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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सं॒पश्य॑माना अमदन्न॒भि स्वं पयः॑ प्र॒त्नस्य॒ रेत॑सो॒ दुघा॑नाः। वि रोद॑सी अतप॒द्घोष॑ एषां जा॒ते निः॒ष्ठामद॑धु॒र्गोषु॑ वी॒रान्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽपश्य॑मानाः । अ॒म॒द॒न् । अ॒भि । स्वम् । पयः॑ । प्र॒त्नस्य॑ । रेत॑सः । दुघा॑नाः । वि । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒त॒प॒त् । घोषः॑ । ए॒षा॒म् । जा॒ते । निः॒ऽस्थाम् । अद॑धुः । गोषु॑ । वी॒रान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संपश्यमाना अमदन्नभि स्वं पयः प्रत्नस्य रेतसो दुघानाः। वि रोदसी अतपद्घोष एषां जाते निःष्ठामदधुर्गोषु वीरान्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽपश्यमानाः। अमदन्। अभि। स्वम्। पयः। प्रत्नस्य। रेतसः। दुघानाः। वि। रोदसी इति। अतपत्। घोषः। एषाम्। जाते। निःऽस्थाम्। अदधुः। गोषु। वीरान्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह।

    अन्वयः

    ये स्वं संपश्यमानाः प्रत्नस्य रेतसः पयो दुघाना अभ्यमदन्नेषां निःष्ठां घोषः सूर्यो रोदसी इव दुष्टान्व्यतपत्ते जातेऽस्मिञ्जगति गोषु वीरानदधुः ॥१०॥

    पदार्थः

    (संपश्यमानाः) सम्यक् प्रेक्षमाणाः (अमदन्) आनन्दन्ति (अभि) आभिमुख्ये (स्वम्) स्वकीयम् (पयः) दुग्धम् (प्रत्नस्य) प्राक्तनस्य (रेतसः) वीर्यस्य (दुघानाः) प्रपूरयन्तः (वि) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अतपत्) तपति (घोषः) वाणी (एषाम्) विदुषाम् (जाते) (निःष्ठाम्) नितरां स्थितानाम् (अदधुः) दधीरन् (गोषु) पृथिव्यादिषु (वीरान्) प्राप्तशुभगुणान् ॥१०॥

    भावार्थः

    ये विचारशीला धार्मिका विद्वांसः स्वकीयं सनातनमात्मसामर्थ्यं वर्धयेयुः सर्वेभ्यः सत्याऽसत्ये उपदिश्य दुष्टतां निवार्य्य श्रेष्ठतां धारयेयुस्त एव शूरवीराः सन्तीति वेद्यम् ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो लोग (स्वम्) अपने को (संपश्यमानाः) उत्तम प्रकार देखते और (प्रत्नस्य) प्राचीन (रेतसः) वीर्य के (पयः) दुग्ध को (दुघानाः) पूर्ण करते हुए (अभि) सन्मुख (अमदन्) आनन्द करते हैं (एषाम्) इन (निःष्ठाम्) उत्तम प्रकार स्थित विद्वानों की (घोषः) वाणी सूर्य्य जैसे (रोदसी) अन्तरिक्ष पृथिवी को वैसे दुष्ट पुरुषों को (वि) (अतपत्) तपाती है वे पुरुष (जाते) उत्पन्न हुए इस संसार में (गोषु) पृथिवी आदिकों में (वीरान्) उत्तम गुणों से युक्त पुरुषों को (अदधुः) धारण किया करें ॥१०॥

    भावार्थ

    जो उत्तम विचार करनेवाले धार्मिक विद्वान् पुरुष अपने अनादि काल सिद्ध सामर्थ्य को बढ़ावें, सब लोगों के लिये सत्य और असत्य का उपदेश कर दुष्टता को दूर कर और श्रेष्ठता का धारण करें, वे ही शूरवीर होते हैं, यह जानना चाहिये ॥१०॥

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    विषय

    आत्मदर्शन का आनन्द

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के उपासक (स्वं अभि) = आत्मा को लक्ष्य करके (संपश्यमानाः) = सम्यक् दर्शन करते हुए (अमदन्) = आनन्द प्राप्त करते हैं। आत्मतत्त्व का चिन्तन करते हुए आनन्द का अनुभव करते हैं। (प्रत्नस्य रेतसः) = सनातन रेतस् के, विज्ञान के [उदकमिव विज्ञानं द० ७ । ३३ । १३] (पयः दुधानाः) = दुग्ध का अपने में प्रपूरण करते हैं । वेद ही 'प्रत्न रेतस्' है- सनातन विज्ञान है। इससे दिये जानेवाले ज्ञान का ये अपने में पूरण करते हैं । [२] (एषाम्) = इन [क] आत्मतत्त्व का दर्शन करनेवाले व [ख] वेद विज्ञान का अपने में पूरण करनेवाले लोगों का (घोषम्) = प्रभुस्तवन का शब्द (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (वि अतपद्) = विशिष्टरूप से दीप्त करता है। प्रभुस्तवन द्वारा ये मस्तिष्क को उज्ज्वल व शरीर को तेजोदीप्त [तेजस्वी] बनाते हैं । [३] (जाते) = विकास में (निष्ठाम्) = [firm adherence] दृढ़ विश्वास को (अदधुः) = धारण करते हैं। विकास के लिए कटिबद्ध होकर चलते हैं और (गोषु वीरान्) = [प्राणा वै दश वीराः यजु० १९४८] इन्द्रियों में प्राणों को स्थापित करते हैं- इन्द्रियों को सशक्त बनाते हैं। इनकी एक-एक इन्द्रिय प्राणशक्ति सम्पन्न बनी रहती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्कृष्ट जीवन यह है कि – [क] आत्मदर्शन करते हुए हम आनन्द का अनुभव करें, [ख] सनातन वेदवाणी के ज्ञान का अपने में पूरण करें, [ग] प्रभुस्तवन से मस्तिष्क को उज्ज्वल व शरीर को तेजस्वी बनाएँ, [घ] विकास में निष्ठा को करें और [ङ] इन्द्रियों को सशक्त बनाएँ ।

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    विषय

    गौओं से दुग्धवत् आत्म ज्ञान का उपार्जन, इसी प्रकार राजा का दुग्धवत् भूमि-दोहन।

    भावार्थ

    (रेतसः पयः दुधानाः) उत्तम वीर्य के उत्पादक दूध को जिस प्रकार गौओं से दुहा जाता है उसी प्रकार (प्रत्नस्य) सर्वश्रेष्ठ, सनातन से चले आये (रेतसः) बल वीर्य, ब्रह्म विज्ञान के उत्पादक (स्वं) अपने आत्मा को (पयः) वृद्धि या पुष्टकारक ज्ञान रूपसे (दुधानाः) पूर्ण करते हुए और (स्वम् सम्पश्यमानाः) अपने ही आत्मा को सम्यक् दृष्टि से साक्षात करते हुए (अभि अमदन्) खूब प्रसन्न और हर्षित होते हैं। (एषां) उनको (घोषः) वाणी, उपदेश ही (रोदसी) सूर्य और पृथिवी के समान समस्त स्त्री पुरुषों को (वि अतपत्) विविध प्रकार से तपाता या तपस्या करता है। वे विद्वान् गण (जाते) अपने पुत्र के समान शिष्य में हो (निः-स्थाम् अदधुः) निष्ठा को धारण कराते ओर (गोषु) वाणियों, विद्याओं में (वीरान्) वीर्यवान् पुरुषों को (अदधुः) नियुक्त: करते हैं। वीर पुरुष अपने पूर्व के संचित सुरक्षित वीर्य से उत्पन्न अपने पुष्टिकारी बल को देखते और पूर्ण करते हुए अपनी आज्ञा से स्वपक्ष और परपक्ष दोनों को स्थापित करते हैं। (जाते) प्राप्त राष्ट्र में या प्रसिद्ध पुरुष में स्थिरता प्राप्त करते और भूमियों पर वीरों को स्थापित करते हैं ! (२) अध्यात्म में (वीरान्) प्राणों को।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे उत्तम विचार करणारे धार्मिक विद्वान पुरुष असतात त्यांनी अनादि आत्मसामर्थ्य वाढवावे. सर्व लोकांसाठी सत्य व असत्याचा उपदेश करून दुष्टता दूर करून श्रेष्ठता धारण करतात ते शूरवीर असतात, हे जाणले पाहिजे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Watching and realising their own selves they rejoice, tasting the sweets of light and life eternal. The voice of the ecstasy of these settled celebrants rises and shines across earth and heaven and they confirm their faith in the world of Indra’s creation and install their faithful heroes on guard over earths and divine voices of love and faith.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the enlightened persons do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who see (visualize) their own soul and preserve their mature semen (like milk) are well delighted. The speech of these resolute men shakes or makes repentant even the wicked persons like the sun heats the earth and the sky. In this illustrious world, they uphold the virtuous brave persons on earth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The thoughtful righteous persons develop the eternal spiritual power and uphold righteousness by setting aside all evils and preach the nature of truth and falsehood. They are to be considered as real heroes.

    Foot Notes

    (घोषः ) वाणी । घोष इति वाङ्नाम । (N.G. 1, 11) = Voice, speech. (गोषु ) पृथिव्यादिषु । गौरिति पृथिवी नाम । (N.G, 1, 1) = On earth and other worlds.

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