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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - इन्द्रः कुत्सश्च छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सूर॑श्चि॒द्रथं॒ परि॑तक्म्यायां॒ पूर्वं॑ कर॒दुप॑रं जूजु॒वांस॑म्। भर॑च्च॒क्रमेत॑शः॒ सं रि॑णाति पु॒रो दध॑त्सनिष्यति॒ क्रतुं॑ नः ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूरः॑ । चि॒त् । रथ॑म् । परि॑ऽतक्म्यायाम् । पूर्व॑म् । क॒र॒त् । उप॑रम् । जू॒जु॒ऽवांस॑म् । भर॑त् । च॒क्रम् । एत॑शः । सम् । रि॒णा॒ति॒ । पु॒रः । दध॑त् । स॒नि॒ष्य॒ति॒ । क्रतु॑म् । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूरश्चिद्रथं परितक्म्यायां पूर्वं करदुपरं जूजुवांसम्। भरच्चक्रमेतशः सं रिणाति पुरो दधत्सनिष्यति क्रतुं नः ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूरः। चित्। रथम्। परिऽतक्म्यायाम्। पूर्वम्। करत्। उपरम्। जूजुऽवांसम्। भरत्। चक्रम्। एतशः। सम्। रिणाति। पुरः। दधत्। सनिष्यति। क्रतुम्। नः ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यः सूरश्चित्परितक्म्यायां पूर्वं रथमुपरमिव करज्जूजुवांसं चक्रमेतश इवा भरत् पुरश्चक्रं सं रिणाति यानं दधन्नः क्रतुं सनिष्यति तं सर्वथा सत्कुर्य्याः ॥११॥

    पदार्थः

    (सूरः) सूर्य्यः (चित्) इव (रथम्) रमणीयं यानम् (परितक्म्यायाम्) परितः सर्वतस्तक्मानि भवन्ति यस्यां तस्यां रात्रौ (पूर्वम्) प्रथमम् (करत्) कुर्य्यात् (उपरम्) मेघमिव। उपरमिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (जूजुवांसम्) अतिशयेन वेगवन्तम् (भरत्) धरेत् (चक्रम्) कलाचालकम् (एतशः) अश्वोऽश्विकमिव (सम्) (रिणाति) गच्छति (पुरः) पुरस्तात् (दधत्) दधाति (सनिष्यति) सम्भजेत् (क्रतुम्) प्रज्ञां कर्माणि वा (नः) अस्माकम् ॥११॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदि मनुष्या कलाकौशलेन यानयन्त्राणि विधाय जलाग्निप्रयोगेण चक्राणि सञ्चाल्य कार्याणि साध्नुयुस्तर्हि सूर्यवायु मेघमिव बहुभारं यानमन्तरिक्षे जले स्थले च गमयितुं शक्नुयुः ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! जो (सूरः) सूर्य्य के (चित्) सदृश (परितक्म्यायाम्) सर्व ओर से हर्ष होते हैं जिस रात्रि में उसमें (पूर्वम्) प्रथम (रथम्) सुन्दर वाहन को (उपरम्) मेघ के सदृश (करत्) करे और (जूजुवांसम्) अत्यन्त वेग से युक्त (चक्रम्) कलाओं के चलानेवाले चक्र को (एतशः) जैसे घोड़ा घोड़ेवाले को वैसे सब प्रकार (भरत्) धारण करे (पुरः) पहिले चक्र को (सम्, रिणाति) प्राप्त होता, वाहन को (दधत्) धारण करता और (नः) हम लोगों की (क्रतुम्) बुद्धि वा कर्म्मों का (सनिष्यति) सेवन करे, उसका आप सब प्रकार सत्कार करें ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं । जो मनुष्य कलाकौशल से वाहनों के यन्त्रों को रच के जल और अग्नि के अत्यन्त योग से चक्रों को उत्तम प्रकार चलाय कार्य्यों को सिद्ध करें तो जैसे सूर्य्य और पवन मेघ को वैसे बहुत भारयुक्त वाहन को अन्तरिक्ष जल और स्थल में पहुँचाने को समर्थ होवें ॥११॥

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    विषय

    नाना योग्य पुरुषों की नियुक्ति, यन्त्र के मुख्य चक्रवत् सैन्य चक्र का संचालन ।

    भावार्थ

    भा०- (सूरः चित् ) जिस प्रकार कोई विद्वान् ( परितक्म्यायां ) चारों तरफ़ कठिनाई से जाने योग्य भूमि में ( उपरं जूजुवांसं रथं पूर्व करत् ) मेघ तक वेग से जाने वाले रथ का निर्माण करता है, उसमें ( एतशः चक्रम् ) अश्व के समान उसके स्थानापन्न एक चक्र (Fly wheel) ही उस रथ को ( भरत् ) गति देता है । वह ( सं रिणाति ) अच्छी प्रकार चलता है और ( पुरः क्रतुं दधत् ) रथ के अगले भाग में क्रियोत्पादक यन्त्र वा ऐन्जिन बनाता है । उसी प्रकार (सूरः ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष ( परितक्म्यायाम् ) सब तरफ़ से आपत्ति युक्त संग्रामादि वेला में ( पूर्वम् ) सबसे पहले ( उपरं जूजुवांसं ) मेघ तक वेग से जाने वाले ( रथं ) रथ सैन्य ( करत् ) तैयार करे । स्वयं ( एतशः ) अश्व के तुल्य अग्रगामी होकर ( चक्रं भरत् ) सैन्य चक्र को धारण करे । ( सः ऋतुं दधत् पुरः सं रिणाति ) वह प्रज्ञा को धारण करके आगे रहकर चले, ( नः सनिष्यति ) वह हम प्रजाजनों को विभक्त करे । अध्यात्म में सुख दुःख देने वाली प्रकृति 'परितक्म्या' है, उससे उपराम, मृत्यु को प्राप्त होने वाला रथ देह है उसे प्रभु बनाता है । एतश, आत्मा है । पहले वह कर्म करता है । अनन्तर उसी का फल भोगता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवस्युरात्रेय ऋषिः ॥ १-८, १०-१३ इन्द्रः । ८ इन्द्रः कुत्सो वा । ८ इन्द्र उशना वा । ९ इन्द्रः कुत्सश्च देवते ॥ छन्द: – १, २, ५, ७, ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ , १० त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप । ८, १२ स्वराट्पंक्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    क्रतुं भत्

    पदार्थ

    जिस प्रकार (सूरः चित्) = कोई (विद्वान् रथम्) = शरीररूपी रथ को (परितक्म्यायाम्) = कठिनाइयों में भी (उपरम्) = आगे उन्नति पथ पर (जूजुवांसम्) = वेग से (पूर्वं करत्) = पूरण करता है। गन्तव्य स्थल पहुँचता है। अर्थात् स्थित हुआ हुआ वह स्फूर्ति से सब कार्यों को करनेवाला होता है । २. यह (एतशः) = शुद्ध जीवन में निवास करनेवाला [एते शेते] (चक्रं भरत्) = दिन भर के कार्यचक्र का भरण करता है। (संरिणाति) [drive out, expel] = इस प्रकार सब वासनाओं को अपने जीवन से पृथक् करता है। इस प्रकार (पुरः दधत्) = इन शरीर नगरियों का धारण करता हुआ- इन्हें रोगों व वासनाओं का शिकार न होने देता हुआ - यह (नः) = हमारे [प्रभु के] (क्रतुम्) = शक्ति व प्रज्ञान को (सनिष्यति) = अवश्य प्राप्त करेगा। जो भी व्यक्ति आलस्यशून्य होकर कर्त्तव्यपालन में प्रवृत्त होगा वह अवश्य ही शक्तिशाली व ज्ञानी बनेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- चारों ओर अन्धकार के होने पर भी ज्ञानी शरीररथ को निरन्तर आगे बढ़ाता है। दिन के कार्यक्रम को सुन्दरता से करता हुआ यह अपने में ज्ञान व शक्ति को भरता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जर माणसांनी कौशल्याने यान यंत्रे निर्माण केली व जल आणि अग्नीच्या साह्याने चक्रांना उत्तम गती देऊन कार्य केले तर जसे सूर्य व वायू मेघाला इकडे तिकडे नेतात तसे ते भारयुक्त वाहनांना अंतरिक्ष, जल, स्थलामध्ये पोचविण्यास समर्थ होतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let the brave and brilliant pilot of the chariot first steady the chariot in the initial motion in the night and then take off rising to the clouds. The craft bearing its gears and stages of motion presses forward, conducting our project onward perfectly as intended.

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