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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
    ऋषिः - लुशो धानाकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिगार्चीजगती स्वरः - निषादः

    प्र याः सिस्र॑ते॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभि॒र्ज्योति॒र्भर॑न्तीरु॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु । भ॒द्रा नो॑ अ॒द्य श्रव॑से॒ व्यु॑च्छत स्व॒स्त्य१॒॑ग्निं स॑मिधा॒नमी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । याः । सिस्र॑ते । सूर्य॑स्य । र॒श्मिऽभिः॑ । ज्योतिः॑ । भर॑न्तीः । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टिषु । भ॒द्राः । नः॒ । अ॒द्य । श्रव॑से । वि । उ॒च्छ॒त॒ । स्व॒स्ति । अ॒ग्निम् । स॒म्ऽइ॒धा॒नम् । ई॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र याः सिस्रते सूर्यस्य रश्मिभिर्ज्योतिर्भरन्तीरुषसो व्युष्टिषु । भद्रा नो अद्य श्रवसे व्युच्छत स्वस्त्य१ग्निं समिधानमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । याः । सिस्रते । सूर्यस्य । रश्मिऽभिः । ज्योतिः । भरन्तीः । उषसः । विऽउष्टिषु । भद्राः । नः । अद्य । श्रवसे । वि । उच्छत । स्वस्ति । अग्निम् । सम्ऽइधानम् । ईमहे ॥ १०.३५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (व्युष्टिषु) अन्धकार हटानेवाली प्रभातवेलाओं में (याः-उषसः) जो उष्ण आभाएँ या नई वधू प्रजाएँ (सूर्यस्य ज्योतिः-रश्मिभिः-भरन्तीः) सूर्य की किरणों से या विद्यासूर्य विद्वान् की ज्ञानधाराओं से ज्योति धारण करती हुई (प्र सिस्रते) पृथिवी पर गृहाश्रम में फैलती हैं (अद्य नः श्रवसे भद्रा वि उच्छत) प्रतिदिन या इस अवसर पर अन्नोत्पत्ति के लिये और यज्ञ के लिये कल्याणरूप सेवनीय उदय होवें या उन्नत होवें। आगे पूर्ववत् ॥५॥

    भावार्थ

    प्रातःकाल सूर्य की किरणें ज्योति को लेकर आती हैं और पृथ्वी पर फैलती हैं। वे अन्धकार को नष्ट करने के साथ अन्न की उत्पत्ति में कल्याणकारी सिद्ध होती हैं। तथा प्रथम घर में विद्वान् पति की नई विदुषी वधू आती है, तो शोभा लक्ष्मी का प्रसार करती है। गृहस्थ के लिये यश देती हुई कल्याणकारी बनती है ॥५॥

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    विषय

    ज्योति का भरण

    पदार्थ

    [१] (याः उषसः) = जो उषाकाल (सूर्यस्य) = सूर्य की (रश्मिभिः) = किरणों से (सिस्रते) = [संगच्छन्ते] संगत होती हैं और जो उषाएँ (व्युष्टिषु) = अन्धकारों के दूर करने पर (ज्योतिः भरन्ती:) = प्रकाश का भरण करनेवाली होती हैं, वे उषाएँ (अद्य) = आज (भद्राः) = कल्याणकर होती हुई (नः) = हमारे (श्रवसे) = ज्ञान-प्रकाश के लिये (व्युच्छत) = अन्धकार को दूर करें। [२] इन उषाकालों में हम (समिधानम्) = समिद्ध होती हुई (अग्निम्) = अग्नि से (स्वस्ति ईमहे) = कल्याण की याचना करते हैं। ये अग्निहोत्र में प्रज्वलित की गई अग्नियाँ हमें नीरोगता व सौमनस्य को देकर उत्तम जीवनवाला बनायें। [३] उषाकाल जिस प्रकार सूर्य की किरणों से सम्पृक्त होते हैं उसी प्रकार हम ज्ञान रश्मियों से संगत हों। उषाकाल अन्धकार को दूर करके प्रकाश का भरण करते हैं, हमारे मस्तिष्कों से भी अविद्यान्धकार का लोप होकर उनमें ज्ञान के प्रकाश का भरण हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उषाकाल के समान अन्धकार को दूर करके अपने ज्ञान के प्रकाश का भरण करें।

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    विषय

    उत्तम विदुषी स्त्रियों के कर्त्तव्य। वे गृहों का सब प्रकार से पालन करें।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (व्युष्टिषु) विशेष रूप से प्रकाश होजाने पर (उषसः सूर्यस्य रश्मिभिः ज्योतिः भरन्तीः सिस्रते) प्रभात वेलाएं सूर्य की किरणों के प्रकाश को अपने में धारण करती हुई आती हैं, उसी प्रकार (याः उषसः) जो उत्तम कामनायुक्त, अज्ञान पाप आदि की दाहक, नाशक विदुषी स्त्रियां (सूर्यस्य) सूर्यवत् तेजस्वी गुरु की (रश्मिभिः) प्रकाशक और नियामक व्यवस्थाओं और वाणियों वा वचनों से (ज्योतिः भरन्तीः सिस्रते) ज्ञान-प्रकाश को धारण करती हुई आगे बढ़ती हैं। वे आप (अद्य) आज (नः श्रवसे) हमें अन्न प्रदान करने, और श्रवण योग्य हमारे यश और ज्ञान प्राप्त करने के लिये (भद्राः) अति कल्याण और सुखदेने वाली होकर (वि उच्छत) विविध गुणों का प्रकाश करें। (समिधानं अग्निं स्वस्ति ईमहे) हम प्रकाश-स्वरूप प्रभु को सुखपूर्वक प्राप्त हों, उससे कल्याण की याचना करते हैं। इति षष्ठो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः- १, ६, ९, ११ विराड्जगती। २ भुरिग् जगती। ३, ७, १०, १२ पादनिचृज्जगती। ४, ८ आर्चीस्वराड् जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। १३ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (व्युष्टिषु) तमसो निवृत्तिवेलासु प्रभातवेलासु (याः-उषसः) याः खलूष्णाभासो नववध्वः प्रजा वा (सूर्यस्य ज्योतिः-रश्मिभिः-भरन्तीः) सूर्यस्य किरणैः, विद्यासूर्यविदुषो ज्ञानमयप्रवचनधाराभिः, ज्योतिर्धारयन्त्यः, ज्ञानज्योतिर्धारयन्त्यः (प्रसिस्रते) पृथिव्यां प्रसरन्ति, गृहाश्रमे गृहस्थेषु प्रसरन्ति प्रगच्छन्ति प्रवर्त्तन्ते प्रपूर्वकात् सृधातोः “बहुलं छन्दसि” [अष्टा०२।४।७६] व्यत्ययेनात्मनेपदं च “सिस्रते सरन्ति प्राप्नुवन्ति” [ऋ०४।२२।६ दयानन्दः] (अद्य नः श्रवसे भद्रा व्युच्छत) अद्य प्रतिदिनं अस्मिन् अवसरे वा अन्नाय-अन्नोत्पत्तये “श्रवः अन्ननाम” [निघं२।७] यशसे “श्रवः श्रवणीयं यशः [निरु०११।१९] भजनीया सेवनीया उदिता भवन्तु, उन्नता भवन्तु अग्रे पूर्ववत् ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The lights of dawn at the break of day which shine with rays of the sun, bearing the message of enlightenment, may, we pray, rise and radiate and be good for us today for our nourishment of body, mind and soul and for our honour and excellence of life. We pray may the lighted fire and rising dawn bring us all happiness and well being of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रात:काळी सूर्याची किरणे ज्योतियुक्त होतात व पृथ्वीवर पसरतात. ती अंधकार नष्ट करण्याबरोबरच अन्नाच्या उत्पत्तीत कल्याणकारी सिद्ध होतात. तसेच सुरुवातीला घरात विद्वान पतीची नवी विदुषी वधू येते. तेव्हा शोभा लक्ष्मीचा प्रसार करत गृहस्थासाठी यश देणारी कल्याणकारी बनते. ॥५॥

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