ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 35/ मन्त्र 14
ऋषिः - लुशो धानाकः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यं दे॑वा॒सोऽव॑थ॒ वाज॑सातौ॒ यं त्राय॑ध्वे॒ यं पि॑पृ॒थात्यंह॑: । यो वो॑ गोपी॒थे न भ॒यस्य॒ वेद॒ ते स्या॑म दे॒ववी॑तये तुरासः ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । दे॒वा॒सः॒ । अव॑थ । वाज॑ऽसातौ । यम् । त्राय॑ध्वे । यम् । पि॒पृ॒थ । अति॑ । अंहः॑ । यः । वः॒ । गो॒ऽपी॒थे । न । भ॒यस्य॑ । वेद॑ । ते । स्या॒म॒ । दे॒वऽवी॑तये । तु॒रा॒सः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं त्रायध्वे यं पिपृथात्यंह: । यो वो गोपीथे न भयस्य वेद ते स्याम देववीतये तुरासः ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । देवासः । अवथ । वाजऽसातौ । यम् । त्रायध्वे । यम् । पिपृथ । अति । अंहः । यः । वः । गोऽपीथे । न । भयस्य । वेद । ते । स्याम । देवऽवीतये । तुरासः ॥ १०.३५.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 35; मन्त्र » 14
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवासः-यं वाजसातौ-अवथ) हे विद्वानो ! जिस मनुष्य को अमृतान्न भोग की प्राप्ति-मुक्तिप्राप्ति के निमित सुरक्षित रखते हो-सम्पन्न करते हो (यं त्रायध्वे) जिस अधिकारी को भय से बचाते हो, पृथक् करते हो (यम्-अंहः-अति पिपृथ) जिसको पाप से पार करके सुरक्षित रखते हो (यः-वः-गोपीथे भयस्य न वेद) जो तुम्हारे प्रवचनपान-वेदाध्ययन में अर्थात् वेदाध्ययन के लिये कुछ भी भय नहीं जानता है-अनुभव करता है, उन ऐसे आप लोगों के संरक्षण में (देववीतये) दिव्य भोगों की प्राप्तिवाली मुक्ति के लिये (ते तुरासः स्याम) वे हम संसारसागर को तैरनेवाले हों ॥१४॥
भावार्थ
विद्वानों के संरक्षण में दोषों से बचकर ज्ञान का सेवन कर संसारसागर को पार करते हुए दिव्य सुखवाली मुक्ति के लिये यत्न करना चाहिये ॥१४॥
विषय
अभय प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (देवासः) = देवो ! (यम्) = जिसको आप (वाजसातौ) = इस जीवन में (अवथ) = रक्षित करते हो, (यं त्रायध्वे) = जिसको आप रोगादि के आक्रमण से बचाते हो और (यम्) = जिसे (अंहः अतिपिपृथ) = पाप से पार ले जाते हो इस प्रकार (यः) = जो (वः) = आपके (गोपीथे) = रक्षण में होता है वह (भयस्य न वेद) = किसी भय को प्राप्त नहीं होता देवों के रक्षण में स्थित होने पर एक मनुष्य को निर्धनता जनित कष्ट परेशान नहीं करते, वह रोगों का शिकार नहीं होता और वह पापगर्त में नहीं फँसता। [२] हे देवो! आप ऐसी कृपा करो कि हम भी (ते स्याम) = वे ही हों जो आपके रक्षण में निर्भीक होकर विचरते हैं तथा (तुरासः) = त्वरावाले, शीघ्रता से कार्य करनेवाले अथवा शत्रुओं का संहार करनेवाले हम (देववीतये) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (स्याम) हों । देवों के रक्षण में हम अपने अन्दर उत्तरोत्तर दिव्यगुणों का वर्धन कर पायें ।
भावार्थ
भावार्थ-जीवन-संग्राम में देव हमारा रक्षण करें। हमें वे रोगों से बचाएँ तथा पापों के पार ले जायें। इस प्रकार हम अपने में दिव्यगुणों का वर्धन करनेवाले बनें । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि स्वाध्याय के द्वारा हम अपने में ज्योति का भरण करें। [१] रेतःकणों के रक्षण से हम निष्पापता को प्राप्त करें, [२] उषा हमारे पापों को दग्ध करे, [३] हम धनी हों, पर कभी क्रोधाभिभूत न हों, [४] उषा से प्रेरित होकर हम ज्योति का भरण करें, [५] उषाएँ हमारे लिये नीरोगता को लानेवाली हों, [६] हमारे जीवन में धन व ज्ञान का समन्वय हो पाये, [७] ऋत का हम पालन करें, [८] आचार्यों के सम्पर्क में रहकर ज्ञान को बढ़ायें, [९] 'इन्द्र, मित्र, वरुण व भग' के उपासक बनें, [१०] बृहस्पति पूषा अश्विनौ भग का निरन्तर पूजन हो, [११] सुप्रवाचन, सुभर व नृपाय्य घर हमें प्राप्त हो, [१२] इस घर में हम 'प्राणायाम व अग्निहोत्र' को नियम से अपनायें, [१३] देव कृपा से हमें अभय प्राप्त हो, [१४] हम देवों का आराधन करनेवाले हों।
विषय
विद्वान् तेजस्वी और सम्पन्नों की निर्भय शरण।
भावार्थ
हे (देवासः) विद्वान्, दानशील तेजस्वी विद्वान् पुरुषो ! (वाज-सातौ) संग्राम वा धनैश्वर्य के भोग और ज्ञान की प्राप्ति के अवसर पर (यम् अवथ) जिसकी रक्षा करते, जिसको प्रेम करते और जिसके साथ सत्संग करते हो, और (यं त्रायध्वे) जिसको कष्ट या शत्रु आदि से बचाते हो, (यं अंहः अति पिपृथ) जिसको पाप से पार करते हो। और (यः वः गोपीथे भयस्य न वेद) जो आप लोगों की रक्षा में रहता हुआ किसी प्रकार का भय नहीं जानता ऐसे (ते) वे तीनों वर्गों के हम (तुरासः) अति शीघ्रकारी जन (देव-वीतये) सूर्यवत् तेजस्वी होने, राजा की रक्षा करने और उत्तम गुणों से चमकने वा सज्जनों की रक्षा वा यज्ञार्थ (स्याम) सदा समर्थ और तैयार हों। इत्यष्टमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः- १, ६, ९, ११ विराड्जगती। २ भुरिग् जगती। ३, ७, १०, १२ पादनिचृज्जगती। ४, ८ आर्चीस्वराड् जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। १३ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवासः-यं वाजसातौ-अवथ) हे विद्वांसः ! यं जनं खल्वमृतान्नभोगप्राप्तौ मुक्तिप्राप्तौ रक्षथ सम्पादयत “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै०१।१९३] (यं त्रायध्वे) यमधिकारिणं भयात् त्रायध्वे पृथक् कुरुथ (यम्-अंहः अति पिपृथ) यं पापमतिक्राम्य पालयत (यः वः-गोपीथे भयस्य न वेद) यः खलु युष्माकं वाक्पाने वेदाध्ययने वेदाध्ययनाय किमपि भयं न वेत्ति, तथाभूतानां विदुषां संरक्षणे (देववीतये) दिव्यानां भोगानां वीतिः प्राप्तिर्यस्यां तस्यै मुक्त्यै “देववीतये दिव्यानां …… भोगानां प्राप्तिः” [यजु० ५।९ दयानन्दः] (ते तुरासः स्याम) ते वयं संसारसागरं तरन्तः-तीर्णाः “तुरः-तरतेर्वा” [निरु० १२।१४] भवेम ॥१४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vishvedevas, divine powers of nature and humanity, pray let us be, help us all to be, a happy, vibrant and dynamic human community of noble nature, character and action living the life divine and moving ahead on the holy path of life to total fulfilment here and beyond: The person and the community whom you protect, guide and lead to victory in the struggle of existence, whom you save, guard and direct against sin and suffering to success knows no fear. Pray let us be that on the paths of pilgrimage to the Life Divine.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानाच्या रक्षणामुळे दोषांपासून बचाव करून, ज्ञानाचे ग्रहण करून, संसार सागर पार पाडत दिव्य सुख देणाऱ्या मुक्तीसाठी प्रयत्न केला पाहिजे. ॥१४॥
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