ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 11
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स जा॒तेभि॑र्वृत्र॒हा सेदु॑ ह॒व्यैरुदु॒स्रिया॑ असृज॒दिन्द्रो॑ अ॒र्कैः। उ॒रू॒च्य॑स्मै घृ॒तव॒द्भर॑न्ती॒ मधु॒ स्वाद्म॑ दुदुहे॒ जेन्या॒ गौः॥
स्वर सहित पद पाठसः । जा॒तेभिः॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । सः । इत् । ऊँ॒ इति॑ । ह॒व्यैः । उत् । उ॒स्रियाः॑ । अ॒सृ॒ज॒त् । इन्द्रः॑ । अ॒र्कैः । उ॒रू॒ची । अ॒स्मै॒ । घृ॒तऽव॑त् । भर॑न्ती । मधु॑ । स्वाद्म॑ । दु॒दु॒हे॒ । जेन्या॑ । गौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स जातेभिर्वृत्रहा सेदु हव्यैरुदुस्रिया असृजदिन्द्रो अर्कैः। उरूच्यस्मै घृतवद्भरन्ती मधु स्वाद्म दुदुहे जेन्या गौः॥
स्वर रहित पद पाठसः। जातेभिः। वृत्रऽहा। सः। इत्। ऊँ इति। हव्यैः। उत्। उस्रियाः। असृजत्। इन्द्रः। अर्कैः। उरूची। अस्मै। घृतऽवत्। भरन्ती। मधु। स्वाद्म। दुदुहे। जेन्या। गौः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यो वृत्रहेन्द्र उस्रिया उदसृजदिवार्कैर्हव्यैर्जातेभिः सह पदार्थानसृजत्स इत्सुखमाप्नोति। या उरूची घृतवत्स्वाद्म मधु भरन्ती जेन्या गौरस्मै दुदुहे तां स उ विद्यात् ॥११॥
पदार्थः
(सः) (जातेभिः) उत्पन्नैः सह (वृत्रहा) मेघस्य हन्ता सूर्य्य इव (सः) (इत्) एव (उ) (हव्यैः) आदातुमर्हैः (उत्) (उस्रियाः) गावः किरणाः (असृजत्) सृजति (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यहेतुः (अर्कैः) अर्चनीयैर्मनुष्यैः सह (उरूची) योरूणि बहून्यञ्चति सा (अस्मै) (घृतवत्) घृतमाज्यमुदकं वा प्रशस्तं विद्यते यस्मिँस्तत् (भरन्ती) धरन्ती (मधु) मधुरगुणोपेतम् (स्वाद्म) स्वादिष्ठम् (दुदुहे) दुह्यते (जेन्या) जेतुं योग्या (गौः) पृथिवी ॥११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः स्वप्रकाशेन सर्वानुत्पन्नान् सृष्टिपदार्थान् प्रकाशयति तथैव विद्वान् विज्ञानेन सर्वान् विदित्वा सर्वत्र प्रकाशयेत् ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (वृत्रहा) मेघ के नाशकर्त्ता सूर्य्य के सदृश (इन्द्रः) अतिश्रेष्ठ ऐश्वर्य्य का कारण (उस्रियाः) वाणियों को किरणों के सदृश (उत्, असृजत्) उत्पन्न करता है (अर्कैः) आदर करने योग्य मनुष्यों (हव्यैः) ग्रहण करने के योग्य पदार्थों और (जातेभिः) उत्पन्न हुए व्यवहारों के साथ पदार्थों को (असृजत्) उत्पन्न करता है (स, इत्) वही सुख को प्राप्त होता है जो (उरूची) बहुतों का सत्कार करती (घृतवत्) घृत वा जल उत्तमता युक्त (स्वाद्म) स्वादिष्ठ (मधु) मीठे गुण से युक्त पदार्थ को (भरन्ती) धारण करती हुई (जेन्या) जीतने योग्य (गौः) पृथिवी (अस्मै) उस ऐश्वर्य्य के लिये (दुदुहे) दुही जाती है उसको वह पुरुष (उ) ही जानै ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य अपने प्रकाश से सम्पूर्ण उत्पन्न हुए सृष्टि के पदार्थों का प्रकाश करता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष विज्ञान से सम्पूर्ण पदार्थों को जानकर उसका सर्वत्र प्रकाश करें ॥११॥
विषय
हव्य+अर्क
पदार्थ
[१] (सः) = वह गतमन्त्र का उपासक (जातेभिः) = इन्द्रिय-शक्तियों के विकास द्वारा (वृत्रहा) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को नष्ट करनेवाला होता है। (सः इत् उ) = यह वासना को विनष्ट करनेवाला (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष ही (हव्यैः) = अग्निहोत्रादि द्वारा तथा (अर्कैः) = उपासना-मन्त्रों द्वारा, अर्थात् यज्ञों व उपासनाओं द्वारा (उस्त्रिया:) = [brightness, light] ज्ञान-प्रकाशों को (उद् असृजत्) = अपने अन्दर उत्कर्षेण निर्मित करता है। [२] (अस्मै) = इसके लिए (उरूची) = [उरु अञ्चति] व्यापक ज्ञानवाली, (घृतवत् भरन्ती) = मलों के क्षरण व दीप्तिवाले भरण [=पोषण] को करती हुई, अर्थात् इसके जीवन को निर्मल व दीत बनाती हुई, (जेन्या) = विजय प्राप्त करानेवाली यह (गौः) = वेदवाणीरूप गौ (स्वाद्म मधु) = अत्यन्त आनन्दप्रद सारभूत ज्ञान को (दुदुहे) = दोहती है। वेदवाणी से इसे वह ज्ञान प्राप्त होता है, जो इसके जीवन को मधुर बनाता है। वेदवाणी व्यापक ज्ञानवाली होने से 'उरूची' है। हमारे जीवनों को निर्मल व दीप्त बनाने के कारण यह 'घृतवद् भरन्ती' है। हमें विजयी बनाने से यह 'जेन्या' है। इसका ज्ञानदुग्ध 'मधु स्वाद्म' है। इसका स्वादिष्ट व मधुर ज्ञानदुग्ध हमारे जीवन को भी आनन्दयुक्त व मधुर बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- वासना को विनष्ट करके हम ज्ञान प्राप्त करें। इससे ही हमारा जीवन मधुर व आनन्दमय बनेगा। यह जीवन यज्ञों [हव्य] व स्तवन [अर्क] से परिपूर्ण होता है।
विषय
शत्रुहन्ता का आदर और पोषण।
भावार्थ
(सः) वह वलवान् पुरुष (जातेभिः) प्रसिद्ध बलशाली पुरुषों द्वारा, उनकी सहायता से (वृत्रहा) विघ्नकारी, बढ़ते शत्रुओं को नाश करने हारा होता है (सः) वह (इत् उ) ही (हव्यैः) वेतनादि देने योग्य, उत्तम नाम पदों से व्यवहार करने योग्य (अर्कैः) अर्चना योग्य पूज्य, स्तुत्य पुरुषों से (उस्त्रियाः) उर्वरा भूमियों को (असृजत्) युक्त करता है। और (जेन्या गौः) विजय करने योग्य, वह भूमि (उरुची) बहुत से ऐश्वर्यो से युक्त होकर स्वयं (घृतवत् मधु) जलों से युक्त अन्न (स्वाद्म) उत्तम खाने योग्य स्वादु पदार्थ (भरन्ती) धारण करती हुई (दुदुहे) गौ के समान प्रदान करती है। (२) विद्वान् पुरुष (जातेभिः) प्रादुर्भूत हुए मन्त्रों या विचारों द्वारा (उस्त्रियाः) वाणियों को प्रकट करे । यह (जेन्या गौः) विजयशालिनी वाणी (उरूची) बहुत ज्ञान युक्त होकर गौ के समान स्नेह युक्त मधुर सुख कर परिणाम उत्पन्न करती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य आपल्या प्रकाशाने उत्पन्न झालेल्या सृष्टीच्या संपूर्ण पदार्थांना प्रकाशित करतो, तसे विद्वान पुरुषांनी विज्ञानाद्वारे पदार्थांना जाणून सर्वत्र प्रकट करावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He, Indra, destroyer of darkness, dispeller of ignorance and breaker of the cloud, with simultaneous creations, yajnic materials and yajnic processes of consumption and formation, creates the rays of light in the solar region, planets in the firmament and cows on earth. The wide earth, a very generous mother cow full of wealth, bearing precious ghrta, water and honey sweets of herbs distils the nectar foods and other delicious materials from nature for this Indra in the service of living beings.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of enlightened persons is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Indra (the sun ) destroys the clouds and generates the rays. In the same manner, an enlightened person blessed with great wealth and accompanied by venerable persons with acceptable articles produces or manufactures many things and enjoys happiness. The earth which is symbol of honor is to be won back if lost, and one should uphold sweetness containing much water and delicious ghee (clarified butter) procured for him. He should also know the real nature and attributes of the earth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun illuminates all objects of the world with his light, in the same manner, an enlightened man should know the real nature of all objects and should tell others about it.
Foot Notes
(वृत्रहा ) मेघस्य हन्ता सूर्य्य इव । वृत्र इति मेघनाम । ( N.G. 1, 10) = Like the sun-destroyer of the clouds. (उस्रिया:) गाव: किरणा:। उस्त्रिया इति गोनाम (N. G. 2, 11) उस्रा इति रश्मिनाम । ( N. G. 1, 5 ) = The rays.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal