ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
ऋषिः - दमनो यामायनः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यत्ते॑ कृ॒ष्णः श॑कु॒न आ॑तु॒तोद॑ पिपी॒लः स॒र्प उ॒त वा॒ श्वाप॑दः । अ॒ग्निष्टद्वि॒श्वाद॑ग॒दं कृ॑णोतु॒ सोम॑श्च॒ यो ब्रा॑ह्म॒णाँ आ॑वि॒वेश॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । कृ॒ष्णः । श॒कु॒नः । आ॒ऽतु॒तोद॑ । पि॒पी॒लः । स॒र्पः । उ॒त । वा॒ । श्वाप॑दः । अ॒ग्निः । तत् । वि॒श्व॒ऽअत् । अ॒ग॒दम् । कृ॒णो॒तु॒ । सोमः॑ । च॒ । यः । ब्रा॒ह्म॒णान् । आ॒ऽवि॒वेश॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते कृष्णः शकुन आतुतोद पिपीलः सर्प उत वा श्वापदः । अग्निष्टद्विश्वादगदं कृणोतु सोमश्च यो ब्राह्मणाँ आविवेश ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । कृष्णः । शकुनः । आऽतुतोद । पिपीलः । सर्पः । उत । वा । श्वापदः । अग्निः । तत् । विश्वऽअत् । अगदम् । कृणोतु । सोमः । च । यः । ब्राह्मणान् । आऽविवेश ॥ १०.१६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्-ते कृष्णः शकुनः पिपीलः सर्पः-उत वा श्वापदः-आतुतोद) हे जीव ! इस सांसारिक जीवनयात्रा में गृध्र आदि पक्षी, पिपीलिका आदि कृमि, सर्पादि विषमय प्राणी अथवा व्याघ्रादि हिंसक पशु जिस-जिस अङ्ग को पीड़ित वा विकृत करते हैं, (विश्वात्-अग्निः-तत्-अगदं कृणोतु सोमः-च यः-ब्राह्मणान्-आविवेश) उस-उस अङ्ग को विश्वभक्षक अग्नि और ब्रह्मवेत्ताओं को प्राप्त हुआ सोम स्वस्थ कर देता है ॥६॥
भावार्थ
अग्नि और सोम विश्वभैषज और सर्वभयनिवारक पदार्थ हैं। यह एक आयुर्वेदिक और रक्षाविज्ञान का सिद्धान्त वर्णित है। मनुष्य-जीवन में भयानक पक्षी, कृमि, सर्प और व्याघ्रादि प्राणियों से प्राप्त भय और पीड़ा का निवारण अग्नि और सोम से करना चाहिये। तथा उक्त जन्तुओं से आक्रमित मरे हुये मनुष्य का अग्नि सोम द्वारा शवदहन करने से रोगसंक्रामक कारणों का प्रतिकार हो जाता है, क्योंकि ऐसा किये बिना अन्य प्राणी उनके विषसम्पर्क आदि से बच न सकेंगे ॥६॥
विषय
अग्नि व सोम द्वारा चिकित्सा [विष-प्रतीकार]
पदार्थ
[१] यहाँ नगरों में रहते हुए हम अनुभव करते हैं कि कुत्ते के काटने से कितने ही व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार वानप्रस्थ में, जहाँ कि मकानों व पलंगों का स्थान कुटिया व भूमि ही ले लेती है, कृमि कीट के दंश की अधिक आशंका हो सकती है। सो कहते हैं कि (यत्) = जब (कृष्णः शकुनः) = यह काला पक्षी कौआ अथवा द्रोणकाक [= काकोल] (ते) = तुझे (आतुतोद) = पीड़ित करता है, (पिपीलः) = कीड़ा-मकोड़ा तुझे काट खाता है, (सर्प:) = साँप डस लेता है, (उत वा) = अथवा (श्वापदः) = कोई (हिंस्र) = पशु तुझे घायल कर देता है, (तत्) = तो (विष्वात्) = [विश्व + अद्] सब विष आदि को भस्म कर देनेवाली (अग्निः) = आग (अगदं कृणोतु) = तुझे नीरोग करनेवाली हो। सर्पादि के दंश के होने पर उस विषाक्त स्थल को अग्नि के प्रयोग से जलाकर विष प्रभाव को समाप्त करना अभीष्ट हो सकता है। विद्युत् चिकित्सा में कुछ इसी प्रकार का प्रभाव डाला जाता है। [२] यह अग्नि प्रयोग तभी सफल हो पाता है यदि शरीर में रोग से संघर्ष करनेवाली वर्च:शक्ति [vitality] ठीक रूप में हो। इस वर्चस् शक्ति के न होने पर बाह्य उपचार असफल ही रहते हैं। इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि (सोमः च) = यह सोम भी, वीर्यशक्ति भी तुझे नीरोग करे, (यः) = जो सोमशक्ति (ब्राह्मणान्) = ज्ञानी पुरुषों में (आविवेश) = प्रवेश करती है। ज्ञानी लोग सोम के महत्त्व को समझकर उसे सुरक्षित रखने के लिये पूर्ण प्रयत्न कहते हैं। नासमझी में ही इस सोम का अपव्यय हुआ करता है। शरीरस्थ यह सोम ही वस्तुतः सब विकारों के साथ संघर्ष करता है और उन्हें दूर करनेवाला होता है। औषधोपचारों का स्थान गौण है, वे इसके सहायक मात्र होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- पक्षी, कृमि, कीट, सर्प, हिंस्र पशुओं से उत्पन्न किये गये विकारों को अग्नि के प्रयोग से तथा शरीर में सोम के संरक्षण से हम दूर करनेवाले हों ।
विषय
विषैले कीट, पतङ्गादि के दंशों से निवृत्ति और रोगनाश का उपदेश।
भावार्थ
(यत्) जब (ते) तुझे (कृष्णः) काला वा काटने वाला (शकुनः) पक्षी वा शक्तिशाली वा दुःखदायी जन्तु, वृश्चिक आदि (आ तुतोद) खूब व्यथित करे (पिपीलः) कीड़ा, मकोड़ा काटे वा (सर्पः) सांप जाति का जन्तु काटे (उत वा श्वा-पदः) वा कुत्ते के समान पंजे वाला, कुत्ता, गीदड़, बिल्ली, बिल्ला, सिंह व्याघ्र आदि काटे, (तत्) उसको (अग्निः) अग्नि वा ज्ञानवान् पुरुष (विश्वात्) सब प्रकार से (अगदं कृणोतु) पीड़ारहित करे। (सोमः च) और जो ओषधि-विज्ञ पुरुष (ब्राह्मणान् आ विवेश) वेदज्ञ विद्वान् को प्राप्त है वह भी उसको नीरोग करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्-ते कृष्णः-शकुनः पिपीलः-सर्पः-उत वा श्वापदः-आतुतोद) बहुविज्ञानोऽयं मन्त्रस्तत्रेह प्रथमः प्रकारः। हे जीव ! अत्र सांसारिकजीवनयात्रायां कृष्णः शकुनो गृध्रः पिपीलः पिपीलिका सर्प उत वा श्वापदो हिंस्रपशुस्ते यदङ्गमातुतोद-आतुदति पीडयति। सामान्ये काले लिट् [अष्टा०३।४।६] (विश्वात्-अग्निः तत्-अगदं कृणोतु सोमः-च यः ब्राह्मणान्-आविवेश) सर्वभक्षकोऽग्निस्तदङ्गमगदं करोतु-करोति सोमरसो यो ब्राह्मणान् ब्रह्मविदो योगिनो जनान्-आविशति प्राप्नोति। ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः। तथा च-“येन केनचिदाछन्नो येन केन चिदाशितः। यत्र क्वचन शायी च तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥ विमुक्तं सर्वसङ्गेभ्यो मुनिमाकाशवत्स्थितम्। अस्वमेकचरं शान्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः” [महाभारते] ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O soul, in the course of life, whatever fear, harm or injury darkness, dark ones, birds, beasts, insects or reptiles may do to your body, may Agni and Soma and Soma science known to experts heal that and restore you back to good health.
मराठी (1)
भावार्थ
अग्नी व सोम विश्वभैषज व सर्वभयनिवारक पदार्थ आहेत. हा एक आयुर्वेदिक व रक्षणविज्ञानाचा सिद्धान्त आहे. माणसाच्या जीवनात भयानक पक्षी, कृमी, सर्प व व्याघ्र इत्यादी प्राण्यांपासून प्राप्त झालेले भय व कष्ट निवारण, अग्नी व सोमद्वारे केले पाहिजे व वरील जंतूंनी आक्रमित मेलेल्या माणसाचे अग्नी व सोमद्वारे शवदहन करण्याने रोगसंक्रामक कारणांचा प्रतिकार होतो. कारण असे केल्याशिवाय इतर प्राणी त्यांच्या विषसंपर्क इत्यादीने वाचू शकत नाहीत. ॥६॥
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