ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 12
किं नो॑ अ॒स्य द्रवि॑णं॒ कद्ध॒ रत्नं॒ वि नो॑ वोचो जातवेदश्चिकि॒त्वान्। गुहाध्व॑नः पर॒मं यन्नो॑ अ॒स्य रेकु॑ प॒दं न नि॑दा॒ना अग॑न्म ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठकिम् । नः॒ । अ॒स्य । द्रवि॑णम् । कत् । ह॒ । रत्न॑म् । वि । नः॒ । वो॒चः॒ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । चि॒कि॒त्वान् । गुहा॑ । अध्व॑नः । प॒र॒मम् । यत् । नः॒ । अ॒स्य । रेकु॑ । प॒दम् । न । नि॒ऽदा॒नाः । अग॑न्म ॥
स्वर रहित मन्त्र
किं नो अस्य द्रविणं कद्ध रत्नं वि नो वोचो जातवेदश्चिकित्वान्। गुहाध्वनः परमं यन्नो अस्य रेकु पदं न निदाना अगन्म ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठकिम्। नः। अस्य। द्रविणम्। कत्। ह। रत्नम्। वि। नः। वोचः। जातऽवेदः। चिकित्वान्। गुहा। अध्वनः। परमम्। यत्। नः। अस्य। रेकु। पदम्। न। निदानाः। अगन्म॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 12
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः प्रच्छकविषयमाह ॥
अन्वयः
हे जातवेदश्चिकित्वाँस्त्वमस्य नः किं द्रविणं किं रत्नमस्तीति न कद्ध विवोचः यद् गुहाऽध्वनः परमं प्राप्तान्नोऽस्मान् रेकु पदं न नोऽस्मान्निदाना अस्य संसारस्य मध्ये स्युस्तान् विहायाऽगन्म तत्किमिति ॥१२॥
पदार्थः
(किम्) प्रश्ने (नः) अस्माकम् (अस्य) संसारस्य मध्ये (द्रविणम्) यशः (कत्) कदा (ह) किल (रत्नम्) धनम् (वि) (नः) अस्मान् (वोचः) उपदिशेः (जातवेदः) जातविद्य (चिकित्वान्) विवेकी (गुहा) बुद्धेः (अध्वनः) मार्गस्य (परमम्) प्रकृष्टं प्रापणीयम् (यत्) (नः) अस्माकम् (अस्य) (रेकु) शङ्कितम् (पदम्) प्रापणीयम् (न) इव (निदानाः) निन्दां कुर्वाणाः (अगन्म) ॥१२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसोऽस्मासु किं यशः किं रमणीयं वस्तु के चाऽस्माकं निन्दकाः किं च शङ्कनीयं वस्तु किं च प्रापणीयं पदमस्तीत्युत्तराणि ब्रूत ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर प्रच्छक विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (जातवेदः) विद्यायुक्त (चिकित्वान्) विचारशील ! आप (अस्य) इस संसार में (नः) हम लोगों का (किम्) क्या (द्रविणम्) यश और (किम्) क्या (रत्नम्) धन है ऐसा (नः) हम लोगों को (कत्, ह) कभी (वि, वोचः) उपदेश कीजिये (यत्) जो (गुहा) बुद्धि के (अध्वनः) मार्ग के (परमम्) उत्तम प्राप्त होने योग्य को प्राप्त हुए (नः) हम लोगों को (रेकु) शङ्कायुक्त (पदम्) प्राप्त होने योग्य स्थान के (न) तुल्य (नः) हम लोगों के (निदानाः) निन्दा करते हुए (अस्य) इस संसार के मध्य में हों, उनको त्याग के (अगन्म) प्राप्त हुए वह क्या है ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! हम लोगों में क्या यश? क्या सुन्दर वस्तु? और कौन लोग हम लोगों की निन्दा करनेवाले? और क्या शङ्का करने योग्य वस्तु? और क्या प्राप्त होने योग्य स्थान है? इनके उत्तर कहो ॥१२॥
विषय
इसे द्रविण व रत्न
पदार्थ
[१] (नः) = हमारे (अस्य) = इस जीवन का (किं द्रविणम्) = क्या द्रविण है, जीवनयात्रा की पूर्ति का साधनभूत धन क्या है । (कत् ह) = और क्या निश्चय से रत्न है, इसे रमणीय बनानेवाली वस्तु है ? यह बात, हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (नः विवोचः) = हमारे लिये आप उपदिष्ट करिये। [२] (चिकित्वान्) = ज्ञानी आप (नः) = हमारे लिये (यत्) = जो (अस्य अध्वन:) = इस मार्ग का (परमम्) = सर्वोत्कृष्ट रूप है, उसे (गुहा) = हमारी बुद्धिरूप गुहा में [विवोच:] प्रतिपादित करिये। आप से मार्ग को जानकर, उस पर चलते हुए, हम यात्रा पूर्ति के साधनभूत 'द्रविणों व रत्नों को प्राप्त करें ।' कहीं ऐसा न न होकि अज्ञानवश (रेकु पदम्) = रिक्त मार्ग पर ही हम (अगन्म) = भटकते रहें और (निदाना:) = लोगों से निन्दमग्न हों, लोक निन्दा के पात्र न बन जाएँ। ज्ञान को प्राप्त करके ठीक ही मार्ग पर चलें। द्रविणों व रत्नों को प्राप्त करके यात्रा को सुन्दरता से पूर्ण करें।
भावार्थ
भावार्थ– वस्तुत: 'द्रविण व रत्न क्या हैं ?' प्रभु इसका हमें ज्ञान दें। उनकी प्राप्ति के साधनभूत मार्ग का भी ज्ञान दें। ताकि हम उस मार्ग पर चलते हुए द्रविणों व रत्नों को प्राप्त करके यात्रा को ठीक से पूरा कर पायें, भटकते ही न रहें।
विषय
गुरु का कर्त्तव्य और उसकी उत्तम अभिलाषा ।
भावार्थ
हे (जातवेदः) विद्वन् ! ऐश्वर्यवन् ! हे सर्वज्ञ परमेश्वर ! (अस्य) इस संसार का (नः) हमारे उपयोगी (किं द्रविणं) क्या धन वा यश है (कत् रत्नं) किस २ प्रकार का रमण करने योग्य पदार्थ है ? तू (चिकित्वान्) सब कुछ जानता हुआ ही (नः विवोचः) हमें भी विविध प्रकार से उपदेश कर । (अस्य अध्वनः) इस महान् मार्ग के गन्तव्य प्रभु का (गुहा) बुद्धि में स्थित (परमं) परम, सर्वोत्कृष्ट (यत्) जो (पदम्) ज्ञातव्य स्वरूप (रेकु) संशयास्पद सा है उसको हम (निदानाः) परस्पर की निन्दा करते हुए (न अगन्म) नहीं प्राप्त होते हैं । अथवा नेत्युपमार्थीयः । जो मिथ्यास्वरूप है उसकी (निदानाः) निन्दा करते या अपलाप करते हुए हम (रेकु पदं न अगन्म) सबसे अतिरिक्त सर्वाति- शायी परम पद को प्राप्त हों ।
टिप्पणी
‘नेति नेतीत्यात्मा’ । उप० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप। २, ५, ६, ७, ८, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ९, १२, १३, १५ त्रिष्टुप। १०, १४ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! आमच्यामध्ये कोणते यश, कोणती सुंदर वस्तू, कोण आमची निंदा करणारे, कोणती शंका घेण्यायोग्य वस्तू आहे व कोणते स्थान प्राप्त होण्यायोग्य आहे याचे उत्तर द्या. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Jataveda, you know all and everything in existence. Speak to us and guide us: Of all this world, what wealth is ours? What jewels? Speak to us of that, so that going by the light of divine vision and intelligence we may achieve the best and reach the highest goal that is ours, and we at the end don’t have to go empty handed, reviled and exposed.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
About a questioner or a seeker after truth is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! you surely distinguish when you tell us about the great glory, and real wealth in this world. May we attempt to attain that last goal of the secret path, hidden in the cave of intellect. Indeed, you move forward leaving behind all reproachers in this world. Let us know definitely the nature of that reality.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! give us the final answer of the questions, which is our real glory, which is a charming wealth. Let us distinguish between our reproachers and which are doubtful things ?
Foot Notes
(रेकु) शङ्कितम् । = Doubtful. (द्रविणम् ) यशः । धनं द्रविणमुच्यते यत् एनत् अभिद्रवन्ति (NKT 9, 1, 1) = Good reputation or glory.
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