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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
    ऋषिः - लुशो धानाकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिग्जगती स्वरः - निषादः

    दि॒वस्पृ॑थि॒व्योरव॒ आ वृ॑णीमहे मा॒तॄन्त्सिन्धू॒न्पर्व॑ताञ्छर्य॒णाव॑तः । अ॒ना॒गा॒स्त्वं सूर्य॑मु॒षास॑मीमहे भ॒द्रं सोम॑: सुवा॒नो अ॒द्या कृ॑णोतु नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वःपृ॑थि॒व्योः । अवः॑ । आ । वृ॒णी॒म॒हे॒ । मा॒तॄन् । सिन्धू॑न् । पर्व॑तान् । श॒र्य॒णाऽव॑तः । अ॒ना॒गाः॒ऽत्वम् । सूर्य॑म् । उ॒षस॑म् । ई॒म॒हे॒ । भ॒द्रम् । सोमः॑ । सु॒वा॒नः । अ॒द्य । कृ॒णो॒तु॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवस्पृथिव्योरव आ वृणीमहे मातॄन्त्सिन्धून्पर्वताञ्छर्यणावतः । अनागास्त्वं सूर्यमुषासमीमहे भद्रं सोम: सुवानो अद्या कृणोतु नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवःपृथिव्योः । अवः । आ । वृणीमहे । मातॄन् । सिन्धून् । पर्वतान् । शर्यणाऽवतः । अनागाःऽत्वम् । सूर्यम् । उषसम् । ईमहे । भद्रम् । सोमः । सुवानः । अद्य । कृणोतु । नः ॥ १०.३५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 35; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (दिवः-पृथिव्योः) द्युलोक पृथिवीलोक के तथा ज्ञानदाता अन्नदाता के (अवः-आ वृणीमहे) रक्षण को हम चाहते हैं (सिन्धून्-मातॄन् शर्यणावतः पर्वतान्) ओषधि-वनस्पतियों का निर्माणकर्ता स्यन्दमान-बहते हुए जलाशयों, अन्तरिक्षवाले मेघों को तथा मनुष्यों के निर्माणकर्ता सर्वत्र भ्रमणशील उपदेष्टाओं प्रणव धनुष पर स्थित अध्यात्म पर्ववाले योगियों को  हम चाहतें हैं (सूर्यम्-उषासम् अनागास्त्वम्-ईमहे) सूर्य और सुप्रभात वेला के निर्दोष प्रकाश को चाहते तथा विद्यासूर्य विद्वान् को उस जैसी ज्ञानप्रसारिका विदुषी को अज्ञानरहितता को भी चाहते हैं (सुवानः सोमः-नः-भद्रम्-अद्य कृणोतु) सुनिष्पन्न चन्द्रमा तथा नवस्नातक भी हमारे लिये अब कल्याण सिद्ध करे ॥२॥

    भावार्थ

    पृथिवीस्थ जलाशय और आकाश के मेघ हमारे रक्षा करनेवाले हैं, वे ओषधियाँ उत्पन्न करते हैं, सूर्य उषा-सुन्दर प्रभात वेला और चन्द्रमा उत्तम कल्याणप्रद प्रकाश देनेवाले हैं तथा माता पिता अन्नज्ञानदाता रक्षक हो सर्वत्र जानेवाले उपदेशक ज्ञानधर्म का उपदेश, विद्यासूर्य विद्वान् और विदुषी तथा नव स्नातक भी कल्याणकारी ज्ञान दें ॥२॥

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    विषय

    द्यावापृथिवी का रक्षण

    पदार्थ

    [१] (मातृन् सिन्धून्) = हमारे जीवन में निर्माण का कार्य करनेवाले स्यन्दनशील रेतः कणों से (दिवः पृथिव्योः) = द्युलोक व पृथिवीलोक के, अर्थात् मस्तिष्क व शरीर के (अवः) = रक्षण का (आवृणीमहे) = हम वरण व याचन करते हैं । ये रेतःकण स्यन्दनशील हैं, बहने के स्वभाववाले हैं। इनका रक्षण न किया जाए तो ये स्वभावतः नीचे की ओर जानेवाले होते हैं और तब शरीर में नाना प्रकार के रोग व्याप्त हो जाते हैं तथा मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि बुझ जाती है। रेतःकण, सुरक्षित होने पर शरीर को रोगों का शिकार नहीं होने देते और मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि को दीप्त रखते हैं। इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि हम इन रेतः कणों से शरीर व मस्तिष्क के रक्षण की याचना करते हैं। ये रेतःकण ही वस्तुतः हमारे शरीर में सब आवश्यक तत्त्वों का निर्माण करनेवाले हैं । [२] इन्हीं स्यन्दनशील रेतः कणों से हम (शर्यणावतः) = [शर्य = हिंसा] हिंसा व विनाश के कारणभूत (पर्वतान्) = अविद्या पर्वतों को [ पञ्चपर्वा अविद्या को ] आवृणीमहे [ keep away ] अपने से दूर रखते हैं। एक रेतः कणों के रक्षण से [क] शरीर नीरोग बनता है, [ख] ज्ञानाग्नि दीप्त होती है, [ग] विनाश के कारणभूत अविद्या के पर्वत उच्छिन्न हो जाते हैं। [३] अब अज्ञान को दूर करके (सूर्यं उषासम्) = सूर्य व उषा से हम (अनागास्त्वम्) = निष्पापता को (ईमहे) = चाहते हैं। 'सूर्य' 'निरन्तर गति' का प्रतीक है और उषा 'अन्धकार के दहन' का। हम निरन्तर गतिशील बनकर तथा अविद्यान्धकार का दहन करके निरपराध बनते हैं। [४] (सुवानः सोमः) = सात्त्विक अन्नों से उत्पन्न किया जाता हुआ सोम [वीर्य] (अद्य) = आज (नः) = हमारा (भद्रं कृणोतु) = कल्याण करे । सोम के रक्षण से हमारा सब प्रकार से कल्याण ही कल्याण हो । शरीर में व्याधियाँ न हों, मन में आधियाँ न हों तथा मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि की दीप्ति सदा बनी रहे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में रेतः : कण ही सब आवश्यक तत्त्वों का निर्माण करनेवाले हैं। इनके रक्षण से ही हमारा जीवन अविद्यान्धकार व पापों से शून्य बनेगा ।

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    विषय

    उत्तम माता पिता और गुरु जनों की इच्छा।

    भावार्थ

    हम (दिवः पृथिव्योः) सूर्य, भूमि, आकाश और भूमिवत् माता पिताओं के (अवः) उत्तम रक्षण, प्रेम, ज्ञान और बल की याचना करते हैं। और (मातृन्) ज्ञानवान्, एवं पुरुषों को उपदेश शिक्षादि द्वारा जीवन में दृढ़ बनादेने वाले, (सिन्धून्) महानदों के समान अगाध जल वाले, एवं हृदयों से बांधने वाले प्रेमी, (शर्यणावतः) दुष्टों के नाश करने की शक्ति से युक्त (पर्वतान्) पर्वतवत् दृढ़ और पालकशक्ति के स्वामी पुरुषों और (सूर्यम् उषासम्) सूर्यवत् तेजस्वी, उषावत् कान्तियुक्त पापों को दग्ध करने वाले जनको प्राप्तकर उनसे (अनागास्त्वं) पापरहित होने की (ईमहे) प्रार्थना करें। (सुवानः सोमः) अभिषेक, और विद्या व्रत आदि में निष्णात (सोमः) शासक विद्वान् जन वा प्रभु (अद्य नः भद्रं कृणोतु) आज हमारा कल्याण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः- १, ६, ९, ११ विराड्जगती। २ भुरिग् जगती। ३, ७, १०, १२ पादनिचृज्जगती। ४, ८ आर्चीस्वराड् जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। १३ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (दिवः-पृथिव्योः) द्यावापृथिव्योः ‘दिवः षष्ठ्याः अलुक् छान्दसः’ द्युलोकस्य पृथिवीलोकस्य च तथा ज्ञानदातुरन्नदातुश्च (अवः-आ वृणीमहे) रक्षणं वाञ्छामः (सिन्धून् मातॄन्-शर्यणावतः-पर्वतान्) ओषधिवनस्पतीनां निर्मातॄन् स्यन्दमानान् जलाशयान्, अन्तरिक्षस्थान् मेघांश्च “शर्मणावति-शर्यणोऽन्तरिक्षदेश-स्तस्यादूरभवे, अत्र ‘मध्वादिभ्यश्च’ (अष्टा०४।२।८६) इति मतुप् [ऋ०१।८४।१४ दयानन्दः] ‘आवृणीमहे’ वाञ्छामः (सूर्यम्-उषासम्-अनागास्त्वम्-ईमहे) सूर्यं सुप्रभातं च निर्दोषं वाञ्छामः (सुवानः सोमः) सुनिष्पन्नः प्रकाशमानश्चन्द्रमाश्च (नः-भद्रम्-अद्य कृणोतु) अस्मभ्यं सम्प्रति कल्याणं करोतु, यद्वा (मातॄन् सिन्धून् शर्यणावतः पर्वतान् सूर्यम् उषसम्-अनागास्त्वम्-ईमहे सुवानः-सोमः नः-भद्रम्-अद्य कृणोतु) जननिर्मातॄन् सर्वगति-शीलानुपदेष्टॄन् प्रणवधनुषि स्थितानध्यात्मपर्ववतो योगिनो वाञ्छामो विद्यासूर्यं विद्वांसं तत्सदृशीं ज्ञानप्रवर्तयित्रीं विदुषीं च वाञ्छामः पुनश्चाज्ञानदोषराहित्यं च वाञ्छामः, तथा नवस्नातकोऽपि खल्वस्मभ्यं कल्याणं साधयतु ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We pray for the good will, protection and inspiration of heaven and earth for light and nourishment. We want the love and blessings of mother powers, the energy and liquid flow of the streams and seas, showers of clouds, the cool of mountain snows and gifts of soma herbs. We pray for the energies of all that is dynamic and generous in life. Innocent and free from sin, we pray for the rise of a new dawn and light of the sun every day. May the peace, beauty and inspiration of nature at dawn inspired with the love and power of divinity bless us with vision, will and power to act here and now so that we too may rise and shine.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पृथ्वीवरील जलाशय व आकाशातील मेघ आमचे रक्षण करणारे असतात, ते औषधी उत्पन्न करतात. सूर्य उषा-सुंदर प्रभातवेळ व चंद्र उत्तम कल्याण करणारा, प्रकाश देणारा आहे व माता-पिता अन्न ज्ञानदाता रक्षक व्हावेत. सर्वत्र भ्रमण करणाऱ्या उपदेशकांनी ज्ञान धर्माचा उपदेश, विद्यासूर्य विद्वान, विदुषी व नवस्नातकांनीही कल्याणकारी ज्ञान द्यावे. ॥२॥

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