ॒त । सो॒म्याना॑म् । ए॒षः । यः । च॒म॒सः । दे॒व॒ऽपानः॑ । तस्मि॑न् । दे॒वाः । अ॒मृताः॑ । मा॒द॒य॒न्ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इममग्ने चमसं मा वि जिह्वरः प्रियो देवानामुत सोम्यानाम् । एष यश्चमसो देवपानस्तस्मिन्देवा अमृता मादयन्ते ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । अग्ने । चमसम् । मा । वि । जिह्वरः । प्रियः । देवानाम् । उत । सोम्यानाम् । एषः । यः । चमसः । देवऽपानः । तस्मिन् । देवाः । अमृताः । मादयन्ते ॥ १०.१६.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने-इमं चमसं मा विजिह्वरः) हे अग्ने ! इस घृत और सुगन्ध हव्य के चमस को जो कि तेरे अन्दर आहुतिरूप में डाला जाता है, उसको विचलित न कर अर्थात् उपयोगिता के लिये स्वीकार कर (देवानाम्-उत सोम्यानां प्रियः) वही यह चमस द्योतमान सूर्यरश्मियों और चन्द्रज्योत्स्नाधाराओं का प्रिय अर्थात् उपयोगी अनुकूल साधन हो (एषः-यः-चमसः-देवपानः-तस्मिन् देवाः-अमृताः-मादयन्ते) पूर्वोक्त यह चमस देवों के पान का साधन हो, क्योंकि देव इसकी हवि का पान करते हैं और इसी घृतहव्ययुक्त चमस में सूर्यरश्मियाँ अपने अमृतधर्म से विराजमान होकर मनुष्यों को आनन्द प्रदान करती हैं ॥८॥
भावार्थ
शवगन्ध के प्रतिकारार्थ अन्त्येष्टि कर्म के समय अग्नि में घृत और सुगन्ध पदार्थों की आहुतियाँ देनी चाहियें। वे आहुतियाँ शवदोष का सम्पर्क हटाकर सूर्य तथा चन्द्रमा की किरणों को अनुकूलता की साधक बनाती हैं, विशेषतः सूर्यरश्मियों को सुखकारक बनाती हैं ॥८॥
विषय
शरीर रूप चमस
पदार्थ
[१] प्रगतिशील जीव को 'अग्नि' कहते हैं। यह अग्नि अपने इस शरीर को चमस = सोमपात्र बनाता है। इस शरीररूप चमस में वह सोम-वीर्य को सुरक्षित रखता है। जैसे घृत पूर्ण चम्मच कुछ टेढ़ा हो जाए तो घृत के गिरने की आशंका हो जाती है, उसी प्रकार इस शरीररूप चमस के भी टेढ़े होने से, इसमें कुटिलता के आने से सोम का नाश हो जाता है। इसलिए मन्त्र में कहते हैं किं (अग्ने) = हे प्रगतिशील जीव ! (इमं चमसम्) = इस सोमपात्रभूत शरीर चमस को (मा विजिह्वर:) = तू कुटिल मत होने दे। यदि यहाँ कुटिल वृत्तियाँ पनप उठी तो सोम के रक्षण का सम्भव न रहेगा। [२] सोम के रक्षण से ही तो यह शरीर (देवानाम्) = देवताओं का बनता है (उत) = और यह शरीर (सोम्यानाम्) = सोम्य - शान्त-पुरुषों का होता है। अर्थात् सोम के सुरक्षित होने पर हम देववृत्ति वाले व सोम स्वभाव के होते हैं । दिव्यगुणों को विकसित करने का तथा सोम्यता के सम्पादन का उपाय यही है कि हम इस शरीर को चमस सोमपात्र बनाएँ। यह देवों व सोम्यों का चमस (प्रियः) = अत्यन्त प्रिय होता है, बड़ा प्यारा लगता है, कान्ति सम्पन्न होता है । [३] (एषः) = यह (यः) = जो (चमस:) = सोमपात्र बना हुआ शरीर है, जो कि (देवपान:) = देवों के सोमपान का स्थान बनता है [पिबन्ति अस्मिन् इति पान: ] (तस्मिन्) = उस शरीर में (देवाः) = देव लोग (अमृताः) = रोगरूप मृत्युओं से आक्रान्त न होते हुए तथा विषय-वासनाओं के पीछे न मरते हुए (मादयन्ते) = हर्षित होते हैं। इस शरीर में देव नीरोगता व निर्मलता के आनन्द का अनुभव करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - कुटिल वृत्तियों से ऊपर उठकर हम शरीर में सोमरक्षण के द्वारा इस शरीर को देवों व सोम्य पुरुषों का प्रिय शरीर बनायें। हम नीरोग व निर्मल वृत्ति के बनकर आनन्द का अनुभव करें।
विषय
गुरु का कर्त्तव्य सन्मार्ग में प्रवर्त्तन। विद्यादि के योग्य पात्र शिष्य का लक्षण।
भावार्थ
हे (अग्ने) तेजस्विन् ! अग्निवत् प्रकाश देने हारे ! तू (इमं चमसं) इस कृपापात्र जन को (मा विजिह्वरः) कभी विपरीत दिशा में कुटिल मत बनने दे। प्रत्युत वह (देवानाम् प्रियः) ज्ञान धनादि देने वालों को प्रिय और (सोम्यानाम् प्रियः) सोम, पुत्रवत् शिष्य के प्रिय माता पिता आदि को भी प्रिय हो। (यः) जो (चमसः) पात्र के समान विनीत होकर (एषः) वह (देवपानः) विद्वानों का पालक वा शुभ गुणों वा ज्ञान रसों का पान करने वाला है (तस्मिन्) उस पर समस्त (देवाः) विद्वान् (अमृताः) दीर्घायु जन (मादयन्ते) अति हर्षित होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने-इमं चमसं मा विजिह्वरः) हे अग्ने ! इमं घृतचमसं हव्यचमसञ्च यत् क्षिप्यते जनैरन्त्येष्टिकर्मणि त्वयि ज्वलति तं मा न विचालय नेतस्ततः प्रक्षिप (देवानाम्-उत सोम्यानां प्रियः) देवानां द्योतमानानां सूर्यरश्मीनाम् “देवो दानाद्वा……द्योतनाद्वा” [निरु०७।।१५] उदिता देवाः सूर्यस्य” इत्युक्तं च पूर्वम्। उत सोम्यानां सोमे चन्द्रमसि भवानां ज्योत्स्नावाचिनां शान्तानां चन्द्रदीधितीनां प्रियोऽनुकूल उपयोगसाधनमित्यर्थः। सोमश्चन्द्रमाः “सोमं मन्येत पपिवान्……सोमश्चन्द्रमाः” [निरु०११।४-५] (एषः यः-चमसः-देवपानः-तस्मिन् देवाः-अमृताः-मादयन्ते) एष यः पूर्वोक्तश्चमसो देवपानोऽस्ति यतो देवानां हविष्पानसाधनमस्मिंश्च घृतचमसे हव्यचमसे देवाः सूर्यरश्मयोऽमृता मृतं मरणं न येभ्यस्तेऽमृताः सन्तः “नञो जरमरमित्रमृताः” [अष्टा०६।२।११६] इत्यनेन बहुव्रीहिसमासे उत्तरपदमाद्युदात्तम्। मादयन्ते-हर्षयन्ति सुखयन्ति ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Agni, do not disturb and dislodge this new body form which is a darling of the divines and the sun rays of light and bliss, this body in which the immortal divinities rejoice and find their fulfilment with yajnic food and drink.
मराठी (1)
भावार्थ
शवगंधाच्या प्रतिकारार्थ अंत्येष्टी कर्माच्या वेळी अग्नीत घृत व सुगंध पदार्थांच्या आहुती दिल्या पाहिजेत. त्या आहुती शवदोषाचा संपर्क हटवून सूर्य व चंद्राच्या किरणांना अनुकूलतेचा साधक बनवितात. विशेषत: सूर्यरश्मींना सुखकारक बनवितात. ॥८॥
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