ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 35/ मन्त्र 6
अ॒न॒मी॒वा उ॒षस॒ आ च॑रन्तु न॒ उद॒ग्नयो॑ जिहतां॒ ज्योति॑षा बृ॒हत् । आयु॑क्षाताम॒श्विना॒ तूतु॑जिं॒ रथं॑ स्व॒स्त्य१॒॑ग्निं स॑मिधा॒नमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒मी॒वाः । उ॒षसः॑ । आ । च॒र॒न्तु॒ । नः॒ । उत् । अ॒ग्नयः॑ । जि॒ह॒ता॒म् । ज्योति॑षा । बृ॒हत् । अयु॑क्षाताम् । अ॒श्विना॑ । तूतु॑जिम् । रथ॑म् । स्व॒स्ति । अ॒ग्निम् । स॒म्ऽइ॒धा॒नम् । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनमीवा उषस आ चरन्तु न उदग्नयो जिहतां ज्योतिषा बृहत् । आयुक्षातामश्विना तूतुजिं रथं स्वस्त्य१ग्निं समिधानमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठअनमीवाः । उषसः । आ । चरन्तु । नः । उत् । अग्नयः । जिहताम् । ज्योतिषा । बृहत् । अयुक्षाताम् । अश्विना । तूतुजिम् । रथम् । स्वस्ति । अग्निम् । सम्ऽइधानम् । ईमहे ॥ १०.३५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 35; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(उषसः-अनमीवाः-नः-आ चरन्तु) अमीवा-रोग जिसके सेवन से नहीं होता है, वे ऐसे रोगनिवारक रोगसंस्पर्श से बचानेवाली प्रभातवेलाएँ हमें भली-भाँति प्राप्त हों, तथा कमनीय नववधुएँ रोगनिवारिकाएँ रोगसम्पर्क से बचानेवाली होती हुई हमें सेवन करें (अग्नयः बृहत्-ज्योतिषा-उज्जिहताम्) अग्नियाँ-विविध अग्निहोत्र महान् तेज से उज्ज्वलित हों, कार्य को सिद्ध करें, तथा विद्वान् जन महान् ज्ञानतेज से ऊपर उठें (अश्विनौ) फिर दिन-रात (तूतुजिं रथम्-आयुक्षाताम्) बलवान् निरन्तर रमणीय संसार को युक्त होवें तथा पति-पत्नी रमणीय गृहस्थाश्रम को युक्त होवें। आगे पूर्ववत् ॥६॥
भावार्थ
प्रभातवेलाएँ रोगनिवारक हुआ करती हैं। उनसे लाभ उठाना चाहिए। अग्निहोत्र भी सुखदायक होते हैं और संसार में प्रवर्तमान दिन-रात को भी सुखदायक बनाना चाहिये तथा घर में वधुएँ रोगों का निवारण करनेवाली हों और पुरुष भी विद्वान् होते हुए ज्ञान से ऊपर उठें। स्त्री-पुरुष गृहस्थ का सच्चा सुख लें ॥६॥
विषय
नीरोगतावाली उषाएँ
पदार्थ
[१] (नः) = हमें (अनमीवाः उषसः) = रोगरहित उषाकाल (आचरन्तु) = सर्वथा प्राप्त हों। प्रत्येक उषाकाल में हम नीरोगता का अनुभव करें। उषाकाल का वायु ओजोन गैस के प्राचुर्यवाला होता है। इस समय का भ्रमण हमें आरोग्य का प्रदान करे। [२] इस समय (बृहत्) = वृद्धि के कारणभूत (ज्योतिषा) = ज्ञान के प्रकाश के साथ (अग्नयः) = अग्निहोत्र में समिद्ध की जानेवाली अग्नियाँ उज्जिहताम् उद्गत हों, अर्थात् घृत व सामग्री की आहुतियों से ये ऊँची-ऊँची लपटोंवाली हैं। हम अग्निहोत्र करें और स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान का वर्धन करें। [३] (अश्विना) = प्राणापान (तूतुजिं रथम्) = शीघ्रगामी शरीररूप रथ को (आयुक्षाताम्) = जोतें । इस शरीररूप रथ में इन्द्रियरूप घोड़े जुते हुए हों और हमारा यह रथ अकर्मण्य-सा न पड़ा रहे। कहने का अभिप्रायः यह कि हमारा जीवन बड़ा क्रियाशील हो । [४] प्रतिदिन प्रातः सायं (समिधानं अग्निम्) = समिद्ध की जाती हुई इस अग्निहोत्र की अग्नि से (स्वस्ति) = कल्याण व उत्तम जीवन की (ईमहे) = हम याचना करते हैं। यह अग्नि हमारे जीवनों में नीरोगता व सौमनस्य को देनेवाली हो।
भावार्थ
भावार्थ- हमें उषाकाल नीरोगता को देनेवाले हों हम प्रातः सायं अग्निहोत्र अवश्य करें । प्राणसाधना से हमारे में क्रियाशीलता का विकास हो ।
विषय
प्राभातिक सूर्य रश्मियों का रोग नाशक गुण। अग्निवत् तेजोमय से सुख-कल्याण की प्रार्थना
भावार्थ
(उषसः) प्रभात वेलाएं वा प्रातःकालिक प्रभाएं (नः) हमें (अनमीवाः आ चरन्तु) रोगरहित करें। प्रभात की प्रभाओं के समान उत्तम स्त्रियां (अनमीवाः) रोगरहित (नः आ चरन्तु) हमें प्राप्त हों। वे (अग्नयः) सूर्यादि अग्नियों के समान (बृहत् ज्योतिषा) बड़े भारी तेज, ज्ञान-प्रकाश से (उत् जिहताम्) उदय को प्राप्त हों। (अश्विना) अश्व आदि वेगवान् पशुओं और यन्त्रों के स्वामी, वा जितेन्द्रिय स्त्री पुरुष (तूतुजिं रथं) वेग से जाने में समर्थ रथ को जोड़ें। हम (समिधानम् अग्निम् ईमहे) प्रकाशमान, अग्निवत् तेजोमय, सूर्य वा उसके समान, विद्वान् वा प्रभु से सुख और कल्याण की प्राप्ति वा याचना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः- १, ६, ९, ११ विराड्जगती। २ भुरिग् जगती। ३, ७, १०, १२ पादनिचृज्जगती। ४, ८ आर्चीस्वराड् जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। १३ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(उषसः-अनमीवाः नः आचरन्तु) अमीवा रोगो न भवति याभिः सेविताभिः, ता रोगनिवारिका रोगसंस्पर्शाद् रक्षिका प्रभातभासोऽस्मान् समन्तात् प्राप्नुवन्तु कमनीया नववध्वः-रोगनिवारिका रोगसम्पर्काद् रक्षिका अस्मान् आचरन्तु सेवन्ताम् (अग्नयः-बृहत्-ज्योतिषा-उज्जिहताम्) अग्नयो विविधा महता तेजसा खलूद्गच्छन्तु कार्यं साधयन्तु विद्वांसश्च महतो ज्ञानतेजसा-उद्भवन्तु (अश्विना) पुनरहोरात्रौ “अश्विनावहोरात्रा-वित्येके” [निरु०१२।१] (तूतुजिं रथम्-आयुक्षाताम्) बलवन्तं निरन्तरं रममाणं संसारं समन्ताद् युक्तौ भवेताम्, गृहाश्रमे भार्यापती समन्ताद् रमणीयगृहस्थाश्रमयुक्तौ भवेताम्। “तूतुजिं बलवन्तम्” [ऋ०६।२०।८ दयानन्दः] अग्रे पूर्ववत् ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the dawns free from ailments bring us good health, and may the yajna fires rise up high with blazing light. Let the day and night keep the fastest chariot in harness for us. We pray may the lighted fire and the rising dawn bring us all happiness and well being of life.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रभातवेळ रोगनिवारक असते. त्याचा लाभ घेतला पाहिजे. अग्निहोत्रही सुखदायक असते व दिवस-रात्रीलाही सुखदायक बनविले पाहिजे. घरात वधू रोगांचे निवारण करणाऱ्या असाव्यात व पुरुषही विद्वान असून ज्ञानाने उन्नत व्हावेत. स्त्री-पुरुषांनी गृहस्थाश्रमाचे खरे सुख घ्यावे. ॥६॥
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