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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    महि॒ क्षेत्रं॑ पु॒रुश्च॒न्द्रं वि॑वि॒द्वानादित्सखि॑भ्यश्च॒रथं॒ समै॑रत्। इन्द्रो॒ नृभि॑रजन॒द्दीद्या॑नः सा॒कं सूर्य॑मु॒षसं॑ गा॒तुम॒ग्निम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    महि॑ । क्षेत्र॑म् । पु॒रु । च॒न्द्रम् । वि॒वि॒द्वान् । आत् । इत् । सखि॑ऽभ्यः । च॒रथ॑म् । सम् । ऐ॒रत् । इन्द्रः॑ । नृऽभिः॑ । अ॒ज॒न॒त् । दीद्या॑नः । सा॒कम् । सूर्य॑म् । उ॒षस॑म् । गा॒तुम् । अ॒ग्निम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महि क्षेत्रं पुरुश्चन्द्रं विविद्वानादित्सखिभ्यश्चरथं समैरत्। इन्द्रो नृभिरजनद्दीद्यानः साकं सूर्यमुषसं गातुमग्निम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महि। क्षेत्रम्। पुरु। चन्द्रम्। विविद्वान्। आत्। इत्। सखिऽभ्यः। चरथम्। सम्। ऐरत्। इन्द्रः। नृऽभिः। अजनत्। दीद्यानः। साकम्। सूर्यम्। उषसम्। गातुम्। अग्निम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 15
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यो विविद्वान् दीद्यान इन्द्र इव सखिभ्य इन्महि पुरुश्चन्द्रं क्षेत्रं चरथं च समैरदान्नृभिः साकं सूर्य्यमुषसं गातुमग्निमजनत्तं सदा सत्कुरुत ॥१५॥

    पदार्थः

    (महि) महत् (क्षेत्रम्) क्षियन्ति निवसन्ति पदार्था यस्मिंस्तत् (पुरु) बहु (चन्द्रम्) सुवर्णम्। अत्र ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्र इति सुडागमः। (विविद्वान्) वेत्ता (आत्) (इत्) एव (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (चरथम्) गमनं विज्ञानं या (सम्) सम्यक् (ऐरत्) प्रेरयेत्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं बहुलं छन्दसीति शपो लुङ् न। (इन्द्रः) विद्युदिव सुखप्रदो दुःखविदारकः (नृभिः) नायकैः (अजनत्) जनयेत् (दीद्यानः) देदीप्यमानः (साकम्) सह (सूर्य्यम्) सवितारम् (उषसम्) प्रभातम् (गातुम्) वाणीं भूमिं वा (अग्निम्) भौमं पावकम् ॥१५॥

    भावार्थः

    यथा विद्यया सुसंप्रयुक्ता विद्युत्सूर्य्यभूमिपावकाः प्रातरादिसमय ऐश्वर्य्यं जनयित्वा सखीन् सुखयन्ति तथैव विद्वांसो मनुष्यादीन्प्राणिनः सुखयन्तु ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (विविद्वान्) ज्ञाता और (दीद्यानः) प्रकाशमान (इन्द्रः) बिजुली के सदृश सुख का वर्द्धक और दुःख का नाशक (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (इत्) ही (महि) बड़ा (पुरु) बहुत (चन्द्रम्) सुवर्ण (क्षेत्रम्) पदार्थों का आधार (चरथम्) गमन वा विज्ञान की (सम्) (ऐरत्) प्रेरणा करे (आत्) उसके अनन्तर (नृभिः) प्रधान जनों के (साकम्) साथ (सूर्य्यम्) सूर्य्य (उषसम्) प्रातःकाल (गातुम्) वाणी वा भूमि और (अग्निम्) अग्नि को (अजनत्) उत्पन्न करे, उसका सदा सत्कार करो ॥१५॥

    भावार्थ

    जैसे विद्या से युक्त बिजुली सूर्य्य भूमि और अग्नि प्रातःकालादि समय में ऐश्वर्य को उत्पन्न कर मित्रों को सुख देते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग मनुष्य आदि प्राणियों को सुख देवें ॥१५॥

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    विषय

    सर्वप्रद प्रभु

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु (महि क्षेत्रम्) = महत्त्वपूर्ण क्षेत्र को-अन्नादि की उत्पत्तिके साधनभूत भूमिभाग को (पुरुश्चन्द्रम्) = पालन व पूरण के लिए पर्याप्त हिरण्य को [चन्द्रं हिरण्यं] आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त धन को (विविद्वान्) = प्राप्त करानेवाले प्रभु [विद् लाभे] (आद् इत्) = अब निश्चय से (सखिभ्यः) = अपने मित्र जीवों के लिए (चरथम्) = [chariot] गाड़ी को (समैरत्) = प्राप्त कराते हैं । प्रभु कृपा से हमें 'भूमि, धन व रथ' प्राप्त होते हैं। [२] (दीद्यान:) = ज्ञानदीप्त होते हुए वे प्रभु (नृभिः) = मनुष्यों के हेतु से (साकम्) = साथ-साथ ही (सूर्यम्) = सूर्य को (उषसम्) = उषा को (गातुम्) = गमन की साधनभूत पृथिवी को (अग्निम्) = यज्ञादि कर्मों की साधनभूत अग्नि को (अजनत्) = उत्पन्न करते हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में सूर्य, उषा, पृथिवी, अग्नि आदि की साथ-साथ ही उत्पत्ति हुई। इनके होने पर ही मनुष्यों के सब कार्य सम्पन्न हो सकते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे लिए अन्नोत्पादक भूमिभागों को, धनों को व रथों को प्राप्त कराते हैं। प्रभु ने हमारे लिए 'सूर्य, उषा, पृथिवी व अग्नि' को उत्पन्न किया है ।

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    विषय

    उत्तम राजा का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् और तत्वदर्शी राजा और विद्वान् पुरुष (सखिभ्यः) अपने समान ख्याति और दर्शन विज्ञान से युक्त अपने मित्र जनों के उपकार के लिये ही बड़ा भारी, अति उत्तम (क्षेत्रं) रहने के लिये, बीज अनाजादि बोने के लिये और निवास करने के लिये क्षेत्र, खेत, पुत्रोत्पादक स्त्री और कार्य क्षेत्र, और (पुरु-चन्द्रं) बहुत प्रकार के सुख आह्लादजनक धन को (विविद्वान्) विविध उपायों से प्राप्त करता और कराता हुआ (आत् इत्) अनन्तर (चरथं) जंगम सम्पत्ति और भोग्य अन्नादि सामग्री भी (सम् ऐरत्) प्रदान किया करे। और वह (नृभिः साकं) अपने प्रधान नायक पुरुषों के साथ मिलकर (दीद्यानः) स्वयं तेजस्वी होकर विद्या के द्वारा (सूर्यं उषसं) सूर्य और उषा और (गातुम् अग्निम्) पृथिवी और अग्नि के समान (साकं) एक साथ मिलें। माता पिता और पुत्र और पत्नी पति के जोड़े (अजनत्) उत्पन्न करे वा (सूर्यम् उषसं) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष, उषा के समान कान्तियुक्त या शत्रुसंतापक सेना को और (गातुम्) पृथ्वी के समान विस्तृत राष्ट्र और (अग्निम्) अग्नि के समान तेजस्वी ब्राह्मण और अग्रणी पुरुषों को पैदा करे, उनको बनावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी विद्येने युक्त विद्युत, सूर्य, भूमी व अग्नी प्रातःकाळसमयी ऐश्वर्य उत्पन्न करून मित्रांना सुख देतात, तसेच विद्वान लोकांनी माणसांना सुख द्यावे. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord refulgent, commanding knowledge and wisdom, brings for his devotees and friends vast field and opportunities for action, immense wealth of gold, knowledge and inspiration, movement and expansion. With men, leaders and the force of winds, he provides the light of the sun, beauty of the dawns, inspiration of the Divine Word, the passion of fire, and he creates the paths of progress for them.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of functions and attributes of the learned persons is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The learned persons shining on account of his virtues like electricity, gives happiness and destroys misery. He also prompts well his friends to get much gold, land for spacious abode, knowledge and movement. He manifests the knowledge of the sun, dawn, fire, earth and speech along with other leading men. You should always honor such a great scientist.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As power/energy, sun, earth and fire when used properly with scientific knowledge, lead to prosperity and make all friends happy, same way the enlightened persons should bestow happiness on men and other beings.

    Foot Notes

    (चन्द्रम् ) सुवर्णम् | अत्र ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्र इति सुडागमः | चन्द्रमिति हिरण्यनाम | (N.G. 1, 2 ) = gold. (चरथम् ) गमनं विज्ञानं = Movement or knowledge. (इन्द्रः) विद्युदिव सुखप्रदो दुःखविनादाकः । (इन्द्रः) स्तनयित्नुरेवेन्द्रः ( Stph 11, 6, 3, 9) = Giver of happiness and destroyer of misery like electricity (गातुम् ) वाणीं भूमि वा = Speech or earth. गातुरिति पृथ्वीनाम (N.G. 1, 1) गातुरिति पदनाम | (N.G. 4-1) पद गतौ ।

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