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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 22
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन्भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒नम् । हु॒वे॒म॒ । म॒घवा॑नम् । इन्द्र॑म् । अ॒स्मिन् । भरे॑ । नृऽत॑मम् । वाज॑ऽसातौ । शृ॒ण्वन्त॑म् । उ॒ग्रम् । ऊ॒तये॑ । स॒मत्ऽसु॑ । घ्नन्त॑म् । वृ॒त्राणि॑ । स॒म्ऽजित॑म् । धना॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ। शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुनम्। हुवेम। मघवानम्। इन्द्रम्। अस्मिन्। भरे। नृऽतमम्। वाजऽसातौ। शृण्वन्तम्। उग्रम्। ऊतये। समत्ऽसु। घ्नन्तम्। वृत्राणि। सम्ऽजितम्। धनानाम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 22
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ के विजयिनो भवन्तीत्याह।

    अन्वयः

    हे वीरा यथा वयमूतये सूर्य्यो वृत्राणीवाऽस्मिन् भरे वाजसातौ धनानां सञ्जितं नृतमं समत्सु घ्नन्तं शृण्वन्तमुग्रं शुनं मघवानमिन्द्रं हुवेम तथैतं यूयमप्याह्वयत ॥२२॥

    पदार्थः

    (शुनम्) वर्धकम् (हुवेम) स्वीकुर्याम प्रशंसेम (मघवानम्) परमधनयुक्तम् (इन्द्रम्) शत्रूणां विदारितारम् (अस्मिन्) वर्त्तमाने (भरे) भरणीये (नृतमम्) अतिशयेन नायकम् (वाजसातौ) अन्नादिविभाजके सङ्ग्रामे (शृण्वन्तम्) (उग्रम्) तेजस्विनम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (घ्नन्तम्) नाशयन्तम् (वृत्राणि) मेघावयवानिव (सञ्जितम्) सम्यग्जयशीलम् (धनानाम्) ॥२२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। तेषामेव ध्रुवो विजयो येषां पुष्कलधनबलाः सर्वेषां कथन श्रोतारो नरोत्तमा युद्धेषु शत्रूणां हन्तारो विजयमानाः स्युरिति ॥२२॥ अत्र वह्निविद्वद्राजसेनामित्रवागुपदेशकप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकाधिकत्रिंशत्तमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब कौन विजयी होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे वीर पुरुषो ! जैसे हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (वृत्राणि) मेघों के अवयवों को सूर्य्य के समान (अस्मिन्) इस वर्त्तमान (भरे) पुष्ट करने के योग्य (वाजसातौ) अन्न आदि के विभागकारक संग्राम में (धनानाम्) धनों के (सञ्जितम्) उत्तम प्रकार जीतनेवाले (नृतमम्) अतिप्रधान (समत्सु) संग्रामों में (घ्नन्तम्) नाश करते और (शृण्वन्तम्) सुनते हुए (उग्रम्) तेजस्वी (शुनम्) वृद्धिकर्त्ता (मघवानम्) अत्यन्त धन से युक्त (इन्द्रम्) शत्रुओं के विदारनेवाले का (हुवेम) स्वीकार वा प्रशंसा करें, वैसे इस पुरुष का आप लोग भी आह्वान करें ॥२२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। उन्हीं लोगों का निश्चय विजय होता है कि जिनके अत्यन्त धन बलयुक्त और सब वचनों के सुननेवाले श्रेष्ठ पुरुष जो कि संग्रामों में शत्रुओं के मारने जीतनेवाले हों ॥२२॥ इस मन्त्र में अग्नि, विद्वान्, राजा की सेना, मित्र, वाणी, उपदेशकर्त्ता और प्रजा के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इक्तीसवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    नृतम प्रभु

    पदार्थ

    मन्त्र व्याख्या ३.३०.२२ पर द्रष्टव्य है । सम्पूर्ण सूक्त इस बात का प्रतिपादन कर रहा है कि वासनाओं का विनाश करें, ज्ञान को बढ़ाते हुए परमात्मा को प्राप्त करनेवाले बनें। इसी उद्देश्य से हमें सोम का रक्षण करना है। गृहस्थ में भी इस सोम का अपव्यय नहीं करना। इसी भावना के प्रतिपादन से अगले सूक्त का प्रारम्भ है -

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    विषय

    सूर्यवत् भूमि पर राजा का शासन और दुष्टदमन का वर्णन।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो ३। ३०। २२॥ इत्यष्टमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्यांचे धन व बल अमाप असते व जे नरश्रेष्ठ सर्वांचे वचन ऐकतात, युद्धात शत्रूंचे हनन करून त्यांना जिंकतात त्याच लोकांचा निश्चित विजय होतो. ॥ २२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Fighting for victory in this battle of life, for the sake of defence, protection and advance in the engagements of action, we invoke and call upon Indra, auspicious lord of power and prosperity, first and highest among leaders, careful listener, fierce, passionate and noble winner of wealth and victory.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The keynote to victory is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O brave persons ! we invoke a commander of the army for protection in this battle where food-grains and other articles are distributed. That commander inspires, and exhorts the heroes and is blessed with admirable wealth. He is the destroyer of the foes, conqueror of riches, and is the best among common men. He slays his enemies, but pays attention to the requests/complaints of his subordinates. Such a commander is fierce for the wicked and is, full the of splendor. So, you should also emulate it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons surely achieve victory who have strong rich and the best leaders. They listen attentively to the requests and complaints of the people and slay the foes in the battle like the sun does to the clouds.

    Foot Notes

    (शुनम् ) कर्धकम्। = Encourager Exhorter. (इन्द्रम् ) शत्रूणां विदारयितारम् | (इन्द्रः) इन्द्रः = इन्दन् शत्रुणां दारयिता वा द्रावयिता वैति (N.R.T. 10, 1, 8) = Destroyer of the foes. (वृत्राणि ) मेघावयवानिव | = Like the cloud destroyed by the sun.

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