ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 9
इन्द्रा॑कुत्सा॒ वह॑माना॒ रथे॒ना वा॒मत्या॒ अपि॒ कर्णे॑ वहन्तु। निः षी॑म॒द्भ्यो धम॑थो॒ निः ष॒धस्था॑न्म॒घोनो॑ हृ॒दो व॑रथ॒स्तमां॑सि ॥९॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑कुत्सा । वह॑माना । रथे॑न । आ । वा॒म् । अत्याः॑ । अपि॑ । कर्णे॑ । व॒ह॒न्तु॒ । निः । सी॒म् । अ॒त्ऽभ्यः । धम॑थः । निः । स॒धऽस्था॑त् । म॒घोनः॑ । हृ॒दः । व॒र॒थः॒ । तमां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राकुत्सा वहमाना रथेना वामत्या अपि कर्णे वहन्तु। निः षीमद्भ्यो धमथो निः षधस्थान्मघोनो हृदो वरथस्तमांसि ॥९॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राकुत्सा। वहमाना। रथेन। आ। वाम्। अत्याः। अपि। कर्णे। वहन्तु। निः। सीम्। अत्ऽभ्यः। धमथः। निः। सधऽस्थात्। मघोनः। हृदः। वरथः। तमांसि ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ यन्त्रकलाविषयं शिल्पकर्माह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! यथेन्द्राकुत्सा रथेन वहमाना स्तः विद्वांसः कर्णे वामा वहन्तु तथाऽत्या अपि सर्वान् वोढुं शक्नुवन्ति यदि विद्युदग्नी अद्भ्यो निर्धमथस्तर्हि तौ सधस्थात् सीमावहतो यदि हृदो मघोनो निर्वरथस्तर्हि सुखेन तमांसि गमयितुं शक्नुयातम् ॥९॥
पदार्थः
(इन्द्राकुत्सा) इन्द्रश्च कुत्सश्चेन्द्राकुत्सौ विद्युदाघातौ (वहमाना) प्रापयन्तौ (रथेन) यानेन (आ) (वाम्) युवयोः (अत्याः) सततं गामिनोऽश्वाः (अपि) (कर्णे) कुर्वन्ति येन तस्मिन् (वहन्तु) गमयन्तु (निः) नितराम् (सधस्थात्) सह स्थानात् (मघोनः) धनाढ्यान् (हृदः) हृद इव प्रियान् (वरथः) स्वीकुरुथः (तमांसि) रात्रीः ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यद्यग्निजलसंयोगं कृत्वा सन्धम्य वाष्पेन यन्त्रकलाः संहृत्य यानादीनि चालयेयुस्तर्हि स्वयं सखींश्च धनाढ्यान् कृत्वा दुःखेभ्यः पारं गच्छेयुर्गमयेयुर्वा ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
अब यन्त्रकलाविषय शिल्पकर्म को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापको और उपदेशको ! जैसे (इन्द्राकुत्सा) बिजुली और बिजुली का आघात (रथेन) वाहन से (वहमाना) प्राप्त कराते हुए वर्त्तमान हैं वा विद्वान् जन (कर्णे) करते हैं जिससे उसमें (वाम्) आप दोनों को (आ, वहन्तु) पहुँचावें वैसे (अत्याः) निरन्तर चलनेवाले घोड़े (अपि) भी सब को प्राप्त कराने को समर्थ होते हैं और जो बिजुली और अग्नि (अद्भ्यः) जलों से (निः, धमथः) शब्द करते हैं तो वे दोनों (सधस्थात्) तुल्य स्थान से (सीम्) सब प्रकार प्राप्त कराते और जो (हृदः) हृदयों के सदृश प्रिय (मघोनः) धनाढ्य पुरुषों का (निः) अत्यन्त (वरथः) स्वीकार करते हैं तो सुख से (तमांसि) अन्धकारों को हटाने को समर्थ होओ ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो अग्नि और जल का संयोग कर शब्द कर और भाफ से यन्त्र कलाओं को ताड़ित करके वाहनादिकों को चलावें तो आप अपने को और मित्रों को धन से युक्त करके दुःखों के पार जावें और अन्यों को भी पार करें ॥९॥
विषय
सेनापति और सैन्य के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०—हे ( इन्द्राकुत्सा ) ऐश्वर्यवन् सेनापते ! हे कुत्स ! शत्रु का नाश करने वाले क्षत्रबल ! अथवा हे वेदों के उपदेष्टः ! ( रथेन वहमाना ) रथ से जाते हुए (वाम् ) आप दोनों को ( अत्याः अपि ) अश्व गण भी ( कर्णे वहन्तु ) अपने कान पर धारण करे । आप की आज्ञाएं कान लगा कर सुनें । आप दोनों ( सीम् ) सब ओर से ( अद्भ्य: ) प्राप्त प्रजाजनों के हित के लिये ही ( निर्धमथः ) उनके बीच से दुष्ट पुरुष को निकाल बाहर करो और ( सधस्थात् ) साथ रहने वाले ( मघोनः हृदः ) ऐश्वर्य सम्पन्न राष्ट्र के मध्य भाग से भी ( तमांसि निर्वरथः ) सब प्रकार के अन्धकारों को दूर करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवस्युरात्रेय ऋषिः ॥ १-८, १०-१३ इन्द्रः । ८ इन्द्रः कुत्सो वा । ८ इन्द्र उशना वा । ९ इन्द्रः कुत्सश्च देवते ॥ छन्द: – १, २, ५, ७, ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ , १० त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप । ८, १२ स्वराट्पंक्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
हृदय से अन्धकार का निवारण
पदार्थ
१. 'इन्द्र' प्रभु है – इस प्रभु का उपासक जीव भी जितेन्द्रिय बनकर 'इन्द्र' हो जाता है। उस समय जीव कुत्स होता है - वासनाओं का संहार करनेवाला । हे (इन्द्राकुत्सा) = इन्द्र व कुत्स (रथेन) = इस शरीररथ से (वहमाना) = उद्धयमान [ले जाये जाते हुए] (वाम्) = आप को (अत्याः) = ये सततगामी – निरन्तर क्रिया में लगे हुए इन्द्रियाश्व (कर्णे) = उस प्रभु की वाणी को सुनने के स्थान में (अपिवहन्तु) = निश्चय से प्राप्त कराएँ । २. आप दोनों (सीम) = सब ओर से (अद्भ्यः) = प्रजाओं के हित के लिए (मघोनः) = हे परमात्मन् ! (नि: धमथ:) = दुष्टजनों को, बुरे विचारों को निकालो (सधस्थात्) = साथियों के भी (हृदः) = हृदय से (तमांसि) = अन्धकारों को (निः वरथः) = निवारण करो ।
भावार्थ
भावार्थ- वह परमात्मा हमारे हृदय के अन्धकार को दूर करे, जिससे हमें ज्ञान का प्रकाश मिले।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! अग्नी व जल यांचा संयोग करून वाफेचा यंत्राला मारा करून वाहन इत्यादी चालवा व तुम्ही स्वतः आणि मित्रांनाही धन प्राप्त करून देऊन दुःख नष्ट करा. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruler of the world, and Kutsa, creator and controller of energy and the force of power, both travelling by chariot, let the running horse powers of energy at instant speed transport you both to the centre of life’s business. Both energy and power arise from the currents of waters and waves (as of sunrays), and both of you control and complete the projects from your seat of office and residence, wherefrom you dispel the darkness and want from the centre of their power and prosperity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The machines and tools are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The electricity and its strokes (girds. Ed) take the vehicle to the destination. So, o teachers and preachers! let the learned persons take you to the place of work on speedy horses that take people to distant places. If electricity and fire are properly combined with water, they make a sound. Then they can carry people to distant places on all sides. If you accept the company of good and wealthy persons who are dear like your Pranas (vital breaths), you can get over the nights of difficulties with their help quite easily.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! if you combine fire (energy) and water in due proportion, making it sound (while in starting) and by the use of steam drive vehicles with proper machinery, then you can make yourselves and your friends rich, taking them out of many difficulties and miseries.
Translator's Notes
There is clear reference to the steam engines and railways etc. for transportation.
Foot Notes
(इन्द्राकुत्सा) इन्द्रश्चकुत्सश्चेन्द्राकुत्सौ । विद्य दाधातौ। कुत्स इति वज्रनाम (NG 2, 20 ) कुत्सः कृन्ततेरिति (NKT 3, 2,12) = Electricity and its stroke (अत्याः) सततं गामिनोऽश्वा: । अत्य इत्यश्वनाम (NG 1, 14 ) यदशनिरिन्द्रस्तेन (कौषीतकी ब्राह्मणे 6, 9) = Horses which go constantly.
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