ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
उद्यत्सहः॒ सह॑स॒ आज॑निष्ट॒ देदि॑ष्ट॒ इन्द्र॑ इन्द्रि॒याणि॒ विश्वा॑। प्राचो॑दयत्सु॒दुघा॑ व॒व्रे अ॒न्तर्वि ज्योति॑षा संववृ॒त्वत्तमो॑ऽवः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठउत् । यत् । सहः॑ । सह॑सः । आ । अज॑निष्ट । देदि॑ष्टे । इन्द्रः॑ । इ॒न्द्रि॒याणि॑ । विश्वा॑ । प्र । अ॒चो॒द॒य॒त् । सु॒ऽदुघाः॑ । व॒व्रे । अ॒न्तः । वि । ज्योति॑षा । स॒म्ऽव॒वृ॒त्वत् । तमः॑ । अ॒व॒रित्य॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्यत्सहः सहस आजनिष्ट देदिष्ट इन्द्र इन्द्रियाणि विश्वा। प्राचोदयत्सुदुघा वव्रे अन्तर्वि ज्योतिषा संववृत्वत्तमोऽवः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठउत्। यत्। सहः। सहसः। आ। अजनिष्ट। देदिष्टे। इन्द्रः। इन्द्रियाणि। विश्वा। प्र। अचोदयत्। सुऽदुघाः। वव्रे। अन्तः। वि। ज्योतिषा। संऽववृत्वत्। तमः। अवरित्यवः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यथेन्द्रः सूर्य्यः सहसो यत्सह उदाजनिष्ट विश्वा इन्द्रियाणि देदिष्टे प्राचोदयत् सुदुघा वव्रे तथाऽन्तर्ज्योतिषा संववृत्वत्तमो व्यवः ॥३॥
पदार्थः
(उत्) (यत्) (सहः) बलम् (सहसः) बलात् (आ) (अजनिष्ट) जनयति (देदिष्टे) दिशत्युपदिशति (इन्द्रः) योगैश्वर्य्ययुक्तः (इन्द्रियाणि) श्रोत्रादीनि धनानि वा (विश्वा) सर्वाणि (प्र, अचोदयत्) प्रेरयति (सुदुघाः) सुष्ठा कामप्रपूरिकाः क्रियाः (वव्रे) वृणाति (अन्तः) मध्ये (वि) (ज्योतिषा) प्रकाशेन (संववृत्वत्) संवरणशीलम् (तमः) रात्री (अवः) रक्ष ॥३॥
भावार्थः
यो राजा बलाद् बलं धनाद्धनं जनयित्वा न्यायप्रकाशेनाऽन्यायाऽन्धकारं निवार्य्य पूर्णकामाः प्रजाः कृत्वा विद्यादिशुभगुणग्रहणाय प्रेरयति स एवाऽखण्डैश्वर्य्यः सदा भवति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जैसे (इन्द्रः) योगरूप ऐश्वर्य से युक्त सूर्य्य (सहसः) बल से जिस (सहः) बल को (उत्, आ, अजनिष्ट) उत्पन्न करता (विश्वा) सम्पूर्ण (इन्द्रियाणि) श्रोत्र आदि इन्द्रियों वा धनों का (देदिष्टे) उपदेश देता और (प्र, अचोदयत्) प्रेरणा करता और (सुदुघाः) उत्तम प्रकार कामनाओं को पूर्ण करनेवाली क्रियाओं का (वव्रे) स्वीकार करता है, वैसे (अन्तः) मध्य में (ज्योतिषा) प्रकाश से (संववृत्वत्) घेरनेवाली (तमः) रात्रि की (वि) विशेष करके (अवः) रक्षा करो ॥३॥
भावार्थ
जो राजा बल से बल और धन से धन को उत्पन्न करके, न्याय के प्रकाश से अन्यायरूप अन्धकार का निवारण कर, पूर्ण मनोरथों से युक्त प्रजाओं को करके विद्या आदि उत्तम गुणों के ग्रहण के लिये प्रेरणा करता है, वही अखण्ड ऐश्वर्य्यवाला सदा होता है ॥३॥
विषय
राजा शत्रु से भूमि की रक्षा करे ।
भावार्थ
भा०- ( यत् ) जिस प्रकार ( सहसः उत् आ अजनिष्ट ) तेजस्वी सूर्य से उषा का तेज प्रकट होता है, और वह ( विश्वा इन्द्रियाणि देदिष्ट ) समस्त चक्षुओं को सब पदार्थ दिखाता है ( सुदुघाः प्रा अचोदयत्) प्रकाश से पूर्ण करने वाली किरणों को आगे बढ़ाता और उनको ही ( वत्रे अन्तः ) अपने भीतर धारण करता और ( ज्योतिषा संववृत्वत् तमः वि अवः ) अपने तेज से ही सबको ढक लेने वाले अन्धकार को दूर कर देता है उसी प्रकार ( यत् ) जो राजा ( सहसः ) अपने शत्रुपराजयकारी बल से स्वयं ( सहः ) शत्रु विजयी होकर ( उत् आ अजनिष्ट) उदय को प्राप्त होता, उन्नत पद को प्राप्त करता है, वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, सूर्यवत् प्रतापी पुरुष (विश्वा इन्द्रियाणि ) समस्त इन्द्रियों को आत्मा के समान, समस्त इन्द्रोचित, राजोचित ऐश्वर्यों को शत्रुहननकारी सैन्य बलों को भी ( देदिष्ट ) अपने वश करे । वह ( वव्रे अन्तः ) वरण करने वाले राष्ट्र के भीतर रहकर ( सुदुघाः ) गोष्ठ में स्थित दुधार गौओं के तुल्य राष्ट्र में विद्यमान सुसम्पन्न ऐश्वर्यप्रद प्रजाओं को ( प्र अचोदयत् ) अच्छी प्रकार शासन करे । और ( ज्योतिषा ) अपने तेज से ( संववृत्वत् तमः ) व्यापक शोक, खेदादि अज्ञान वा दुख को ( वि अवः ) दूर करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवस्युरात्रेय ऋषिः ॥ १-८, १०-१३ इन्द्रः । ८ इन्द्रः कुत्सो वा । ८ इन्द्र उशना वा । ९ इन्द्रः कुत्सश्च देवते ॥ छन्द: – १, २, ५, ७, ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ , १० त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप । ८, १२ स्वराट्पंक्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
शक्ति व शान के दाता प्रभु
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जीवन बिताने पर (सहसः) = उस शक्तिपुत्र प्रभु से (उद्यत् सहः) = उदय होता हुआ शत्रुनाश बल आजनिष्ट हमारे में प्रादुर्भूत होता है । (इन्द्रः) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु (विश्वा इन्द्रियाणि) = सब इन्द्रियों को व बलों को (देदिष्ट) = हमारे लिए देते हैं । २. (वव्रे अन्तः) = हमें आवृत कर लेनेवाले अज्ञानान्धकार के बीच में (सुदुघा:) = उत्तम ज्ञानदुग्ध को पूरित करनेवाली वेदवाणी रूप गौओं को (प्राचोदयत्) = प्रकर्षेण प्रेरित करते हैं और इस प्रकार (ज्योतिषा) = ज्ञान के प्रकाश से (संववृत्वत्) = आवृत कर लेने वाले अन्धकार को (वि अव) = निवारित करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही बल देते हैं। प्रभु ही अज्ञानान्धकार को नष्ट करके ज्ञान का प्रकाश प्राप्त -कराते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा बलाने बल व धनाने धन उत्पन्न करून न्यायाने अन्यायरूपी अंधकाराचे निवारण करून प्रजेचे मनोरथ पूर्ण करून विद्या इत्यादी गुणांचे ग्रहण करण्याची प्रेरणा देतो तोच अमाप ऐश्वर्यवान होतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When strength and virility is born and matures with the growth of health and vitality, then let Indra, the disciplined soul, control and command all the senses, mind and intellect, awaken and exercise the creative potentials innate but yet dormant within, and with inner light of the soul keep off the resurgent darkness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! a man endowed with the great wealth of Yoga and full of splendor like the sun manifests great strength from his spiritual power. He uses his senses for the performance of noble deeds and urges all to spend money for good purposes only and accepts assignments which fulfil well good desires. In the same manner, protect us with light in the surrounding night, dispel all darkness of ignorance and injustice.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king alone is endowed with abundant wealth and prosperity who goes on increasing his strength and wealth, who dispels the darkness of injustice with the light of justice, who fulfils the noble desires of his subjects and prompts them to accept knowledge and other noble virtues.
Foot Notes
(इन्द्रः ) योगेश्वर्य्यंयुक्त: । इन्द्रियम् इति धननाम (NG 2, 10 ) इन्द्रः इदि परमैश्वर्ये । अन योगरूपमैश्वर्यम् । = A Yogi endowed with the great wealth of Yoga. (सुदुघा ) सुष्ठु कामप्रपूरिकाः क्रियाः । = The acts which fulfil well the noble desires. (इन्द्रियाणि) श्रोत्रादीनि धनानि । = Ears and other senses or wealth.
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