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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - वैश्वानरः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अध॑ द्युता॒नः पि॒त्रोः सचा॒साम॑नुत॒ गुह्यं॒ चारु॒ पृश्नेः॑। मा॒तुष्प॒दे प॑र॒मे अन्ति॒ षद्गोर्वृष्णः॑ शो॒चिषः॒ प्रय॑तस्य जि॒ह्वा ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । द्यु॒ता॒नः । पि॒त्रोः । सचा॑ । आ॒सा । अम॑नुत । गुह्य॑म् । चारु । पृश्नेः॑ । मा॒तुः । प॒दे । प॒र॒मे । अन्ति॑ । सत् । गोः । वृष्णः॑ । शो॒चिषः॑ । प्रऽय॑तस्य । जि॒ह्वा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध द्युतानः पित्रोः सचासामनुत गुह्यं चारु पृश्नेः। मातुष्पदे परमे अन्ति षद्गोर्वृष्णः शोचिषः प्रयतस्य जिह्वा ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। द्युतानः। पित्रोः। सचा। आसा। अमनुत। गुह्यम्। चारु। पृश्नेः। मातुः। पदे। परमे। अन्ति। सत्। गोः। वृष्णः। शोचिषः। प्रऽयतस्य। जिह्वा॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे जिज्ञासवोऽध यः पित्रोर्द्युतानः सचासा परमे मातुष्पदेऽन्ति सद्गोर्वृष्ण इव शोचिषः प्रयतस्य जिह्वेव यत्पृश्नेश्चारु गुह्यमस्ति तज्जीवस्वरूपममनुत ॥१०॥

    पदार्थः

    (अध) अथ (द्युतानः) प्रकाशमानः (पित्रोः) जनकयोः (सचा) सत्येन (आसा) आस्येन (अमनुत) विजानीत (गुह्यम्) गुप्तम् (चारु) सुन्दरम् (पृश्नेः) अन्तरिक्षस्य मध्ये (मातुः) मातृवद्वर्त्तमानस्य (पदे) प्रापणीये (परमे) उत्कृष्टे (अन्ति) समीपे (सत्) वर्त्तमानम् (गोः) (वृष्णः) वर्षकस्य (शोचिषः) प्रकाशमानस्य (प्रयतस्य) प्रयत्नं कुर्वतः (जिह्वा) वाणी ॥१०॥

    भावार्थः

    यथा द्यावापृथिव्योर्मध्ये वर्त्तमानस्सूर्य्यः सुशोभितोऽस्ति यथा विदुषो वाणी विद्याप्रकाशिका वर्तते यथाऽन्तरिक्षं कस्मादपि दूरे न भवति तथैव स्वात्मवस्तु परमात्मा च सन्निकटे वर्त्तत इति वेदनीयम् ॥१०॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे जिज्ञासुजनो ! (अध) इसके अनन्तर जो (पित्रोः) माता और पिता की उत्तेजना से (द्युतानः) प्रकाशमान (सचा) सत्य (आसा) मुख से (परमे) उत्तम (मातुः) माता के सदृश वर्त्तमान के (पदे) प्राप्त होने योग्य स्थान में (अन्ति) समीप (सत्) वर्त्तमान (गोः) गौ और (वृष्णः) वृष्टि करनेवाले के सदृश (शोचिषः) प्रकाशमान (प्रयतस्य) प्रयत्न करते हए की (जिह्वा) वाणी के सदृश जो (पृश्नेः) अन्तरिक्ष के मध्य में (चारु) सुन्दर (गुह्यम्) गुप्त है, उस जीवस्वरूप को (अमनुत) जानिये ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे अन्तरिक्ष और पृथिवी के मध्य में वर्त्तमान सूर्य्य उत्तम प्रकार शोभित है और जैसे विद्वान् की वाणी विद्या का प्रकाश करनेवाली है और जैसे अन्तरिक्ष किसी से भी दूर नहीं है, वैसे ही उत्तम अपना आत्मारूप वस्तु और परमात्मा समीप में वर्त्तमान है, ऐसा जानना चाहिये ॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा अंतरिक्ष व पृथ्वीमध्ये असलेला सूर्य सुशोभित होतो व जशी विद्वानाची वाणी विद्या प्रकट करते व जसे अंतरिक्ष कुणापासूनही दूर नाही, तशी स्वात्मरूप वस्तू परमेश्वरासमीप आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And the light shines between heaven and earth, one with all, vibrating in the highest regions of Mother Nature at the closest and within, directly watching and knowing the raining clouds, the blazing sun, and the blowing wind and flowing waters. All ye men and women, know that lovely and wondrous mystery of the spirit of colourful reality of existence hidden in the cave of the heart.

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