ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 20
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मिहः॑ पाव॒काः प्रत॑ता अभूवन्त्स्व॒स्ति नः॑ पिपृहि पा॒रमा॑साम्। इन्द्र॒ त्वं र॑थि॒रः पा॑हि नो रि॒षो म॒क्षूम॑क्षू कृणुहि गो॒जितो॑ नः॥
स्वर सहित पद पाठमिहः॑ । पा॒व॒काः । प्रऽत॑ताः । अ॒भू॒व॒न् । स्व॒स्ति । नः॒ । पि॒पृ॒हि॒ । पा॒रम् । आ॒सा॒म् । इन्द्र॑ । त्वम् । र॒थि॒रः । पा॒हि॒ । नः॒ । रि॒षः । म॒क्षुऽम॑क्षु । कृ॒णु॒हि॒ । गो॒ऽजितः॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मिहः पावकाः प्रतता अभूवन्त्स्वस्ति नः पिपृहि पारमासाम्। इन्द्र त्वं रथिरः पाहि नो रिषो मक्षूमक्षू कृणुहि गोजितो नः॥
स्वर रहित पद पाठमिहः। पावकाः। प्रऽतताः। अभूवन्। स्वस्ति। नः। पिपृहि। पारम्। आसाम्। इन्द्र। त्वम्। रथिरः। पाहि। नः। रिषः। मक्षुऽमक्षु। कृणुहि। गोऽजितः। नः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 20
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र रथिरस्त्वं नो रिषः पाहि नोऽस्मान्गोजितो मक्षूमक्षू कृणुहि। आसां शत्रुसेनानां पारं नय या मिहः प्रतताः पावका अभूवन् तैर्नः स्वस्ति पिपृहि ॥२०॥
पदार्थः
(मिहः) सेचकाः (पावकाः) पवित्राः पवित्रकराः (प्रतताः) विस्तीर्णाः स्वरूपगुणाः (अभूवन्) भवन्ति (स्वस्ति) सुखम् (नः) अस्मभ्यम् (पिपृहि) पूर्णं कुरु (पारम्) (आसाम्) (इन्द्र) सूर्य्य इव राजन् (त्वम्) (रथिरः) रथादियुक्तः (पाहि) (नः) अस्मान् (रिषः) हिंसकात् (मक्षूमक्षू) शीघ्रम् शीघ्रम्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। मक्ष्विति क्षिप्रना०। निघं० २। १५। (कृणुहि) (गोजितः) गौर्भूमिर्जिता यैस्तान् (नः) अस्माकम् ॥२०॥
भावार्थः
प्रजासेनापुरुषैः स्वेऽध्यक्षा एवं याचनीया यूयमस्माभिः शत्रून् विजयित्वा सुखं जनयत यथा विद्युदादयो वृष्टिद्वारा क्षुधादिदोषात्पृथक्कृत्यानन्दयन्ति तथैव हिंसकेभ्यः प्राणिभ्यः सद्यः पृथक्कृत्य रक्षित्वा सततमानन्दयत ॥२०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य्य के सदृश तेजस्वी राजन् ! (रथिरः) रथ आदि वस्तुओं से युक्त (त्वम्) आप (नः) हम लोगों की (रिषः) हिंसाकारक जन से (पाहि) रक्षा कीजिये (नः) हम लोगों को (गोजितः) पृथिवी के जीतनेवाले (मक्षूमक्षू) शीघ्र-शीघ्र (कृणुहि) करिये (आसाम्) इन शत्रुओं की सेनाओं के (पारम्) पार पहुँचाइये जो (मिहः) सींचनेवाले (प्रतताः) विस्तारस्वरूप और गुणों से युक्त (पावकाः) पवित्र और दूसरों को पवित्र करनेवाले (अभूवन्) होते हैं उन लोगों से (नः) हम लोगों के (स्वस्ति) सुख को (पिपृहि) पूरा कीजिये ॥२०॥
भावार्थ
प्रजा और सेना के पुरुषों को चाहिये कि अपने प्रधान पुरुषों से इस प्रकार की याचना करें कि आप लोग हम लोगों से शत्रुओं को जीत-जीत कर सुख उत्पन्न करो। जैसे बिजुली आदि पदार्थ वृष्टि के द्वारा क्षुधा आदि दोष से दूर करके आनन्द देते हैं, वैसे ही हिंसा करनेवाले प्राणियों से शीघ्र दूर कर और रक्षा करके निरन्तर आनन्द दीजिये ॥२०॥
विषय
ज्ञानों के पारंगत
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सहस्र सूर्य सम ज्योतिवाले प्रभो! आपके (पावका:) = पवित्र करनेवाले (मिहः) = ज्ञानजलों के वर्षण (प्रतताः) = प्रकर्षेण विस्तृत (अभूवन्) = हुए हैं। आपने कृपा करके हमारे लिए इन ज्ञानजलों का वर्षण किया है। इन द्वारा (नः स्वस्ति) = हमारा कल्याण हो। आप हमारे में (आसां पारं पिपृहि) = इनके परले सिरे का पूरण करिए, अर्थात् आप हमें इन ज्ञानों से पारंगत करिए। हम इन ज्ञानों को पूर्णतया प्राप्त करनेवाले हों। [२] हे इन्द्र ! (त्वम्) = आप ही (रथिर:) = मेरे इस शरीर रथ के संचालक हैं। आप (नः) = हमें (रिष:) = हिंसा से (पाहि) = बचाइये । हम वासनाओं से हिंसित न हों। (मक्षूमक्षू) = शीघ्र ही अत्यन्त शीघ्र (नः) = हमें (गोजितः) = इन इन्द्रियरूप गौवों का (विजेता कृणुहि) = करिए। हम जितेन्द्रिय बनकर, वासनाओं से हिंसित न होते हुए आपको प्राप्त करनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु से दिये गये ज्ञानों के हम पारंगत हो। इनद्वारा जीवनों को पवित्र बनाते जितेन्द्रिय बनकर, प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हों ।
विषय
प्रजा का पालन करे।
भावार्थ
हे राजन् ! हे सेनापते ! हे विद्वन् ! (पावकाः) अग्नियों की (मिहः) वर्षाएं (प्रतताः) दूर तक फैली हुई (अभूवन्) हों, तू (नः) हमें (आसाम् पारम्) उनके पार करके (स्वस्ति) सुखपूर्वक (पिपृहि) पालन कर। अथवा—(पावकाः) पवित्र स्वच्छ करने वाली (मिहः) जलवृष्टियें (प्रतताः अभूवन्) दूर २ तक फैली हों (नः) हमारे (आसाम्) इनके पालन सामर्थ्य को (स्वस्ति) सुखपूर्वक (पिहि) पूर्ण कर। अर्थात् खूब वृष्टियां हों उनसे प्रचुर अन्न हों और प्रजा का पालन हो। इसी प्रकार राष्ट्र में (मिहः पावकाः) ज्ञान सेचक, परमपावन पुरुष दूर २ तक फैलें। उनसे हमें (आसाम् पारम्) उन शत्रु सेनाओं और विपत्तियों के पार करे, सुख को पूर्ण कर। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (त्वं) तू (रथिरः) महारथी होकर (नः) हमें (रिषः) हिंसक पुरुष और जन्तु से (पाहि) बचा। और (मक्षु मक्षु) अति शीघ्र, (नः) हमें (गोजितः कृणुहि) भूमिविजयी वाग्-विजयी और जितेन्द्रिय बना।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
प्रजा व सेनेच्या पुरुषांनी आपल्या मुख्य पुरुषाला अशी याचना करावी की, तुम्ही शत्रूंना जिंकून सुख उत्पन्न करा. जसे विद्युत इत्यादी पदार्थ वृष्टीद्वारे क्षुधा इत्यादी दोष दूर करून आनंद देतात, तसेच हिंसक प्राण्यांपासून शीघ्र दूर करून रक्षण करून निरंतर आनंद द्या. ॥ २० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Showers of rain, pure and purifying, pour down and spread around far and wide. Take us across these, lead us to life’s well-being and total fulfilment. Indra, lord of the world, warrior of the chariot you are, protect us from violence, and at every step, at every moment, make us victors of lands and cows, sense-control and self-discipline with the voice divine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of duties of the administrators and their subjects is further highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O King ! you shine like the sun, protect us from the malevolent or violent persons and make us quickly the conquerors of the land. Take us across the armies of the enemies. Fill us with happiness and welfare, with the help of those persons who shower joy, purify others and are broad-minded.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The people and the soldiers should thus request their rulers and commanders of the armies. Having conquered over the enemies, make us happy. As lightning and other objects make us happy through rains, by keeping us away from hunger (by producing food grains), in the same manner, you should keep us away from all violent persons and creatures and always keep us happy through protection.
Foot Notes
(मिह:) सेचका: = Showerers (of joy). (रिपः) हिंसात्। = From a violent or malevolent persons. (मधूमक्षू ) शीघ्रम् शीघ्रम्। = अव निपातस्य चेति दीर्घः । मध्विति क्षिप्रनाम (N.G. 2, 15 ) = Quickly.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal