ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 12
उ॒शन्त॑स्त्वा॒ नि धी॑मह्यु॒शन्त॒: समि॑धीमहि । उ॒शन्नु॑श॒त आ व॑ह पि॒तॄन्ह॒विषे॒ अत्त॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒शन्तः॑ । त्वा॒ । नि । धी॒म॒हि॒ । उ॒शन्तः॑ । सम् । इ॒धी॒म॒हि॒ । उ॒शन् । उ॒श॒तः । आ । व॒ह॒ । पि॒तॄन् । ह॒विषे॑ । अत्त॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
उशन्तस्त्वा नि धीमह्युशन्त: समिधीमहि । उशन्नुशत आ वह पितॄन्हविषे अत्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठउशन्तः । त्वा । नि । धीमहि । उशन्तः । सम् । इधीमहि । उशन् । उशतः । आ । वह । पितॄन् । हविषे । अत्तवे ॥ १०.१६.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 12
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(उशन्तः-त्वा निधीमहि-उशन्तः-समिधीमहि ) हे अग्ने ! जिससे कि हम सदैव निज इष्ट की इच्छा करते हुए तुझको अन्त्येष्टिपर्यन्त सब संस्कारों में स्थापित करते हैं तथा इष्ट चाहते हुए ही प्रज्वलित करते हैं, (उशन्-उशतः पितॄन् हविषे-अत्तवे-आवह) इसलिये तू भी हमारा इष्ट चाहती हुई, अपने जैसे इष्ट चाहती हुई सूर्यरश्मियों को यज्ञ में प्रयुक्त कर, जिस से तेरे अन्दर डाली हवि सूक्ष्म बन कर फैल जावे ॥१२॥
भावार्थ
संस्कारों और मङ्गलकार्यों में अग्निहोम करना चाहिये ॥१२॥
विषय
उशन्= प्रभु प्राप्ति ही कामना वाला
पदार्थ
[१] हे हव्याद अग्ने ! (उशन्तः) = उस प्रभु प्राप्ति की कामना करते हुए हम (त्वा) = तुझे (निधीमहि) = अपने में स्थापित करते हैं वस्तुतः यदि हम हव्य पदार्थों का सेवन करेंगे तभी शुद्ध अन्त:करण वाले बनकर प्रभु के दर्शन को भी कर सकेंगे। [२] (उशन्तः) = उस प्रभु की कामना करते हुए हम (समिधीमहि) = तुझ हव्याद अग्नि को समिद्ध करते हैं । जाठराग्नि मन्द हो जाने पर भी सब शक्तियों का ह्रास हो जाता है और प्रभु दर्शन का प्रसंग नहीं रहता । निर्बल के लिये प्रभु दर्शन का सम्भव नहीं । सो यह स्पष्ट है कि हमें इस अन्तः स्थित वैश्वानर अग्नि में हव्य पदार्थों को ही डालना है, और उन्हें भी इस प्रकार मात्रा में ही प्रयुक्त करना है कि यह अग्नि बुझ ही न जाए। 'मात्रा बलम्' में तैत्तिरीय उपनिषद् के शब्द मात्रा के महत्त्व को उत्तमता से व्यक्त कर रहे हैं। [३] हे (उशन्) = हमारे हित की कामना करनेवाले अग्ने ! (उशतः) = प्रभु प्राप्ति की कामना वाले (पितॄन्) = पितरों को (हविषे अत्तवे) = हव्य पदार्थों को खाने के लिये (आवह) = समन्तात् प्राप्त करा । ये पितर सदा हव्य पदार्थों को ही स्वीकार करें। इन के ग्रहण से इन में दिव्यता का वर्धन होगा । इस दिव्यता के वर्धन से ये 'महादेव' को प्राप्त करने के योग्य बनेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपनी वैश्वानर अग्नि में हव्य पदार्थों को ही मात्रा में डालें। इस प्रकार समिद्ध होकर यह अग्नि हमें सशक्त बनायेगी और हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले होंगे।
विषय
गुरुजनों के प्रति अवरों का सेव्य भाव।
भावार्थ
हे विद्वन् ! हम (उशन्तः) तुझे चाहते हुए ही (त्वा नि धीमहि) तुझे स्थापित करते हैं और (उशन्तः) ज्ञानादि की कामना करते हुए ही (सम् इधीमहि) तुझे वा तुझ से तुझे प्रज्वलित करते हैं। हे ज्ञानवन् ! तू (उशन्) अग्निवत् प्रदीप्त और इच्छावान् होकर ही (उशतः पितॄन्) तुझे चाहने वाले माता, पिता, गुरुजनों को (हविषे अत्तवे) उत्तम अन्न भोजन कराने के लिये (आ वह) रथादि द्वारा प्राप्त करा और (आ वह) अपने कन्धों पर उनके भरण पोषण का भार वहन कर। अथवा, हे विद्वन् ! तू विद्यार्थियों को चाहता हुआ (उशतः पितृन् आ वह) विद्याभिलाषी व्रतपालकों को ग्राह्य ज्ञान प्राप्त कराने के लिये धारण कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(उशन्तः-त्वा निधीमहि-उशन्तः-समिधीमहि) हे-अग्ने ! यतो वयमिच्छन्तस्त्वां स्थापयेम तथा-इच्छन्त एव च सन्दीपयेम, तस्मात्त्वमपि (उशन्-उशतः पितॄन् हविषे-अत्तवे-आवह) अस्मदिष्टमिच्छन्-अस्मदिष्टमिच्छतः पितॄन् प्रति हविषे-हविरत्तवेऽत्तुं ग्रहीतुम् ‘तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः’। आवह-प्रयोजय ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
With love and passion we hold you at heart for thought and reflection. With love and faith we light you together and celebrate. You too with love and longing come and bring our loving seniors and blissful energies to receive our offerings and universally disperse them.
मराठी (1)
भावार्थ
संस्कारांमध्ये व मंगलकार्यांमध्ये अग्निहोम केला पाहिजे. ॥१२॥
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