ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 18/ मन्त्र 9
ऋषिः - सङ्कुसुको यामायनः
देवता - पितृमेधः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
धनु॒र्हस्ता॑दा॒ददा॑नो मृ॒तस्या॒स्मे क्ष॒त्राय॒ वर्च॑से॒ बला॑य । अत्रै॒व त्वमि॒ह व॒यं सु॒वीरा॒ विश्वा॒: स्पृधो॑ अ॒भिमा॑तीर्जयेम ॥
स्वर सहित पद पाठधनुः॑ । हस्ता॑त् । आ॒ऽददा॑नः । मृ॒तस्य॑ । अ॒स्मे इति॑ । क्ष॒त्राय॑ । वर्च॑से । बला॑य । अत्र॑ । ए॒व । त्वम् । इ॒ह । व॒यम् । सु॒ऽवीराः॑ । विश्वाः॑ । स्पृधः॑ । अ॒भिऽमा॑तीः । ज॒ये॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धनुर्हस्तादाददानो मृतस्यास्मे क्षत्राय वर्चसे बलाय । अत्रैव त्वमिह वयं सुवीरा विश्वा: स्पृधो अभिमातीर्जयेम ॥
स्वर रहित पद पाठधनुः । हस्तात् । आऽददानः । मृतस्य । अस्मे इति । क्षत्राय । वर्चसे । बलाय । अत्र । एव । त्वम् । इह । वयम् । सुऽवीराः । विश्वाः । स्पृधः । अभिऽमातीः । जयेम ॥ १०.१८.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 18; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मृतस्य हस्तात्-धनुः-आददानः) मृत राजा-शासक के हाथ से शस्त्र-राज्यशासन को ग्रहण करता हुआ उसका उत्तराधिकारी (अस्मे क्षत्राय वर्चसे बलाय) हमारे राष्ट्रबल, राष्ट्रवर्धन-राष्ट्रपोषण, ज्ञानबल और शरीरबल के लिए (त्वम्) हे उत्तराधिकारी ! तू (अन्न-एव-इह) इस राष्ट्र में ही या इस राजस्थान-राजपद पर ही राजमान हो (वयं सुवीराः-विश्वाः स्पृधः-अभिमातीः जयेम) हम सैनिक पूर्णवीर सारी अभिमत्त शत्रुसेनाओं को जीतें-जीतते हैं ॥९॥
भावार्थ
पूर्व शासक के उसके शासनकाल का समय हो जाने पर उत्तराधिकारी उसके शस्त्र और शासन को हाथ में संभाल ले और क्षात्रधर्म, राष्ट्रवृद्धि और शरीरबल के लिए राज्यशासन पद पर विराजमान होकर अपने सैनिकों को ऐसा बनाये, जिससे वे विरोधी अभिमानी शत्रुसेनाओं को जीत लें ॥९॥
विषय
सन्तानों का माता के प्रति कथन [पति के हाथ से धनुष को लेना]
पदार्थ
[१] सन्तान माता से कहते हैं कि (मृतस्य हस्तात्) = मृत के हाथ से (धनुः आददाना उ) = निश्चय से धनुष को ग्रहण करती हुई, (अस्मे) = हमारे (क्षत्राय) = क्षतों से त्राण के लिये, (वर्चसे) = रोगों से संघर्ष करनेवाली व वीर्यशक्ति के लिये, (बलाय) = शत्रुओं से मुकाबिला कर सकनेवाली शारीरिक ताकत के लिये, (अत्र एव) = यहाँ इस लोक में ही, (इह) = इस घर में ही (त्वम्) = तू यत्नशील हो । वस्तुतः माता के अभाव में तो बालक निश्चित रूप से अनाथ हो ही जाएँगे। सो माता को चाहिए कि जिस जीवन संग्राम को वह बच्चों के पिता के साथ मिलकर उत्तमता से चला रही थी, अब बच्चों के पिता श्री के चले जाने पर, उस संग्राम को वह स्वयं अकेली चलाने के लिये तैयारी करे। इसी भावना को यहाँ मन्त्र में 'उनके हाथ से धनुष को लेती हुई' इन शब्दों में कहा गया है। जीवन सचमुच एक संग्राम है। 'इसे उत्तमता से लड़ना, इसमें न घबराना' यह बच्चों की माता का अब मुख्य कर्तव्य हो जाता है। [२] माता ने अपना कर्तव्य ठीक निभाया तो सन्तानों की यह कामना अवश्य पूर्ण होगी कि (वयम्) = हम (सुवीराः) = उत्तम वीर बनकर (विश्वाः) = सब (स्पृधाः) = स्पर्धा करनेवाले (अभिमाती:) = शत्रुओं को जयेम जीत लें। शत्रुओं के विजय करनेवाले सन्तान जहाँ संसार में वास्तविक उन्नति कर पाते हैं, वहाँ वे उन्नत सन्तान अपनी माता की प्रसन्नता का कारण बनते हैं और अपने पिता जी के नाम को उज्वल करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ-जीवन-संग्राम को लड़ने के लिये, पिता की मृत्यु पर, माता धनुष को अपने हाथ में ले और अपने सन्तानों के जीवन को क्षत्र वर्चस् व बल से युक्त करके उन्हें शत्रुओं का विजेता बनाये ।
विषय
उत्तराधिकारी भी पूर्वजों के समान विजयी हों। उत्तराधिकार के चिन्ह राजदण्ड के समान ‘धनुष्’ है।
भावार्थ
(मृतस्य हस्तात्) मृत पुरुष के हाथ से (धनुः आददानः) धनुष अर्थात् अधिकार ग्रहण करता हुआ, हे अगले अधिकारवान् पुत्र ! तू (अस्मे) हमारे (क्षत्राय) क्षत्र, वीर्य, (वर्चसे) तेज और (बलाय) बल की वृद्धि के लिये (त्वं अत्र एव) तू यहां ही स्थिर रह। जिससे (इह) इस राष्ट्र में (वयं) हम (सु-वीराः) उत्तम वीर, पुत्र वाले होकर (विश्वाः अभिमातीः स्पृधः जयेम) सब अभिमान युक्त शत्रु सेनाओं पर विजय प्राप्त करें।
टिप्पणी
इस मंत्र में ‘धनुष’ यह राजदण्ड के समान अधिकार का उपलक्षण है। मृत पुरुष की स्त्री तो जीवित सन्तान की फिक्र करें और पुत्रादि नवाधिकारी उसके गृहादि का अधिकार प्राप्त करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सङ्कुसुको यामायन ऋषिः॥ देवताः–१–मृत्युः ५ धाता। ३ त्वष्टा। ७—१३ पितृमेधः प्रजापतिर्वा॥ छन्द:- १, ५, ७–९ निचृत् त्रिष्टुप्। २—४, ६, १२, १३ त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् पंक्तिः। १४ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मृतस्य हस्तात्-धनुः-आददानः) मृतस्य राज्ञः शासकस्य हस्तात् खलु धनुः शस्त्रं राज्यशासनं गृह्णन् तत्पुत्रस्तदन्वधिकारप्राप्त उत्तराधिकारी (अस्मे क्षत्राय वर्चसे बलाय) अस्माकं राष्ट्रबलाय राष्ट्रपोषणाय, ज्ञानबलाय, शरीरबलाय च (त्वम्) हे उत्तराधिकारिन् ! त्वम् (अन्न-एव-इह) अत्र राष्ट्रे हि खल्वस्मिन् राज्यासने राजपदे विराजस्वेत्यर्थः (वयं सुवीराः-विश्वाः स्पृधः-अभिमातीः-जयेम) वयं सैनिकाः पूर्णवीराः सर्वाः-अभिमत्ता विरोधिन्यः शत्रुसेनाः-जयेम ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Taking the arms from the hand of the dead warrior for the sake of our social order and its strength and glory, here itself and now, you and we all blest with brave heroes shall overcome all our rivals and enemies of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
पूर्व शासकाचा शासनकाल संपल्यावर उत्तराधिकाऱ्याने त्याचे शस्त्र व शासन सांभाळावे व क्षात्रधर्म, राष्ट्रवृद्धी व शरीरबलासाठी राज्यशासन पदावर विराजमान होऊन आपल्या सैनिकांना असे बनवावे, की ज्यामुळे त्यांनी विरोधी शत्रूसेनेला जिंकावे. ॥९॥
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