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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - वैश्वानरः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒दमु॒ त्यन्महि॑ म॒हामनी॑कं॒ यदु॒स्रिया॒ सच॑त पू॒र्व्यं गौः। ऋ॒तस्य॑ प॒दे अधि॒ दीद्या॑नं॒ गुहा॑ रघु॒ष्यद्र॑घु॒यद्वि॑वेद ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । ऊँ॒ इति॑ । त्यत् । महि॑ । म॒हाम् । अनी॑कम् । यत् । उ॒स्रिया॑ । सच॑त । पू॒र्व्यम् । गौः । ऋ॒तस्य॑ । प॒दे । अधि॑ । दीद्या॑नम् । गुहा॑ । र॒घु॒ऽस्यत् । र॒घु॒ऽयत् । वि॒वे॒द॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमु त्यन्महि महामनीकं यदुस्रिया सचत पूर्व्यं गौः। ऋतस्य पदे अधि दीद्यानं गुहा रघुष्यद्रघुयद्विवेद ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम्। ऊम् इति। त्यत्। महि। महाम्। अनीकम्। यत्। उस्रिया। सचत। पूर्व्यम्। गौः। ऋतस्य। पदे। अधि। दीद्यानम्। गुहा। रघुऽस्यत्। रघुऽयत्। विवेद॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ समाधातृविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे जिज्ञासवो ! यन्महामनीकं महि ऋतस्य पदे यद्दीद्यानं गुहा रघुष्यत् पूर्व्यं रघुयद् विवेद त्यदिदमु उस्रिया गौरिवाधि यूयं सचत ॥९॥

    पदार्थः

    (इदम्) (उ) (त्यत्) तत् (महि) महत् (महाम्) महताम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति तलोपः। (अनीकम्) सैन्यमिव (यत्) (उस्रिया) क्षीरादिप्रदा (सचत) प्राप्नुत (पूर्व्यम्) पूर्वैर्निष्पादितम् (गौः) (ऋतस्य) सत्यस्य (पदे) स्थाने (अधि) (दीद्यानम्) (गुहा) बुद्धौ (रघुष्यत्) सद्यः स्यन्दमानम् (रघुयत्) सद्यो गन्त्री (विवेद) वेत्ति ॥९॥

    भावार्थः

    हे श्रोतारो जना ! यद्बुद्धिप्रेरकं मन्दशीघ्रगामि सत्यस्य परमेश्वरस्य मध्ये प्रकाशमानं बलिष्ठं सैन्यमिव वीर्यवद्वत्सं सुखयन्ती गौरिव सुखप्रदं वस्त्वस्ति तदेव युष्माकं स्वरूपमस्ति ॥९॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब समाधाता के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे जिज्ञासुजनो ! (यत्) जो (महाम्) बड़ों की (अनीकम्) सेना के सदृश (महि) बड़ा वा (ऋतस्य) सत्य के (पदे) स्थान में जो (दीद्यानम्) प्रकाशित होता हुआ विद्यमान है, उसको (गुहा) बुद्धि में (रघुष्यत्) शीघ्र हिलते हुए के समान (पूर्व्यम्) पूर्वजनों से उत्पन्न किये गए के समान (रघुयत्) शीघ्र जानेवाली (विवेद) जानती है (त्यत्, इदम्, उ) उस ही (उस्रिया) दुग्ध आदि की देनेवाली (गौः) गौ के सदृश (अधि) अधिक आप लोग (सचत) प्राप्त हूजिये ॥९॥

    भावार्थ

    हे श्रोताजनो ! जो बुद्धि की प्रेरणा करने, मन्द और शीघ्र चलनेवाला सत्य परमेश्वर के मध्य में प्रकाशमान बलिष्ठ वाज पक्षी सेना के सदृश पराक्रमवाले बछड़े को सुख देती हुई गौ के सदृश सुख देनेवाला वस्तु है, वही आप लोगों का स्वरूप है ॥९॥

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    विषय

    'उपासकों का शक्ति भूत'

    पदार्थ

    [१] (इदम्) = यह गतमन्त्र में वर्णित (त्यत्) = वह वेदज्ञान (उ) = निश्चय से (महित्यन्) = महत्त्वपूर्ण है। यह (महाम्) = [मह पूजायाम्] उपासना की वृत्तिवालों का (अनीकम्) = बल है। यह वह ज्ञान है (यत्) = जिस (पूर्व्यम्) = सृष्टि के प्रारम्भ में दिये जानेवाले [पूर्वस्मिन् काले भवम्] या पालन व पूरण करने में उत्तम ज्ञान का (उस्त्रिया) = ज्ञानक्षीर का उत्स्रावण करनेवाली यह (गौ:) = वेदवाणीरूप गौ सचत अपने में समवेत करती है। [२] (ऋतस्य पदे) = ऋत के मार्ग में, अर्थात् जहाँ भी ऋत का आचरण होता है, अर्थात् जहाँ सब कार्य ऋतपूर्वक होते हैं, वहाँ (अधिदीद्यानम्) = आधिक्येन दीप्त होते हुए, (गुहा) = हृदय रूप गुहा में (रघुष्यद्) = तीव्र गति से प्रवाहित होते हुए इस वेदज्ञान को (रघुयत्) = शीघ्रता से गति करनेवाला, अपने कर्त्तव्य कर्मों को स्फूर्ति से करनेवाला (विवेद) = जानता है । वेदज्ञान को वह प्राप्त करता है जो कि [क] ऋतपूर्वक आचरण करे, [ख] अपने कर्त्तव्य कर्मों को करने में आलस्य न करे। ऐसे व्यक्ति के हृदय में ही यह प्रादुर्भूत होता है। |

    भावार्थ

    भावार्थ- वेदज्ञान को 'उपासक-ऋत का आचरण करनेवाले, कर्त्तव्य कर्मों को अप्रमाद से वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाले ऐसे बन जाते हैं। यह ज्ञान करनेवाले' प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में ही उनका बल होता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे श्रोतेगणहो (जिज्ञासू गण हो !) जो बुद्धीला प्रेरणा करणारा, मंद व शीघ्र चालणारा, खऱ्या परमेश्वरात प्रकाशमान, बलवान बहिरससाण्याप्रमाणे (श्येन पक्ष्याप्रमाणे) पराक्रमी, वासराला सुख देणाऱ्या गाईप्रमाणे सुख देणारा पदार्थ आहे, तेच तुमचे स्वरूप आहे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This same orb of light and zone of vitality, greatest of the great, glorious, ancient and eternal, blazing over the regions of the waters of space and the facts and laws of existence, which the productive earths serve and follow and join as partners of the system, which vibrates in the depths of the heart and vibrates in the depths of the soul, I know, you know, all perceive.

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