ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 8
त्वम॒पो यद॑वे तु॒र्वशा॒यार॑मयः सु॒दुघाः॑ पा॒र इ॑न्द्र। उ॒ग्रम॑यात॒मव॑हो ह॒ कुत्सं॒ सं ह॒ यद्वा॑मु॒शनार॑न्त दे॒वाः ॥८॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒पः । यद॑वे । तु॒र्वशा॒य । अर॑मयः । सु॒ऽदुघाः॑ । पा॒रः । इ॒न्द्र॒ । उ॒ग्रम् । अ॒या॒त॒म् । अव॑हः । ह॒ । कुत्स॑म् । सम् । ह॒ । यत् । वा॒म् । उ॒शना॑ । अर॑न्त । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमपो यदवे तुर्वशायारमयः सुदुघाः पार इन्द्र। उग्रमयातमवहो ह कुत्सं सं ह यद्वामुशनारन्त देवाः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अपः। यदवे। तुर्वशाय। अरमयः। सुऽदुघाः। पारः। इन्द्र। उग्रम्। अयातम्। अवहः। ह। कुत्सम्। सम्। ह। यत्। वाम्। उशना। अरन्त। देवाः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! पारः सँस्त्वं तुर्वशाय यदेव सुदुघा अपोऽरमय उग्रमयातं कुत्सं ह समवहः यद् यत्रोशना देवा अरन्त तत्र ह वां रमयेयुः ॥८॥
पदार्थः
(त्वम्) (अपः) जलानीव कर्माणि (यदवे) मनुष्याय (तुर्वशाय) सद्यो वशकरणसमर्थाय (अरमयः) रमय (सुदुघाः) सुष्ठु दोग्धुमर्हाः (पारः) यः पारयिता (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रद (उग्रम्) दुर्जयम् (अयातम्) अप्राप्तम् (अवहः) प्राप्नुहि (ह) किल (कुत्सम्) (सम्) (ह) (यत्) (वाम्) युवाम् (उशना) कामयमानाः (अरन्त) रमन्ताम् (देवाः) विद्वांसः ॥८॥
भावार्थः
ऐश्वर्य्यवान् मनुष्योऽन्येभ्यो धनधान्यादिकं दद्याद्यत्र विद्वांसो रमेरंस्तत्रैव सर्वे क्रीडेरन् ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्यदाता ! (पारः) पार लगानेवाले होते हुए (त्वम्) आप (तुर्वशाय) शीघ्र वश करने में समर्थ (यदवे) मनुष्य के लिये (सुदुघाः) उत्तम प्रकार पूर्ण करने योग्य (अपः) जलों के सदृश कर्म्मों को (अरमयः) रमावें और (उग्रम्) बड़े कष्ट से जिसको जीत सकें उस (अयातम्) न आये हुए (कुत्सम्) कुत्सित को (ह) निश्चय (सम्, अवहः) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें तथा (यत्) जिसमें (उशना) कामना करते हुए (देवाः) विद्वान् जन (अरन्त) रमें, उसमें (ह) निश्चय (सम्, अवहः) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें तथा (यत्) जिसमें (उशना) कामना करते हुए (देवाः) विद्वान् जन (अरन्त) रमें उसमें (ह) निश्चय (वाम्) आप दोनों अर्थात् आप को और पूर्वोक्त मनुष्य को रमावें ॥८॥
भावार्थ
ऐश्वर्य्यवाला मनुष्य अन्य जनों के लिये धन और धान्य आदिक देवें और जहाँ विद्वान् रमें, वहाँ ही सम्पूर्ण जन क्रीड़ा करें ॥८॥
विषय
ज्ञान, पालन का प्रबन्ध । सैन्य का धारण ।
भावार्थ
भा०—हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( त्वम् पारः ) तू प्रजा का उत्तम पालक और संकटों से तारक होकर ( यादवे ) यत्नशील और (तुर्वशाय ) शत्रु हिंसक एवं धर्मार्थ काम मोक्ष चारों की कामना करने वाले प्रजाजन की समृद्धि के लिये ( सुदधाः) उत्तम अन्नादि देने वाली जलधारा और ज्ञान दोहन करने वाले आप्त जनों को ( अरमयः ) खूब प्रसन्न स्वच्छ रख उनको जगह २ लेजा । तू ( अयातम् ) शत्रुओं से न प्राप्त होने योग्य ( उग्रम् ) अति प्रबल ( कुत्सम् आवहः ) शत्रुओं के अंगों को काटने में समर्थ तीक्ष्ण शस्त्र बल को धारण कर । और ( उशनाः देवाः ) कामना युक्त विजयार्थी मनुष्य ( ह ) भी ( वां ह ) सैन्य बल और उसके प्रति तुम दोनों को ( सम् अरन्त ) सदा सुप्रसन्न रक्खें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवस्युरात्रेय ऋषिः ॥ १-८, १०-१३ इन्द्रः । ८ इन्द्रः कुत्सो वा । ८ इन्द्र उशना वा । ९ इन्द्रः कुत्सश्च देवते ॥ छन्द: – १, २, ५, ७, ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ , १० त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप । ८, १२ स्वराट्पंक्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सुदुघाः अपः अरमयः
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (त्वम्) = आप (यदवे) = यत्नशील पुरुष के लिए- सतत उद्योग में लगे हुए व्यक्ति के लिए तथा (तुर्वशाय) = त्वरा से शत्रुओं को वश में करनेवाले व्यक्ति के लिए (सुदुघा:) = उत्तमता से प्रपूरण करनेवाले (अपः) = इन रेतः कणों को (अरयय:) = शरीर में ही रमणवाला बनाते हैं और इस प्रकार (पारः) = उसे सब रोगों व वासनाओं से पार करनेवाले होते हैं। इन रेतः कणों के रक्षण से शरीर में रोग नहीं आते तथा मन में वासनाओं का विनाश हो जाता है। इसीलिए इन्हें 'सुदुघाः' कहा है। ये हमारा उत्तम पूरण करते हैं । २. हे (इन्द्रः) = शत्रु विनाशक प्रभो! आप और (कुत्स) = [शत्रु विनाशक के लिए यत्नशील पुरुष] (उग्रम्) = इस (उद्गूर्ण) = अतिप्रबल – शत्रु 'काम' को (अयातम्) = आक्रान्त करते हो। उस समय हे प्रभो! आप ही (ह) = निश्चय से (कुत्सम्) = इस शत्रुविनाशक पुरुष को (अवहः) = शत्रु विनाश के द्वारा घर में [ब्रह्मलोक में] प्राप्त कराते हैं। (यद्) = जब (वाम्) = आप दोनों को [इन्द्र और कुत्स को] (उशना देवा:) = प्रभु प्राप्ति की कामनावाले देववृत्ति के व्यक्ति (ह) = निश्चय से (समरन्त) = प्राप्त होते हैं। देववृत्ति के व्यक्ति इन्द्र [प्रभु] की उपासना करते हैं और ज्ञानवर्धन के लिए कुत्स [वासनाओं का विनाश करनेवाले आचार्य] के समीप उपस्थित होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें रेतः कणों को प्राप्त कराके भवसागर के पार ले जाते हैं। इन रेतः कणों के रक्षण के लिए प्रभु ही हमें 'काम' के विनाश में समर्थ करते हैं। देववृत्ति के व्यक्ति प्रभु की उपासना करते हैं, ज्ञानप्राप्ति के लिए इन कुत्स लोगों के समीप उपस्थित होते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
ऐश्वर्यवान माणसाने इतरांसाठी धन व धान्य इत्यादी द्यावे व जेथे विद्वान रमतो तेथेच संपूर्ण लोकांनी रमावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruler of the world, giver of honour and glory, pioneer and helmsman of the people, you make the abundant waters flow for Yadu and Turvasha, men of management, production and control, you achieve the rare and difficult energy of electricity powerful as thunderbolt, and then the brilliant people, lovers of life and humanity all, enthusiastically admire and celebrate both you and your thunderous achievement.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of learned persons are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! giver of great prosperity, and conveyor of men across the ocean of miseries, you make industrious and able to control their senses and thus soon delight them in the performance of noble deeds which fulfil good desires. You make a devotee mighty who has not attained happiness. Attain joy where the enlightened persons desirous of welfare of all take delight.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A wealthy person should give wealth and food grains etc. to others. Men should feel delighted where the enlightened men enjoy.
Foot Notes
(अप:) जलानीव कर्माणि । अप इति कर्मनाम (NG 2, 1) अप इति उदकनाम (1, 12 ) । = Actions like waters. (यदवे) मनुष्याय । यदव इति मनुष्यनाम (NG 2, 3 ) । = For an industrious man. (तुर्वशाय ) सद्यो वशकरणसमर्थांय । तुर्वशा इति मनुष्यनाम (NG 2, 3) कुत्सः ऋषिः । कुत्सो भवति कर्ता स्तोमानाम् इत्मोपन्यवः । कुत्स इत्येतत् कृन्ततेः ( NKT 3, 2, 12 ) = For an industrious man who can control his senses soon.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal