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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 27/ मन्त्र 12
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ऊ॒र्जो नपा॑तमध्व॒रे दी॑दि॒वांस॒मुप॒ द्यवि॑। अ॒ग्निमी॑ळे क॒विक्र॑तुम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्जः । नपा॑तम् । अ॒ध्व॒रे । दी॒दि॒ऽवांस॑म् । उप॑ । द्यवि॑ । अ॒ग्निम् । ई॒ळे॒ । क॒विऽक्र॑तुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्जो नपातमध्वरे दीदिवांसमुप द्यवि। अग्निमीळे कविक्रतुम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्जः। नपातम्। अध्वरे। दीदिऽवांसम्। उप। द्यवि। अग्निम्। ईळे। कविऽक्रतुम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 27; मन्त्र » 12
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यं द्यव्यध्वरेऽग्निमिव वर्त्तमानमूर्जो नपातं कविक्रतुं दीदिवांसं विद्वांसमुपेळे तथैतं यूयमपि प्रशंसत ॥१२॥

    पदार्थः

    (ऊर्जः) बलात् (नपातम्) विनाशरहितम् (अध्वरे) सङ्गते संसारे (दीदिवांसम्) प्रदीप्यमानम् (उप) (द्यवि) प्रकाशे (अग्निम्) वह्निवद् वर्त्तमानम् (ईळे) स्तौमि (कविक्रतुम्) कवीनां विदुषां क्रतुः प्रज्ञा कर्म वा क्रतुवत् यस्य सः तम् ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा यज्ञेऽग्निः प्रकाशमानो विराजते तथैव विद्याप्रकाशके व्यवहारे विद्वांसः प्रकाशन्ते ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिसको (द्यवि) प्रकाश तथा (अध्वरे) मेल को प्राप्त संसार में (अग्निम्) अग्नि के सदृश तेजयुक्त (ऊर्जः) बल से (नपातम्) विनाशरहित (कविक्रतुम्) विद्वानों की बुद्धि वा कर्म को यज्ञ समझनेवाला (दीदिवांसम्) प्रकाशमान विद्वान् पुरुष के (उप) समीप (ईळे) स्तुति करता हूँ, वैसे इसकी आप लोग भी प्रशंसा करो ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ में अग्नि प्रकाशमान होकर शोभित होता है, वैसे ही विद्या के प्रकाशकर्त्ता व्यवहार में विद्वान् जन प्रकाशित होते हैं ॥१२॥

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    विषय

    प्रज्ञावान्+शक्तिसम्पन्न

    पदार्थ

    [१] मैं उस प्रभु को (ईडे) = उपासित करता हूँ, जो कि (ऊर्जः नपातम्) = शक्ति को न नष्ट होने देनेवाले हैं। प्रभु की उपासना से चित्तवृत्ति वासनाक्रान्त नहीं होती। चित्तवृत्ति का वासनाक्रान्त न होना 'शक्तिरक्षण' का साधन हो जाता है। [२] उस प्रभु का मैं उपासन करता हूँ, जो कि (अध्वरे दीदिवांसम्) = यज्ञों में दीप्त होनेवाले हैं। प्रभु का दर्शन वहीं होता है, जहाँ जीवन यज्ञमय होते हैं । वस्तुतः वे सब यज्ञ प्रभुकृपा से ही पूर्ण होते हैं। [३] उस प्रभु का मैं उपासन करता हूँ, जो कि (उपद्यवि अग्निम्) = ज्ञान की समीपता में आगे ले चलनेवाले हैं, अर्थात् ज्ञान वृद्धि द्वारा हमें उन्नत करनेवाले हैं। [४] उस प्रभु का उपासन करता हूँ, जो कि (कविक्रतुम्) = क्रान्तप्रज्ञ व शक्तिशाली हैं। उपासित हुए हुए प्रभु हमें प्रज्ञा व शक्ति से सम्पन्न करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें। हमारी शक्ति का इससे रक्षण होगा, हम यज्ञों में दीप्त होंगे, ज्ञान द्वारा आगे बढ़ेंगे, प्रज्ञावान् व शक्तिसम्पन्न बनेंगे।

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    विषय

    यन्त्रचालकाग्निवत् नियन्ता के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (ऊर्जः) बल, पराक्रम और अन्न-समृद्धि से (नपातम्) कभी प्रजा को च्युत न होने देने वाले, प्रत्युत बल-पराक्रमशील सैन्य को नियम प्रबन्ध में अच्छी प्रकार बांधने वाले (अध्वरे) हिंसारहित, शत्रुओं की सेना को नाश करने योग्य दृष्ट राज्यादि कार्यों में (उप-द्यवि) आकाश या अन्तरिक्ष में सूर्य या विद्युत् के समान राजसभा और उत्तम कोटि की जनसभा में (दीदिवांसम्) प्रकाशित होने वाले (कवि-क्रतुम्) क्रान्तदर्शी विद्वानों की सी प्रज्ञा और कर्म से युक्त, (अग्निम्) ज्ञानी, अग्रणी, तेजस्वी विद्वान् को मैं (ईडे) स्तुति करूं, उसके गुणानुवाद करूं, उससे सत्संग, प्रार्थनादि करूं, उसका आदर सत्कार करूं। अथवा—(उपद्यवि) ज्ञानप्रकाश में चमकने वाले वा तृतीयाश्रम वानप्रस्थ में विद्यमान विद्वान् का मैं आदर सत्संगादि करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १ ऋतवोऽग्निर्वा। २–१५ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ७, १०, १४, १५ निचृद्गायत्री। २, ३, ६, ११, १२ गायत्री। ४, ५, १३ विराड् गायत्री। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा यज्ञात अग्नी प्रकाशमान होऊन शोभतो तसेच विद्येचा प्रकाश करणाऱ्या व्यवहारात विद्वान लोक प्रकाशित होतात. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In yajna, I worship indestructible Agni, child of cosmic energy shining upto the light of heaven, poetic power of refulgent vision and creativity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the enlightened persons is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! as fire is kindled and praised in the Yajna-the bright non-violent sacrifice, in the same manner, I praise an enlightened person, who is mighty (literally meaning never allowing his strength to decay). Indeed, such a person is blessed with the wisdom and actions of the seers, and shines on account of his noble virtues in this great Yajna (in the form of the universe). You should also praise him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As fire shine in the Yajna, in the same manner, the enlightened persons shine in the dealings which manifest true knowledge.

    Foot Notes

    (दीदिवांसम् ) प्रदीप्यमानम् । (दीदिवांसम्) दिवुक्रीड़ाविजिगीषाव्यवहारंद्युतिस्तुतिमो दमदस्वप्नकान्तिगतिषु (दिवा०) अन्न द्युत्यर्थ-हणम् । दिवो द्वे दीर्घश्चाभ्यासस्य (Undikosh 4, 55) = Bright, Shining. (कविक्रतुम) कवीनां विदुषां ऋतु प्रज्ञा कर्म वा ऋतुवत् यस्य सः तम्। कविरिति मेधाविनाम (N.G. 3, 15) ऋतुरीति कर्मनाम। (N.G. 2, 1) ऋतुरीतिप्रज्ञानाम। (N.G. 3, 9) = Blessed with the wisdom and actions of the seers.

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