ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
तं स॒बाधो॑ य॒तस्रु॑च इ॒त्था धि॒या य॒ज्ञव॑न्तः। आ च॑क्रुर॒ग्निमू॒तये॑॥
स्वर सहित पद पाठतम् । स॒ऽबाधः॑ । य॒तऽस्रु॑चः । इ॒त्था । धि॒या । य॒ज्ञऽव॑न्तः । आ । च॒क्रुः॒ । अ॒ग्निम् । ऊ॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं सबाधो यतस्रुच इत्था धिया यज्ञवन्तः। आ चक्रुरग्निमूतये॥
स्वर रहित पद पाठतम्। सऽबाधः। यतऽस्रुचः। इत्था। धिया। यज्ञऽवन्तः। आ। चक्रुः। अग्निम्। ऊतये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा सबाधो यतस्रुचो यज्ञवन्तो जना धियोतयेऽग्निमिव विद्वांसमाचक्रुस्तमित्था यूयं सेवध्वम् ॥६॥
पदार्थः
(तम्) (सबाधः) दुर्व्यसनानां बाधेन सह ये वर्त्तन्ते (यतस्रुचः) यता उद्यताः स्रुचः कर्मसाधनानि यैस्ते (इत्था) अनेन प्रकारेण (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (यज्ञवन्तः) प्रशस्ता यज्ञाः प्रयत्ना येषान्ते (आ) (चक्रुः) कुर्युः (अग्निम्) पावकमिव विद्वांसम् (ऊतये) रक्षणाद्याय ॥६॥
भावार्थः
हे मनुष्या यथा प्रज्ञाकर्मकुशलाः सद्व्यवहारान् साध्नुवन्ति तथैव जिज्ञासवो विद्वांसं प्रसाद्य शुभान् गुणान् प्राप्नुवन्तु ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (सबाधः) दुष्ट व्यसनों के नाशकर्त्ता (यतस्रुचः) उद्योगयुक्त कर्म साधनों के सहित (यज्ञवन्तः) प्रशंसा करने योग्य प्रयत्न करनेवाले जन (धिया) बुद्धि वा कर्म से (ऊतये) रक्षण आदि के लिये (अग्निम्) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वान् पुरुष को (आ) (चक्रुः) आदर करते हैं वैसे (तम्) उस विद्वान् पुरुष की (इत्था) इसी प्रकार आप लोग भी सेवा करें ॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे बुद्धि और कर्म में चतुर पुरुष उत्तम व्यवहारों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही धर्म आदि को जानने की इच्छायुक्त पुरुष विद्वान् जन को प्रसन्न करके उत्तम गुणों को ग्रहण करें ॥६॥
विषय
[यज्ञवन्तः] रक्षक प्रभु
पदार्थ
[१] (तं अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (ऊतये) = अपने रक्षण के लिए (आचक्रुः) = अभिमुख करते हैं। प्रभुरक्षण को कौन प्राप्त करते हैं ? [क] (सबाधः) = काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं के बाधन से जो युक्त हैं, अर्थात् प्रभुरक्षण उन्हें ही प्राप्त होता है, जो कि इन वासनारूप शत्रुओं को पीड़ित करने का प्रयत्न करते हैं। [ख] (यतस्स्रुचः) = जिन्होंने यज्ञ के चम्मच को पकड़ा है, अर्थात् जो यज्ञशील हैं अथवा 'वाग्वै स्रुचः श० ६।३।१।८' जो संयतवाक् हैं। परिमित नपा- तुला बोलनेवाले व्यक्ति प्रभु से रक्षणीय होते हैं । [ग] (इत्था) = सत्य (धिया) = बुद्धिपूर्वक (यज्ञवन्तः) = प्रशस्त यज्ञों में लगे रहनेवाले व्यक्ति प्रभुरक्षण के पात्र बनते हैं । [२] इस प्रलोभनों से परिपूर्ण मायामय संसार में इस माया को वे ही तैर पाते हैं, जो कि प्रभु को प्राप्त करते हैं 'मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ' । प्रभु को प्राप्त करनेवाले व्यक्ति [क] वासनाओं को पीड़ित करने का प्रयत्न करते हैं, [ख] परिमित बोलते हैं तथा [ग] बुद्धिपूर्वक यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'काम-क्रोधादि को पीड़ित करनेवाले, संयतवाक् व यज्ञशील' बनकर प्रभु से रक्षणीय हों ।
विषय
विद्वान् प्रधान नेता, और स्वामी के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(सबाधः) दुर्व्यसनों और आक्रमणकारी भीतरी और बाहरी शत्रुओं को बाधा देने और पीड़ित करने में समर्थ (यतस्रुचः) यज्ञ चमसों को हाथ में थामने वाले याज्ञिकों के समान अपने उत्तम साधनों, इन्द्रियों और अधीन जनों को नियम में रखने वाले। (यज्ञवन्तः) यज्ञ, दान, सत्संग, परस्पर मैत्री, व्यवस्था के स्वामी पुरुष (उतये) रक्षा और ज्ञान प्राप्त करने के लिये (अग्निम्) विद्वान्, अग्रणी पुरुष को (इत्था धिया) इस २ प्रकार की सत्य बुद्धि और कर्म द्वारा (आचक्रुः) अध्यक्ष रूप से नियत करें। (२) उपासनाशील निर्व्यसनी, जितेन्द्रियजन रक्षार्थ ही परमेश्वर को सत्य साक्षात्कार करने वाली मति और योग क्रिया द्वारा (आचक्रुः) साक्षात् करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १ ऋतवोऽग्निर्वा । २–१५ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ७, १०, १४, १५ निचृद्गायत्री। २, ३, ६, ११, १२ गायत्री। ४, ५, १३ विराड् गायत्री। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जसे बुद्धी व कर्मात चतुर पुरुष उत्तम व्यवहारांना सिद्ध करतात, तसे धर्म इत्यादीला जाणण्याची इच्छा करणाऱ्या पुरुषांनी विद्वान लोकांना प्रसन्न करून उत्तम गुणांना ग्रहण करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Those who ward off the impediments of yajna, raise the ladle of offering and hands in action truly with will and intelligence and dedicate themselves to yajna for the sake of protection and promotion, light the fire and raise it for well being and prosperity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the priests with lifted up ladles and performing the Yajnas and other noble deeds, when troubled by evils and difficulties call for protection with wisdom and action should an enlightened person who is purifier like the fire. So you by also serve them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! as wise and active persons accomplish various dealings, in the same manner, the seekers after truth should please an enlightened person and receive noble virtues.
Foot Notes
(सबाधः ) दुर्ग्यसनानां बाधेन सह ये वर्त्तन्ते | = Those who are troubled by evils and difficulties. (यतस्त्रुचः ) यता उद्यता: स्रुचः कर्मसाधनानि यैस्ते =Those who have lifted up ladles.
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