ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
ऋषिः - लुशो धानाकः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
द्यावा॑ नो अ॒द्य पृ॑थि॒वी अना॑गसो म॒ही त्रा॑येतां सुवि॒ताय॑ मा॒तरा॑ । उ॒षा उ॒च्छन्त्यप॑ बाधताम॒घं स्व॒स्त्य१॒॑ग्निं स॑मिधा॒नमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑ । नः॒ । अ॒द्य । पृ॒थि॒वी इति॑ । अना॑गसः । म॒ही इति॑ । त्रा॒ये॒ता॒म् । सु॒वि॒ताय॑ । मा॒तरा॑ । उ॒षाः । उ॒च्छन्ती॑ । अप॑ । बा॒ध॒ता॒म् । अ॒घम् । स्व॒स्ति । अ॒ग्निम् । स॒म्ऽइ॒धा॒नम् । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावा नो अद्य पृथिवी अनागसो मही त्रायेतां सुविताय मातरा । उषा उच्छन्त्यप बाधतामघं स्वस्त्य१ग्निं समिधानमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावा । नः । अद्य । पृथिवी इति । अनागसः । मही इति । त्रायेताम् । सुविताय । मातरा । उषाः । उच्छन्ती । अप । बाधताम् । अघम् । स्वस्ति । अग्निम् । सम्ऽइधानम् । ईमहे ॥ १०.३५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मही) महत्त्वपूर्ण (द्यावापृथिवी मातरा) द्युलोक और पृथ्वीलोक दोनों अथवा ज्ञानप्रकाशिका विद्वत्सभा और अन्नादिव्यवस्था करनेवाली समिति प्रजानिर्माण करनेवाली (अनागसः-नः) हम दोषरहितों की (अद्य सुविताय त्रायेताम्) इस मानवजीवन में सुख के लिए रक्षा करें (उच्छन्ती-उषाः) प्रकट होती हुई ज्योतिर्मय प्रभातवेला तथा प्राप्त होती हुई नई वधू (अघं बाधताम्) अघ-अन्धकार अज्ञान को नष्ट करते हैं (समिधानम्-अग्निं स्वस्ति-ईमहे) अग्निहोत्र में सम्यक् दीप्ति हुई अग्नि को तथा अग्निहोत्र करते हुए यजमान को सुखी रूप में चाहते हैं ॥३॥
भावार्थ
द्युलोक पृथिवीलोक परमात्मा ने निर्दोष मनुष्यों के लिये कल्याणकारी बनाये। प्रातः वेला भी अज्ञान आदि दोषों को दूर करनेवाली बनाई है। अग्नि भी मनुष्य का कल्याण साधनेवाली रची है तथा ज्ञानप्रकाश करनेवाली विद्वत्सभा और अन्नादि की व्यवस्था करनेवाली समिति समाज या राष्ट्र में निर्दोष मनुष्यों की रक्षा करती है। उत्तम सुख प्राप्त कराती है। घर में नई वधू भी दुःख को हटाती है। प्रतिदिन अग्निहोत्र करनेवाले का कल्याण होता है ॥३॥
विषय
निष्पापता
पदार्थ
[१] (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर (मही) = महनीय हैं, ये दोनों महत्त्वपूर्ण हैं । (मातरा) = ये हमारे जीवन का निर्माण करनेवाले हैं। शरीर व मस्तिष्क से ही मनुष्य बनता है, (अनागसो) = निष्पाप मनुष्य आदर्श मनुष्य वही है जो स्वस्थ व सशक्त शरीर के साथ दीप्त मस्तिष्कवाला है। ये दोनों मस्तिष्क व शरीर (अद्य) = आज (नः) = हमें (सुविताय) = उत्तम आचरण व उत्तम आचरण से जनित सुख के लिये (त्रायेताम्) = रक्षित करें। शरीर की शक्ति व मस्तिष्क का ज्ञान हमारे आचरण को सुन्दर बनायें, जिससे हम अपने जीवन में सुखी हो सकें। [२] (उच्छन्ती) = अन्धकार को दूर करती हुई (उषा) = प्रातः काल की वेला (अघम्) = पाप को (अपबाधताम्) = हमारे से दूर करे। उषा होती है और अन्धकार दूर हो जाता है, इसी प्रकार यह उषा हमारे जीवन में भी हृदयान्धकार को दूर करनेवाली हो और परिणामतः हमारे जीवन में से पाप विनष्ट हो जाएँ। [३] इस उषाकाल में (समिधानम्) = दीप्त की जाती हुई (अग्निम्) = इस अग्निहोत्र की अग्नि से (स्वस्ति) = उत्तम जीवन को, कल्याण को (ईमहे) = हम माँगते हैं, हम उष:काल में अग्निहोत्र की अग्नि को उबुद्ध करनेवाले हों। यह प्रतिदिन उद्बुद्ध की जाती हुई अग्नि हमारे सब ज्ञात-अज्ञात रोगों को दूर करती हुई, हमारा कल्याण करे।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा स्वस्थ शरीर वही प्रमस्तिष्क हमें निष्पाप बनाये। उषा हमारे पाप को दूर करे । समिद्ध अग्नि हमें 'स्वस्ति' प्राप्त कराये।
विषय
माता पितावत् राजा, राजसभा से रक्षा की प्रार्थना, विदुषी माता और राज्य की पोलिस सेना वा प्रभु-शक्ति आदि से पाप को रोकने की प्रार्थना।
भावार्थ
(नः) हम (अनागसः) अपराध और पाप से रहितों को (द्यावापृथिवी) सूर्ववत् तेजस्वी, और पृथिवी के तुल्य विशाल आश्रय देने में समर्थ, (मही) पूज्य बड़े (मातरा) माता पिता के तुल्य राजा राजसभा, दोनों (सुविताय) उत्तम मार्ग पर चलाने और सुख प्राप्त करने के लिये (त्रायेताम्) हमारी रक्षा करें। (उच्छन्ती) गुणों का प्रकोश करती हुई (उषा) कान्तियुक्त प्रभात वेला के तुल्य, कर्मनीय गुणों से अलंकृत विदुषी स्त्री और राज्य में सेना (अघम् अप बाधताम्) पाप को रोके और नष्ट करे, दूर करे। हम (समिधानम् अग्निम्) तेज से देदीप्यमान अग्निवत् ज्ञान के प्रकाशक नेताजन वा प्रभु से (स्वस्ति ईमहे) सुख कल्याण की याचना, प्रार्थना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः- १, ६, ९, ११ विराड्जगती। २ भुरिग् जगती। ३, ७, १०, १२ पादनिचृज्जगती। ४, ८ आर्चीस्वराड् जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। १३ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मही) महत्यौ (द्यावापृथिवी मातरा) द्यावापृथिव्यौ द्यौः पृथिवी चोभे यद्वा ज्ञानप्रकाशिका विद्वत्सभा तथाऽन्नादिव्यवस्थाकारिणी समितिर्निर्माणकर्त्र्यौ (अनागसः-नः) दोषरहितानस्मान् (अद्य सुविताय त्रायेताम्) अस्मिन् जीवनकाले जन्मनि वा सुगतसुखाय रक्षताम् (उच्छन्ती-उषाः) प्रादुर्भवन्ती खलूषा ज्योतिर्मयप्रभातवेला तथा प्राप्यमाणा नववधूः (अघं बाधताम्) अन्धकारमज्ञानान्धकारं नाशयेत्। (समिधानम्-अग्निं स्वस्ति-ईमहे) अग्निहोत्रे सम्यग् दीप्यमानं गृह्याग्निं च, तथा-अग्निहोत्रं कुर्वाणं यजमानं च कल्याणं वाञ्छामः “यजमानोऽग्निः” [श०६।३।२।२१] ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May this new day, the great mother powers of earth and heaven, generous givers of inspiration, light and settlement, protect and promote us, their innocent children, for the sake of happiness and well being. May the bright dawn now rising keep off sin and evil. We pray that the lighted fire and rising light and all enlightened powers of human will and action be good to us and all may be well and blissful.
मराठी (1)
भावार्थ
द्युलोक पृथिवीलोक परमात्म्याने निर्दोष मनुष्यासाठी कल्याणकारी बनविलेले आहेत. प्रात:काळ हा अज्ञान इत्यादी दोषांना दूर करणारा आहे. अग्नी हा माणसाचे कल्याण करण्यासाठी निर्माण केलेला आहे व ज्ञानाचा प्रकाश करणारी विद्वत्सभा व अन्न इत्यादींची व्यवस्था करणारी समिती समाज किंवा राष्ट्रात निर्दोष माणसांचे रक्षण करते. उत्तम सुख प्राप्त करविते. घरात नवीन वधूही दु:ख नाहीसे करते. प्रत्येक दिवशी अग्निहोत्र करणाऱ्याचे कल्याण होते. ॥३॥
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