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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - वैश्वानरः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तमिन्न्वे॒३॒॑व स॑म॒ना स॑मा॒नम॒भि क्रत्वा॑ पुन॒ती धी॒तिर॑श्याः। स॒सस्य॒ चर्म॒न्नधि॒ चारु॒ पृश्ने॒रग्रे॑ रु॒प आरु॑पितं॒ जबा॑रु ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । इत् । नु । ए॒व । स॒म॒ना । स॒मा॒नम् । अ॒भि । क्रत्वा॑ । पु॒न॒ती । धी॒तिः । अ॒श्याः॒ । स॒सस्य॑ । चर्म॑न् । अधि॑ । चारु॑ । पृश्नेः॑ । अग्ने॑ । रु॒पः । अरु॑पितम् । जबा॑रु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमिन्न्वे३व समना समानमभि क्रत्वा पुनती धीतिरश्याः। ससस्य चर्मन्नधि चारु पृश्नेरग्रे रुप आरुपितं जबारु ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। इत्। नु। एव। समना। समानम्। अभि। क्रत्वा। पुनती। धीतिः। अश्याः। ससस्य। चर्मन्। अधि। चारु। पृश्नेः। अग्रे। रुपः। आरुपितम्। जबारु॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विवाहपरत्वेनोपदेशविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे कन्ये ! यस्य ससस्य चर्मन् चारु जबार्वारुपितं पृश्नेरभ्यस्ति तदग्रेऽधिरुपः क्रत्वा पुनती धीतिः समना सती तमिदेव समानं पतिं न्वेवाश्याः ॥७॥

    पदार्थः

    (तम्) (इत्) अपि (नु) (एव) (समना) सदृशी (समानम्) तुल्यं पतिम् (अभि) (क्रत्वा) प्रज्ञया (पुनती) पित्रा पवित्रयन्ती (धीतिः) शुभगुणधारिका (अश्याः) प्राप्नुयाः (ससस्य) स्वपतः (चर्मन्) चर्मणि (अधि) उपरि (चारु) सुन्दरम् (पृश्नेः) अन्तरिक्षस्य (अग्रे) पुरस्तात् (रुपः) आरोपणकर्तुः। अत्र कर्त्तरि क्विप्। (आरुपितम्) (जबारु) जवमानमारूढम् ॥७॥

    भावार्थः

    यदि कन्या स्वसदृशं वरं ब्रह्मचारी स्वतुल्यां कन्याञ्चोपयच्छेत् तर्ह्यन्तरिक्षस्य मध्य ईश्वरेण स्थापितः सविता चन्द्रो नक्षत्राणीव सुशोभेते ॥७॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब विवाहपरता से उपदेशविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे कन्ये ! जिस (ससस्य) शयन करते हुए के (चर्मन्) चमड़े में (चारु) सुन्दर (जबारु) वेग करता हुआ वा आरूढ़ (आरुपितम्) आरोपण किया गया वा जो (पृश्नेः) अन्तरिक्ष के (अभि) सब ओर है उसके (अग्रे) आगे (अधि, रुपः) अधिरोपण करनेवाले की (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि से (पुनती) पिता के सम्बन्ध से पवित्र करती हुई (धीतिः) उत्तम गुणों के धारण करनेवाली (समना) तुल्य हुई (तम्) (इत्) उसी (समानम्) समान पति को (नु, एव) शीघ्र ही (अश्याः) प्राप्त हो ॥७॥

    भावार्थ

    जो कन्या अपने समान वर और ब्रह्मचारी अपने तुल्य कन्या के साथ विवाह करे तो अन्तरिक्ष के मध्य में ईश्वर से स्थापित सूर्य्य चन्द्रमा और नक्षत्रों के तुल्य शोभित होते हैं ॥७॥

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    विषय

    पवित्र वेदज्ञान

    पदार्थ

    [१] (तं इत् नुरव) = गतमन्त्र के अनुसार मित्र और वरुण के प्रिय तेजों का विनाश न करनेवाले थे, अर्थात् स्नेह व निष्पापता की वृत्तिवाले को, अतएव (समानम्) = [सं अनिति] उत्तम प्राणशक्तिवाले को (क्रत्वा) = कर्मों के द्वारा (समना) = सम्यक् प्राणित करनेवाली (धीति:) = ज्ञानदुग्ध के पान की क्रिया (अभि क्रश्या:) = आभिमुख्येन प्राप्त होती है। यह स्नेह व निष्पापता की वृत्तिवाला ज्ञान को प्राप्त करता है, उस ज्ञान को जो कि उसकी प्राणशक्ति का वर्धन करनेवाला होता है। [२] यह ज्ञान ज्योति (सस्य) = सर्वत्र शयान उस प्रभु की है। प्रभु सर्वत्र विद्यमान हैं, परन्तु वे हमारे हृदयों में प्रसुप्त अवस्था में ही है। उपासना आदि के द्वारा, मस्तिष्क व हृदयरूप अरणियों की रगड़ के द्वारा, वह प्रभु की ज्योति हमारे में जागरित होती है । (पृश्ने:) = यह ज्ञान-ज्योति उस प्रभु की है जो कि ज्योतियों के संस्पृष्टा हैं। (प:) = यह ज्ञान ज्योति उस प्रभु की है जो कि इसका अग्नि आदि ऋषियों के पवित्र हृदयक्षेत्र में आरोपण करनेवाले हैं। [३] यह ज्ञान ज्योति (चर्मन् अधि) = चर्म के विषय में, हमें वासनाओं के आक्रमण से बचाने के विषय में (चारु) = सुन्दर हैं 'ब्रह्म वर्म ममान्तरम्'- यह ज्ञान तेरा आन्तर कवच बनता है, मेरी ढाल [चर्म] बनता है। इसके द्वारा मैं वासनाओं के आक्रमण को रोक पाता हूँ। यह (अग्रे आरुपितम्) = सृष्टि के प्रारम्भ में 'अग्नि' आदि के हृदयक्षेत्र में आरोपित हुआ । जबारु यह जबमानरोहि है, तीव्रगति से उन्नति का साधक है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्नेह व निष्पापता की वृत्तिवाले बनेंगे तो प्रभु से पवित्र ज्ञान को प्राप्त करनेवाले होंगे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी कन्या आपल्याप्रमाणे असणाऱ्या वराबरोबर व जो ब्रह्मचारी आपल्याप्रमाणे असणाऱ्या कन्येबरोबर विवाह करतो तेव्हा ते ईश्वरनिर्मित सूर्य-चंद्र व नक्षत्रांप्रमाणे शोभून दिसतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That equal, beautiful, constant and vital zone of light and heat of Vaishvanara Agni fixed round and over the surface of the dormant and colourful earth, separated and condensed from the solar sphere in earlier times before life emerged, may our noble intelligence, purifying and sanctifying us by the light of the Lord, reach and reveal through our holy acts of study, prayer and holy action.

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