ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 18
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पति॑र्भव वृत्रहन्त्सू॒नृता॑नां गि॒रां वि॒श्वायु॑र्वृष॒भो व॑यो॒धाः। आ नो॑ गहि स॒ख्येभिः॑ शि॒वेभि॑र्म॒हान्म॒हीभि॑रू॒तिभिः॑ सर॒ण्यन्॥
स्वर सहित पद पाठपतिः॑ । भ॒व॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । सू॒नृता॑नाम् । गि॒राम् । वि॒श्वऽआ॑युः । वृ॒ष॒भः । व॒यः॒ऽधाः । आ । नः॒ । ग॒हि॒ । स॒ख्येभिः॑ । शि॒वेभिः॑ । म॒हान् । म॒हीभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । स॒र॒ण्यन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पतिर्भव वृत्रहन्त्सूनृतानां गिरां विश्वायुर्वृषभो वयोधाः। आ नो गहि सख्येभिः शिवेभिर्महान्महीभिरूतिभिः सरण्यन्॥
स्वर रहित पद पाठपतिः। भव। वृत्रऽहन्। सूनृतानाम्। गिराम्। विश्वऽआयुः। वृषभः। वयःऽधाः। आ। नः। गहि। सख्येभिः। शिवेभिः। महान्। महीभिः। ऊतिऽभिः। सरण्यन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 18
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे वृत्रहन्निन्द्र राजँस्त्वं महान् विश्वायुर्वृषभो वयोधाः शिवेभिः सख्येभिर्महीभिरूतिभिः सह सरण्यन्सन् सूनृतानां गिरां पतिर्भव नोऽस्मानागहि ॥१८॥
पदार्थः
(पतिः) पालकः स्वामी (भव) (वृत्रहन्) मेघहन्ता सूर्य इव वर्त्तमान (सूनृतानाम्) सुष्ठु ऋतानि सत्यानि यासु तासाम् (गिराम्) वाचाम् (विश्वायुः) पूर्णायुः (वृषभः) सुखवर्षकः (वयोधाः) यो वयो जीवनं दधाति सः (आ) (नः) अस्मान् (गहि) आगच्छ प्राप्नुहि (सख्येभिः) सखीनां कर्मभिः (शिवेभिः) मङ्गलकारिभिः (महान्) पूज्यतमः (महीभिः) महतीभिः (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (सरण्यन्) आत्मनः सरणं गमनं विज्ञानं वेच्छन् ॥१८॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सत्यवाचोऽजातशत्रवः स्वात्मवत्सर्वेषां पालकाः सूर्य्यवद्विद्याधर्मविनयप्रकाशका विद्वांसः स्वामिनस्स्युस्ते महान्तो भवेयुः ॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (वृत्रहन्) मेघ के नाशकारक सूर्य्य के सदृश तेजधारी राजन् ! आप (महान्) प्रतिष्ठित (विश्वायुः) पूर्ण आयु से युक्त (वृषभः) सुखों की वृष्टि और (वयोधाः) जीवन के धारण करनेवाले (शिवेभिः) मङ्गलकारक (सख्येभिः) मित्रों के कर्म्मों से (महीभिः) बड़ी (ऊतिभिः) रक्षाओं आदि से युक्त (सरण्यन्) अपने चलन वा विज्ञान की इच्छा करते हुए (सूनृतानाम्) उत्तम सत्य से युक्त (गिराम्) वाणियों के (पतिः) पालनकर्त्ता (भव) हूजिये और (नः) हम लोगों को (आ, गहि) प्राप्त हूजिये ॥१८॥
भावार्थ
जो मनुष्य सत्य बोलने शत्रुता को त्यागने अपने प्राण के तुल्य सम्पूर्ण जनों के पालन करने और सूर्य्य के सदृश विद्या धर्म और नम्रता के प्रकाश करनेवाले विद्वान् स्वामी हों, वे श्रेष्ठ होवैं ॥१८॥
विषय
प्रभुप्राप्ति का मार्ग
पदार्थ
[१] हे (वृत्रहन्) = वासना को विनष्ट करनेवाले! तू (सूनृतानां गिराम्) = प्रिय सत्यवाणियों का (पतिः) = स्वामी भव हो । सदा प्रिय सत्यवाणियों को ही तू बोल । (विश्वायुः) = तू पूर्ण जीवनवाला हो- शरीर में स्वस्थ, मन में शान्त तथा मस्तिष्क में दीप्त। (वृषभ:) = सब पर सुखों का वर्षण करनेवाला हो । (वयोधाः) = [वयः = अन्नं] उत्कृष्ट अन्न का धारण करनेवाला हो। इस उत्कृष्ट अन्न के सेवन से ही तेरा जीवन उत्तम बनेगा। [२] (शिवेभिः) = कल्याणकर (सख्येभिः) = मित्रताओं से तू (नः) = हमारे प्रति (आगहि) = आनेवाला हो। संसार में सबके प्रति तेरा मित्रता का भाव हो । तेरी मित्रता शिव हो-सबका कल्याण करनेवाली हो । यही प्रभुप्राप्ति का मार्ग है। (महान्) = तू विशाल हृदय बन । (महीभिः ऊतिभिः) = महनीय रक्षणों द्वारा (सरण्यन्) = गमन की इच्छावाला हो । तू सदा क्रियामय जीवनवाला हो और तेरी क्रियाएँ सभी का रक्षण करनेवाली हों ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुप्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम [क] प्रिय सत्यवाणी को अपनाएँ, [ख] शरीर, मन व बुद्धि तीनों को ठीक रखते हुए जीवन को पूर्ण बनाने का प्रयत्न करें, [ग] सबके साथ मित्रता से चलें, [घ] हमारी प्रवृत्ति रक्षणात्मक हो ।
विषय
सूर्य वा मेघवत् राजा उदार हो।
भावार्थ
हे (वृत्रहन्) मेघों को छिन्न भिन्न करने वाले सूर्य के समान तेजस्वी राजन् ! हे शत्रुओं के नाशक ! सूर्य जिस प्रकार (विश्वायुः) सबको आयु, दीर्घ जीवन देने वाला, (वयोधाः) बल धारण कराने वाला, (वृषभः) मेघ से वृष्टि करने वाला (गिरां पतिः) अन्तरिक्षस्थ मेघ गर्जनाओं का स्वामी है उसी प्रकार तू (विश्वायुः) समस्त मनुष्यों का स्वामी, सबके जीवनों का रक्षक (वयोधाः) बल और विज्ञान को धारण करने वाला, (वृषभः) शान्ति, सुख का वर्षक (सूनृतानां गिरां) उत्तम सत्य ज्ञान से पूर्ण वाणियों और उत्तम ज्ञान धन वा अन्नों से समृद्ध स्तुतिकर्त्ताओं का (पतिः भव) पालक हो। तू (शिवेभिः) कल्याणकारी, (सख्येभिः) मित्रता के भावों, कार्यों से, और (महीभिः ऊतिभिः) बड़ी रक्षा करने वाली शक्तियों और रक्षा साधनों से (महान्) महान् आदरणीय होकर (सरण्यन्) सबके जाने योग्य उत्तम मार्ग के समान सबका चारा होता हुआ वा स्वयं उत्तम ज्ञान को प्राप्त करता हुआ (नः) हमें (आगहि) प्राप्त हो !
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सत्य वचन, शत्रुत्वाचा त्याग, आपल्या प्राणाप्रमाणे संपूर्ण लोकांचे पालन व सूर्याप्रमाणे विद्या, धर्म व नम्रतेचा प्रकाश करणारे विद्वान असून स्वामी असतील तर ते श्रेष्ठ असतात. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Be the protector, sustainer, and promoter of the voices of truth and cosmic laws of existence, O dispeller of darkness, breaker of the cloud and destroyer of evil. You are great, life eternal, generous and virile, universal giver of good health and full age. Come, take us on, moving, reaching, inspiring, with friendship, kindness and benevolence, and bless us with divine modes of protection and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of functions and duties of the enlightened rulers is stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O King like the sun you dissolve the clouds, and being great you shower happiness, long lived and upholder of our lives (by making proper sanitary and other arrangements). Come to us with your (yet) doubtful friendship and mighty protection, for we desire your proper movement and knowledge. Be the Lord (Master) of true and sweet speech.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those highly learned persons become great who are sincerely friendly to all and therefore they are devoid of enemies. They protect all like themselves, illuminate true knowledge, Dharma (righteousness) and humility and are the true masters of their senses.
Foot Notes
(वृषभः) सुखवर्षक:। = Showerer of happiness. (सरण्यन्) आत्मनः सरणं गमनं विज्ञानं वेच्छन् । = Desiring one's movement or knowledge.
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