ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न जा॒मये॒ तान्वो॑ रि॒क्थमा॑रैक्च॒कार॒ गर्भं॑ सनि॒तुर्नि॒धान॑म्। यदी॑ मा॒तरो॑ ज॒नय॑न्त॒ वह्नि॑म॒न्यः क॒र्ता सु॒कृतो॑र॒न्य ऋ॒न्धन्॥
स्वर सहित पद पाठन । जा॒मये॑ । तान्वः॑ । रि॒क्थम् । अ॒रै॒क् । च॒कार॑ । गर्भ॑म् । स॒नि॒तुः । नि॒ऽधान॑म् । यदि॑ । मा॒तरः॑ । ज॒नय॑न्त । वह्नि॑म् । अ॒न्यः । क॒र्ता । सु॒ऽकृतोः॑ । अ॒न्यः । ऋ॒न्धन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न जामये तान्वो रिक्थमारैक्चकार गर्भं सनितुर्निधानम्। यदी मातरो जनयन्त वह्निमन्यः कर्ता सुकृतोरन्य ऋन्धन्॥
स्वर रहित पद पाठन। जामये। तान्वः। रिक्थम्। आरैक्। चकार। गर्भम्। सनितुः। निऽधानम्। यदि। मातरः। जनयन्त। वह्निम्। अन्यः। कर्ता। सुऽकृतोः। अन्यः। ऋन्धन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्यो जो जामये तान्वो रिक्थं नारैक् सनितुर्निधानं गर्भं चकार अन्यो वह्निमिव यद्यन्य ऋन्धन्त्सुकृतोः कर्त्ता भवेत्तं मातरो जनयन्त ॥२॥
पदार्थः
(न) (जामये) जामात्रे (तान्वः) तन्वः। अत्रान्येषामपीत्याद्यचो दीर्घः। (रिक्थम्) धनम्। रिक्थमिति धननाम। निघं० २। १०। (आरैक्) ऋणक्ति (चकार) (गर्भम्) (सनितुः) विभाजकस्य (निधानम्) नितरां दधाति यस्मिँस्तम् (यदि)। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (मातरः) मान्यस्य कर्त्र्यः (जनयन्त) जनयन्ति (वह्निम्) प्रापकम् (अन्यः) (कर्त्ता) (सुकृतोः) यौ शोभनं कुरुतस्तयोः (अन्यः) (ऋन्धन्) साध्नुवन् ॥२॥
भावार्थः
यथा माताऽपत्यानि जनयित्वा वर्धयति तथैव वह्निं जनयित्वा वर्धयेत् तथैव जायापत्यानि वर्धयेत् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (जामये) जामाता के लिये (तान्वः) सूक्ष्म (रिक्थम्) धन को (न, आरैक्) नहीं देता जिसने (सनितुः) विभागकर्त्ता के (निधानम्) निरन्तर धारण करता है उस (गर्भम्) गर्भ को (चकार) किया (अन्यः) अन्य जन (वह्निम्) पहुँचानेवाले को जैसे वैसे (यदि) जो (अन्यः) अन्य (ऋन्धन्) सिद्ध करता हुआ (सुकृतोः) उत्तम कर्मकारियों का (कर्त्ता) कर्त्ता पुरुष है उसको (मातरः) आदर की करनेवाली (जनयन्त) उत्पन्न करती है ॥२॥
भावार्थ
जैसे माता सन्तानों को उत्पन्न कर उनकी वृद्धि करती है, वैसे ही अग्नि को उत्पन्न करके उसकी वृद्धि करे और वैसे ही प्रत्येक स्त्री सन्तानों की वृद्धि करे ॥२॥
विषय
ज्ञानप्राप्ति ही मूल धर्म है
पदार्थ
[१] (तान्वः) = [तनु विस्तारे] यह अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला व्यक्ति (जामये) = सद्गुणों को जन्म देनेवाली इस वेदवाणी रूप बहिन के लिए (रिक्थम्) = धन को (न आरैक्) = नहीं बचा रखता, अर्थात् अधिक से अधिक इस धन का व्यय करता हुआ ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। यह उस (सनितुः) = सब ऐश्वर्यों का सम्भजन [सेवन] करनेवाले प्रभु के (गर्भम्) = ग्रहण को [गर्भ=joining, union] मेल को, (निधानं चकार) = अपना कोश बनाता है। प्रभु के साथ मेल को ही अपनी सर्वमहान् सम्पत्ति समझता है । [२] (यद् ई) = जब निश्चय से (मातरः) = जीवन का निर्माण करनेवाली ये ज्ञानवाणियाँ (वह्निं जनयन्त) = अपने कर्त्तव्य-कर्म करनेवाले को बनाती हैं, तब (अन्यः) = कोई एक (सुकृतोः कर्ता) = उत्तम यज्ञादि कर्म करनेवाला बनता है तथा (अन्य:) = दूसरा (ऋन्धन्) = अपने को सद्गुणों से सुभूषित करता हुआ होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम ज्ञानप्राप्ति के लिए धन का व्यय करें- प्रभुप्राप्ति को ही अपना कोश समझें। ज्ञानवाणियों का अध्ययन करते हुए उत्तम कर्मों को करनेवाले बनें तथा सद्गुणों से अपने को सुभूषित करें।
विषय
कन्या के पिता का वही दायभागी पुत्र हो। कन्या परगोत्र के पुरुष को दी जाती है। अग्नियों के दृष्टान्त से पुत्र-पुत्री का विचार
भावार्थ
(तान्वः) देह से उत्पन्न हुआ पुत्र (जामये) अन्यों के लिये पुत्र उत्पन्न करने वाली अपनी भगिनी को (रिक्थं) पिता का धन (न आरैक्) नहीं प्रदान करे। प्रत्युत वह उस अपनी भगिनी को (सनितुः) उसके भोक्ता, पाणिग्रहीता पति के लिये (गर्भं निधानं चकार) गर्भ धारण करने योग्य (चकार) बनावे। (यदि) यद्यपि (मातरः) माता पिता लोग (वह्निम् जनयन्त) पुत्र पुत्री दोनों को ही पुत्र रूप से या सन्तान रूप से उत्पन्न करते हैं तो भी उन दोनों में से (अन्यः) एक पुत्र ही (सुकृतोः) पिता के लिये सुखकारी कार्य पोषणादि का (कर्त्ता) करने हारा होता है। और (अन्यः) दूसरी कन्या (ऋन्धन्) केवल सुसम्पन्न सुभूषित मात्र ही करदी जाती है और दूसरे को दे दी जाती है। जिस प्रकार विद्वान् लोग अग्नि को उत्पन्न करते हैं जिनमें से एक केवल चमकाता प्रकाश देता है दूसरा यज्ञ को करता है। उसी प्रकार एक कुल को पालता पोषता दूसरा केवल मात्र सजाता ही है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जशी माता संतानांना उत्पन्न करून त्यांची वृद्धी करते तसेच अग्नीला उत्पन्न करून त्याची वृद्धी करावी. तसेच प्रत्येक स्त्रीने संतानाची वाढ करावी. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The son does not set apart the patrimony for the son-in-law, he prepares the sister and accomplishes her with education, culture and presents for his wife, the mother of his children. The parents give birth to children, son and daughter, one for the filial rites and duties for themselves and family, the other as beneficiary of the sanctities and accomplishments.
Subject
Son have a absolute right over father property. Daughter will be enriched with gift.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of fire is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! one mother who does not give wealth to her son-in-law, she upholds the distribution and then provides the impregnation (through marriage) to her daughter. As the fire accomplishes other things, the same way a mother bears noble performers of good deeds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the mother gives birth to the children and brings them up, so the fire should be generated and kindled well. In the same way, every wife should give birth to good children and feed them properly.
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