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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पि॒त्रे चि॑च्चक्रुः॒ सद॑नं॒ सम॑स्मै॒ महि॒ त्विषी॑मत्सु॒कृतो॒ वि हि ख्यन्। वि॒ष्क॒भ्नन्तः॒ स्कम्भ॑नेना॒ जनि॑त्री॒ आसी॑ना ऊ॒र्ध्वं र॑भ॒सं वि मि॑न्वन्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒त्रे । चि॒त् । च॒क्रुः॒ । सद॑नम् । सम् । अ॒स्मै॒ । महि॑ । त्विषि॑ऽमत् । सु॒ऽकृतः॑ । वि । हि । ख्यन् । वि॒ऽस्क॒भ्नन्तः॑ । स्कम्भ॑नेन । जनि॑त्री॒ इति॑ । आसी॑नाः । ऊ॒र्ध्वम् । र॒भ॒सम् । वि । मि॒न्व॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पित्रे चिच्चक्रुः सदनं समस्मै महि त्विषीमत्सुकृतो वि हि ख्यन्। विष्कभ्नन्तः स्कम्भनेना जनित्री आसीना ऊर्ध्वं रभसं वि मिन्वन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पित्रे। चित्। चक्रुः। सदनम्। सम्। अस्मै। महि। त्विषिऽमत्। सुऽकृतः। वि। हि। ख्यन्। विऽस्कभ्नन्तः। स्कम्भनेन। जनित्री इति। आसीनाः। ऊर्ध्वम्। रभसम्। वि। मिन्वन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 12
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    ये सुकृतो विष्कभ्नन्तो महत्तत्त्वादीनां जनित्री प्रकृतिरिवासीनाः स्कम्भनेनोर्ध्वं रभसं विमिन्वन् विद्यां विख्यन् हि चिदप्यस्मै पित्रे त्विषीमन्महि सदनं संश्चक्रुस्ते कृतकृत्या विद्वांसः स्युः ॥१२॥

    पदार्थः

    (पित्रे) पालकाय (चित्) अपि (चक्रुः) कुर्य्युः (सदनम्) स्थानम् (सम्) (अस्मै) (महि) महत् (त्विषीमत्) बह्व्यस्त्विषयो दीप्तयो विद्यन्ते यस्मिँस्तत्। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (सुकृतः) ये शोभनानि धर्म्याणि कर्माणि कुर्वन्ति ते (वि) (हि) यतः (ख्यन्) प्रकाशयन्ति (विष्कभ्नन्तः) ये विशेषेण स्कभ्नन्ति धरन्ति ते (स्कम्भनेन) धारणेन। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (जनित्री) मातृवत्सर्वेषां महत्तत्त्वादीनामुत्पादिका (आसीनाः) स्थिराः (ऊर्ध्वम्) (रभसम्) वेगम् (वि) (मिन्वन्) विशेषेण प्रक्षिपन्ति ॥१२॥

    भावार्थः

    यथा विभ्व्याः प्रकृतेः सकाशान्महत्तत्त्वादीनि निर्म्माय जगत्सर्वं जगदीश्वरो विदधाति तथैव विद्वांसः पितृवद्वर्त्तमानाः सन्तः सर्वार्थं सुखं विदधति पदार्थविद्यां साक्षात्कृत्योपदिशन्ति च ॥१२॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (सुकृतः) उत्तमधर्म सम्बन्धी कर्म करने और (विष्कभ्नन्तः) विशेष करके धारण करनेवाले महत्तत्त्व अर्थात् बुद्धि आदि की (जनित्री) उत्पन्न करनेवाली प्रकृति के सदृश (आसीनाः) स्थिर (स्कम्भनेन) धारण करने से (ऊर्ध्वम्) ऊँचे (रभसम्) वेग को (वि) (मिन्वन्) विशेष करके फेंकते और विद्या को (वि) (ख्यन्) प्रकाश करते वा (हि) जिसकारण (चित्) ही (अस्मै) इस (पित्रे) पालन करनेवाले के लिये (त्विषीमत्) बहुत कान्तियों से युक्त (महि) बड़े (सदनम्) स्थान को (सम्) (चक्रुः) सम्पन्न करें, वे कृतकृत्य विद्वान् होवें ॥१२॥

    भावार्थ

    जैसे व्यापक प्रकृति के द्वारा महत्तत्त्व आदि को रचकर सम्पूर्ण जगत् को ईश्वर रचता है, वैसे ही विद्वान् जन पिता के सदृश वर्त्तमान होकर सम्पूर्ण जनों के लिये सुख धारण करते और पदार्थविद्या का प्रत्यक्ष अभ्यास करके शिक्षा देते हैं ॥१२॥

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    विषय

    पितृ-सदन

    पदार्थ

    [१] (अस्मै) = इस (पित्रे) = सम्पूर्ण संसार के पिता [रक्षक] परमात्मा के लिए (चित्) = निश्चय से (महि) = पूजा की वृत्तिवाले, (त्विषीमत्) = ज्ञान की दीप्तिवाले (सदनम्) - हृदयरूप निवास स्थान को (संचक्रुः) = सम्यक् बनाते हैं, अर्थात् हृदय को उपासना व ज्ञान से निर्मल व दीप्त करके उसमें प्रभु को आसीन करते हैं। ये (सुकृतः) = पुण्यशाली लोग (हि) = ही (विख्यन्) = विशेषरूप से उस प्रभु का साक्षात्कार करते हैं । [२] ये लोग (जनित्री) = सब शक्तियों के आविर्भाववाले [जनी प्रादुर्भावे] द्यावापृथिवी, मस्तिष्क व शरीर को (स्कम्भनेन) = वीर्यशक्ति के स्कम्भन द्वारा (विष्कभ्नन्तः) = विशेषरूप से धारण करते हुए, (ऊर्ध्वं आसीना:) = वासनाओं से ऊपर स्थित हुए हुए, अर्थात् विषय वासनाओं में न फँसे हुए (रभसम्) = [joy, pleasure, delight] आनन्द का (विमिन्वन्) = अपने में विशेषरूप से स्थापन करते हैं [विशेषेणास्थापयन् सा०] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदयों को पवित्र व दीप्त बनाकर वहाँ प्रभु को आसीन करें- प्रभु की उपासना करें। वीर्य के संयम से मस्तिष्क व शरीर को उत्तम बनाकर, विषयों में न फँसते हुए, आनन्द में स्थित हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे व्यापक प्रकृतीपासून महत्तत्त्व इत्यादी उत्पन्न करून ईश्वर संपूर्ण जगाला निर्माण करतो, तसेच विद्वान लोक पित्याप्रमाणे संपूर्ण लोकांना सुख देतात व पदार्थविद्येचा प्रत्यक्ष अभ्यास करून शिक्षण देतात. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Divine experts of cosmic action build for this father creator and ruler, Indra, a great home, bright and beautiful, illuminate it and proclaim it wide. Themselves sitting firm on the vedi, holding and supporting it as Prakrti, nature’s creative and sustaining force of cosmic gravity, they cast it up in orbit, measuring the force upward and the force of gravity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The functions of enlightened persons are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those learned persons fulfil the object of their lives who perform noble deeds upholding all, seated firmly like the Matter-the originator of the Mahat Tatva etc. like the mother. By their upholding power, they throw their strength upwards (utilize it for the uplift of the people) and illuminate knowledge. They make spacious and splendid abodes for their fathers and family members and make them perfectly happy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God creates the world from the Matter through the Mahat Tatva (great principle) etc. and sustains it. In the same manner, the enlightened persons bring about the welfare of all beings like fathers, and teach them the science having understood and mastered over it perfectly.

    Foot Notes

    (स्कम्भनेन ) धारणेन । अत्र संहितायामिति दीर्घः = By holding. (जनित्री) मातृवत्सर्वेषां महत्तस्त्वादीनामुत्पादिका = The Matter-generator of Maha Tatwa (great principle) etc. like the mother.

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