ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 9
ऋषिः - दमनो यामायनः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
क्र॒व्याद॑म॒ग्निं प्र हि॑णोमि दू॒रं य॒मरा॑ज्ञो गच्छतु रिप्रवा॒हः । इ॒हैवायमित॑रो जा॒तवे॑दा दे॒वेभ्यो॑ ह॒व्यं व॑हतु प्रजा॒नन् ॥
स्वर सहित पद पाठक्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒ग्निम् । प्र । हि॒णो॒मि॒ । दू॒रम् । य॒मऽरा॑ज्ञः । ग॒च्छ॒तु॒ । रि॒प्र॒ऽवा॒हः । इ॒ह । ए॒व । अ॒यम् । इत॑रः । जा॒तऽवे॑दाः । दे॒वेभ्यः॑ । ह॒व्यम् । व॒ह॒तु॒ । प्र॒ऽजा॒नन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रव्यादमग्निं प्र हिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः । इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् ॥
स्वर रहित पद पाठक्रव्यऽअदम् । अग्निम् । प्र । हिणोमि । दूरम् । यमऽराज्ञः । गच्छतु । रिप्रऽवाहः । इह । एव । अयम् । इतरः । जातऽवेदाः । देवेभ्यः । हव्यम् । वहतु । प्रऽजानन् ॥ १०.१६.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(क्रव्यादम्-अग्नि दूरं प्रहिणोमि) शवरूप मांस-भक्षक अग्नि को सुगन्ध आहुतिचमस द्वारा दूर हटाता हूँ (रिप्रवाहः-यमराज्ञः-गच्छतु) वह शववाहक अग्नि पृथिवीतल से ऊपर उठकर विनाप्रदेशों को जहाँ कि प्रत्येक वस्तु विछिन्न अतिसूक्ष्म होकर लीन हो जाती है, उन अन्तरिक्षस्थानों को प्राप्त हो (अयम्-इतरः-जातवेदाः प्रजानन् देवेभ्यः-हव्यं वहतु) चमसाहुतियों द्वारा हव्यवाहक यह प्रसिद्धाग्नि जलती हुई दिव्य पदार्थों के लिये जीवनलाभ के हेतु इस चमसरूप हव्य का वहन करे ॥९॥
भावार्थ
घृत और सुगन्ध कपूर आदि वस्तुओं की आहुति से शवदुर्गन्धवाहक अग्निज्वालाओं की शान्ति हो जाती है और सुगन्धित हव्यप्रसारक अग्निज्वालाओं का उदय होता है ॥९॥
विषय
क्रव्याद अग्नि का निर्वासन
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार शरीर को प्रिय व अमृत बनाने के लिये आवश्यक है कि हम आग्नेय भोजनों को न करके सोम्य भोजनों के ही करनेवाले हों । तामस भोजन को अपने जीवन में स्थान न देकर वानस्पतिक भोजनों के ही करनेवाले बनें । इसी भाव को वेद की काव्यमय भाषा में इस प्रकार कहा गया है कि ('क्रव्यादम्') = मांस को खानेवाली (अग्निम्) = अग्नि को (दूरं प्रहिणोमि) = मैं दूर भेजता हूँ। हमारी जाठराग्नि में कभी भी मांस की आहुति न दी जाए। मांस 'हव्य' पदार्थ नहीं है । [२] यह क्रव्याद अग्नि तो (यमराज्ञः) = यमराजा का है, अर्थात् इस क्रव्याद अग्नि का सम्बन्ध मृत्यु की देवता से है। यह मांस भोजन मृत्यु का, रोगों का कारण बनता है। (रिप्रवाह:) = दोषों का दहन करनेवाला यह क्रव्याद अनि (गच्छतु) = हमारे से सुदूर प्रदेशों में जाये। हमारे से मांस भोजन दूर ही रहे । [३] (इतर:) = मांस भोजन से भिन्न वानस्पतिक भोजनों वाला (अयम्) = यह (जातवेदाः) = उत्पन्न प्रज्ञानों वाला अग्नि (एव) = ही (इह) = यहाँ हमारे जीवनों में हो। हम सदा सात्त्विक वानस्पतिक भोजनों को ही करनेवाले हों। यह भोजन ही हमें आहार शुद्धि के द्वारा सत्त्व-शुद्धि वाला बनायेगा । हमारे शुद्ध अन्तःकरणों में ज्ञान का प्रकाश होगा। [४] इसलिए (प्रजानन्) = एक समझदार पुरुष (देवेभ्यः) = दिव्यगुणों की उत्पत्ति के लिए (हव्यं वहतु) = हव्य पदार्थों को ही इस जाठराग्नि में प्राप्त करानेवाला हो। हम कभी भी मांस को भोजन न बनायें, यह अयज्ञिय है, हव्य नहीं है। मांस भोजन से क्रूरता व स्वार्थ आदि की भावनाओं का ही विकास होता है नकि दिव्यभावों का । दिव्यभावनाओं की उत्पत्ति के लिये हव्य पदार्थ ही हितकर हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम मांस को सर्वथा छोड़कर यज्ञिय पवित्र वानस्पतिक भोजनों के ही करनेवाले बनें। मांस भोजन दोषों को पैदा करता है, हव्य पदार्थों का भक्षण सत्त्व- -शुद्धि द्वारा ज्ञान व दिव्यगुणों की वृद्धि करनेवाला है ।
विषय
गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा पाप, अज्ञान आदि का दूर करना।
भावार्थ
उक्त प्रकार के गुरु शिष्य की व्यवस्था के द्वारा, मैं (क्रव्यादम्) मांस के खाने वाले (अग्निं) संतापदायक दुष्ट जन्तु वा मृत्यु को भी (दूरं प्र हिणोमि) दूर करने में समर्थ होऊं। और (रिप्र-वाहः) पाप को धारने वाले पुरुष (यम- राज्ञः गच्छतु) नियन्ता राजा के पुरुषों के हाथों जावे। (इतरः) और उससे अन्य निष्पाप जन (जात-वेदाः) विद्यावान् और धनसंपन्न होकर (प्र-जानन्) भली प्रकार ज्ञान प्राप्त करता हुआ, (इह एव) यहां, इस आश्रम में ही, (देवेभ्यः हव्यं वहतु) ज्ञान धन आदि के दाता विद्वानों को अन्न आदि प्रदान करे। वह गुरु (देवेभ्यः) विद्या के अभिलाषी अन्नों को (हव्यं) ग्राह्य ज्ञान आदि प्रदान करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(क्रव्यादम् अग्निं दूरं प्रहिणोमि) शवरूप-मांसभक्षकमग्निं पूर्वमन्त्रोक्तचमसाहुतिभिर्दूरमतिदूरं प्रहिणोमि प्रेरयामि प्रक्षिपामि (रिप्रवाहः-यमराज्ञः-गच्छतु) रिप्रवाहः-शवरुपामेध्यवाहकोऽग्निः “तद्यदमेध्यं रिप्रं तत्” [श०३।१।२।११] यमराज्ञो यमो यमनशीलः कालोऽन्तकारी कालो मृत्यू राजा येषां तान् मृत्युराजकदेशान् गच्छतु-गच्छति, यतो हि मृतः प्राणी मृत्युदेशान् विनाशप्रदेशान् गच्छति तस्मात्तं शीघ्रं विनाशप्रदेशान् नेतुं शववाहनोऽग्निरपि तान् प्रदेशान् शीघ्रं गच्छतीत्युक्तम् (अयम्-इतरः जातवेदाः-प्रजानन् देवेभ्यः-हव्यं वहत्) अयं चमसाहुतिलक्षितो जातवेदा अग्निर्ज्वलन् सन् दिव्यपदार्थेभ्यो जीवनलाभायैतच्चमसप्रक्षिप्तं हव्यं प्रापयतु ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I set in motion the fire which consumes the corpse, and may it, carrier of the material body, go up with it and reach the regions of life consuming spirit of Time. And here itself the other fire, Jataveda, all pervasive fire of life, all aware, may bring in the food for life for the sustenance and satisfaction of the divinities.
मराठी (1)
भावार्थ
घृत व सुगंधी कापूर इत्यादी वस्तूंच्या आहुतीने शव दुर्गंधवाहक अग्निज्वालांची शांती होते व सुगंधित हव्य प्रसारक अग्निज्वालांचा उदय होतो. ॥९॥
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