ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
ऋषिः - सङ्कुसुको यामायनः
देवता - त्वष्टा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ रो॑ह॒तायु॑र्ज॒रसं॑ वृणा॒ना अ॑नुपू॒र्वं यत॑माना॒ यति॒ ष्ठ । इ॒ह त्वष्टा॑ सु॒जनि॑मा स॒जोषा॑ दी॒र्घमायु॑: करति जी॒वसे॑ वः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । र॒ह॒त॒ । आयुः॑ । ज॒रस॑म् । वृ॒णा॒नाः । अ॒नु॒ऽपू॒र्वम् । यत॑मानाः । यति॑ । स्थ । इ॒ह । त्वष्टा॑ । सु॒ऽजनि॑मा । स॒ऽजोषाः॑ । दी॒र्घम् । आयुः॑ । क॒र॒ति॒ । जी॒वसे॑ । वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोहतायुर्जरसं वृणाना अनुपूर्वं यतमाना यति ष्ठ । इह त्वष्टा सुजनिमा सजोषा दीर्घमायु: करति जीवसे वः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रहत । आयुः । जरसम् । वृणानाः । अनुऽपूर्वम् । यतमानाः । यति । स्थ । इह । त्वष्टा । सुऽजनिमा । सऽजोषाः । दीर्घम् । आयुः । करति । जीवसे । वः ॥ १०.१८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 18; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यति) जितने (स्थ) तुम मुमुक्षु हो, सब ही (जरसं वृणानाः) जरावस्था को वरते हुए अर्थात् जरावस्था तक पहुँचते हुए (अनुपूर्वं यतमानाः) पूर्व मुमुक्षुजनों की सरणि के अनुसार आचरण करते हुए (आयुः-आरोहत) जीवन-सोपान पर चढ़ो (इह) इस मोक्षकर्म में (सुजनिमा) शोभन जन्म जिससे होता है, जिसकी उपासना से (सजोषाः) समान प्रीति करनेवाले अर्थात् जितनी प्रीति उपासक करते हैं, उतनी प्रीति परमात्मा भी करता है, ऐसा परमात्मा (त्वष्टा) जगत् का रचयिता जीवात्माओं के कर्मानुरूप फलसम्पादन करनेवाला है (वः-जीवसे) तुम्हारे जीवन के लिए (दीर्घम्-आयुः करति) दीर्घ मोक्षविषयक आयु करता है, देता है ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा सभी मुमुक्षु आत्माओं को जरा अवस्था तक पहुँचाता है, जबकि वे मुमुक्षुओं की सरणि के अनुसार आचरण करते हों। जितनी प्रीति मुमुक्षु परमात्मा से करते हैं, परमात्मा भी उनसे उतनी ही प्रीति करता है और उन्हें दीर्घायु प्रदान करता है ॥६॥
विषय
निरन्तर उद्योगशील
पदार्थ
[१] एक घर में रहने वालों को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि (यतिष्ठ) = आप जितने भी हो वे (अनुपूर्वं) = क्रमशः (यतमानाः) = गृह की स्थिति को उत्तम बनाने के लिये निरन्तर प्रयत्न करते हुए (आयुः आरोहत) = आयु में आगे और आगे बढ़नेवाले होवो । (जरसं वृणाना:) = आप जरावस्था का वरण करनेवाले बनो। यौवन में ही आपका जीवन समाप्त न हो जाए। पिता के बाद पुत्र आता है । पिता ने जैसे घर को अच्छा बनाने का यत्न किया था । पुत्र ने उस गृह स्थिति में और उन्नति के लिये प्रयत्न करना है। पिता अपना कार्य करके चला जाता है, अब पुत्र ने भी अपने कार्य को यथाशक्ति सम्पन्न करते हुए जीवन में आगे बढ़ना है। घर में यह आना और जाना अनुपूर्व बना रहे । कभी पिता के सामने पुत्र की मृत्यु न हो। [२] (इह) = यहाँ संसार में (सुजनिमा) = उत्तम जन्मों को देनेवाला (सजोषाः) = सदा हमारे साथ हृदयों में प्रीतिपूर्वक निवास करनेवाला (त्वष्टा) = वह निर्माता देव ! (जीवसे) = उत्तम जीवन के लिये (वः) = आप सब की (दीर्घम् आयुः) = दीर्घ आयु को (करति) = करते हैं। प्रभु कृपा से हमारा जीवन उत्तम बनता है, विशेषकर तब जब कि हम उस प्रभु को अपने साथ संगत अनुभव करते हैं। |
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने घरों में सदा उत्तम स्थिति के लिये प्रयत्न करते हुए, आगे बढ़ें। प्रभु से संगत हुए हुए जीवन को उत्तम बनाएँ ।
विषय
जीवन की नसैनी
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग (अनु-पूर्वं) पूर्व विद्यमान वृद्ध जनों के अनुकूल (यतमानाः) सन्मार्ग में यत्नवान् होते हुए (यति स्थ) जितने भी हो जाओ वे सब (जरसं वृणानाः) वार्धक्य को प्राप्त होते हुए (आयुः आरोहत) जीवन की नसैनी पर चढ़ो। (इह) इस लोक में (त्वष्टा) तेजस्वी, सब जगत् का विधाता प्रभु, सूर्य (स-जोषाः) समान प्रीतियुक्त होकर (वः सु-जनिमा) आप लोगों की उत्तम उत्पत्ति और रूप, और (जीवसे) जीने के लिये (दीर्घम् आयुः) दीर्घ आयु (करति) करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सङ्कुसुको यामायन ऋषिः॥ देवताः–१–मृत्युः ५ धाता। ३ त्वष्टा। ७—१३ पितृमेधः प्रजापतिर्वा॥ छन्द:- १, ५, ७–९ निचृत् त्रिष्टुप्। २—४, ६, १२, १३ त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् पंक्तिः। १४ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यति) यावन्तः ‘यत् शब्दात् डतिप्रत्ययश्छान्दसः (स्थ) यूयं मुमुक्षवः-भवथ सर्वे खल्वपि (जरसं वृणानाः) जरावस्थां वृण्वन्तः (अनुपूर्वं यतमानाः) पूर्वेषां मुमुक्षूणां सरणिमनु तेषामिवाचरणं कुर्वन्तः (आयुः-आरोहत) जीवनसोपानमुपरि गच्छत (इह) अस्मिन् मोक्षार्थकर्मणि (सुजनिमा) शोभनं जन्म यस्मात् भवति यस्योपासनेन जायते सः (सजोषाः) समानं प्रीतिकराः, यावतीं प्रीतिमुपासकाः कुर्वन्ति तावतीं प्रीतिं सोऽपि करोति तथाभूतः (त्वष्टा) विश्वस्य जगतो रचयिता जीवात्मनां कर्मानुरूपं फलं सम्पादयिता परमात्मा (वः जीवसे) युष्माकं जीवनाय (दीर्घम्-आयुः करति) दीर्घं मोक्षविषयकमायुर्जीवनं करोति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Go forward high on course of life choosing a full age unto completion and fulfilment in the order of succession and renewal from former to latter, living in discipline actively, all of you, as many as you are. Nobly born here in life, living together in piety with love and devotion as you are, Tvashta, the cosmic maker, ordains a full life of long years for you to live in joy.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सर्व मुमुक्षू आत्म्यांना जरावस्थेपर्यंत पोचवितो. जर ते मुमुक्षूंच्या मार्गानुसार आचरण करत असतील तर जेवढे प्रेम मुमुक्षू परमेश्वरावर करतात तेवढेच परमेश्वरही त्यांच्यावर करतो व त्यांना दीर्घायू प्रदान करतो. ॥६॥
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