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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ये चा॒कन॑न्त चा॒कन॑न्त॒ नू ते मर्ता॑ अमृत॒ मो ते अंह॒ आर॑न्। वा॒व॒न्धि यज्यूँ॑रु॒त तेषु॑ धे॒ह्योजो॒ जने॑षु॒ येषु॑ ते॒ स्याम॑ ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । चा॒कन॑न्त । चा॒कन॑न्त । नु । ते । मर्ताः॑ । अ॒मृ॒त॒ । मो इति॑ । ते । अंहः॑ । आ । अ॒र॒न् । व॒व॒न्धि । यज्यू॑न् । उ॒त । तेषु॑ । धे॒हि॒ । ओजः॑ । जने॑षु । येषु॑ । ते॒ । स्याम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये चाकनन्त चाकनन्त नू ते मर्ता अमृत मो ते अंह आरन्। वावन्धि यज्यूँरुत तेषु धेह्योजो जनेषु येषु ते स्याम ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। चाकनन्त। चाकनन्त। नु। ते। मर्ताः। अमृत। मो इति। ते। अंहः। आ। अरन्। ववन्धि। यज्यून्। उत। तेषु। धेहि। ओजः। जनेषु। येषु। ते। स्याम ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अमृत विद्वन् ! ये विद्याविनयसत्याचाराश्चाकनन्तान्यार्थमपि चाकनन्त ते मर्त्ताः सत्यं नू चाकनन्त तेंऽहो मो आरन् त उत यज्यून् वावन्धि येषु जनेषु वयं ते तव सखायः स्याम तेष्वस्मासु त्वमोजो धेहि ॥१३॥

    पदार्थः

    (ये) (चाकनन्त) कामयन्ते (चाकनन्त) (नू) सद्यः (ते) (मर्त्ताः) मनुष्याः (अमृत) आत्मस्वरूपेण मरणधर्मरहित (मो) (ते) (अंहः) अपराधम् (आ) (अरन्) समन्तात् प्राप्नुयुः (वावन्धि) बध्नन्ति (यज्यून्) सत्यभाषणादियज्ञानुष्ठातॄन् (उत) अपि (तेषु) (धेहि) (ओजः) पराक्रमम् (जनेषु) सत्याचरणेषु मनुष्येषु (येषु) (ते) तव (स्याम) भवेम ॥१३॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! ये विद्यासत्याचरणपरोपकारानधर्म्माचरणराहित्यं च कामयित्वा सर्वोपकारमिच्छेयुस्ते धन्याः सन्तु वयमपीदृशाः स्यामेतीच्छामेति ॥१३॥ अत्रेन्द्रविद्वच्छिल्पगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकत्रिंशत्तमं सूक्तमेकत्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अमृत) आत्मस्वरूप से मरणधर्म्मरहित विद्वान् ! (ये) जो विद्या, विनय और सत्य आचरणों की (चाकनन्त) कामना करते हैं तथा अन्यों के लिये भी (चाकनन्त) कामना करते हैं, (ते) वे (मर्त्ताः) मनुष्य सत्य की (नू) शीघ्र कामना करते हैं और (ते) वे (अंहः) अपराध को (मो) नहीं (आ, अरन्) सब प्रकार से प्राप्त हों और वे (उत) ही (यज्यून्) सत्यभाषण आदि यज्ञ के अनुष्ठान करनेवाले जनों को (वावन्धि) बन्धनयुक्त करते हैं तथा (येषु) जिन (जनेषु) सत्य आचरण करनेवाले मनुष्यों में हम लोग (ते) आपके मित्र (स्याम) होवें (तेषु) उन हम लोगों में आप (ओजः) पराक्रम को (धेहि) धारण कीजिये ॥१३॥

    भावार्थ

    हे विद्वान् जनो ! जो जन विद्या, सत्य आचरण तथा परोपकार की और अधर्म्म आचरण के त्याग की कामना करके सब के उपकार की इच्छा करें, वे धन्यवादयुक्त होवें और हम लोग भी ऐसे होवें, ऐसी इच्छा करें ॥१३॥ इस सूक्त में इन्द्र और शिल्पविद्या के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इकतीसवाँ सूक्त और इकतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    भा०—हे राजन् ! ( ये मर्त्ताः ) जो मनुष्य (ते) तुझे (चाकनन्त) चाहते हैं (ते) वे तुझे ( चाकनन्त नु) सदा चाहते ही रहें । हे ( अमृत ) दीर्घायो ! हे चिरंजीव ! आयुष्मन् ! (ते) वे लोग (ते अंहः ) तेरे पाप को ( मो आरन् ) प्राप्त न हों । ( उत ) और तू ( यज्यून् ) उत्तम यज्ञशील, दानशील, सत्संगी पुरुषों का ( वावन्धि ) सेवन कर उनका सत्संग कर । ( उत ) और तू ( तेषु ओजः धेहि ) उनमें अपना तेज, बल पराक्रम ( धेहि ) स्थापित कर ( येषु जनेषु ) जिन लोगों में रहते हुए हम ( ते स्याम ) तेरे ही होकर रहें । इत्येकत्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवस्युरात्रेय ऋषिः ॥ १-८, १०-१३ इन्द्रः । ८ इन्द्रः कुत्सो वा । ८ इन्द्र उशना वा । ९ इन्द्रः कुत्सश्च देवते ॥ छन्द: – १, २, ५, ७, ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ , १० त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप । ८, १२ स्वराट्पंक्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    Bhajan

    हे दयानिधान ! 
    क्या करूं जीवन, तेरे बिना, दया निधान! 
    दीप जले, ज्ञान के, जब किया, तेरा ध्यान।। 
    क्या करूं...... 
    मैं राह देखूं तेरी, निज मन के द्वार पे
    और इंतजार में पल-पल गुज़रे
    आके  दरस दिखा दे मेरे मन के दर्पण में
    तेरी याद में भुला दूं, मैं सुध अपनी।। 
    क्या करूं...... 
    मैं एक वस्तु मांगू, तू कई हज़ार दे
    बदले में कुछ ना मांगे प्रभु तू इसके
    क्या वस्तु मेरी तुझको मैं दूं उपहार में
    करू भेंट प्रार्थना स्तुति श्रद्धा भक्ति। । 
    क्या करूं........ 
    तुझमें दया है जितनी उतना ही प्यार है
    ऋषि साधु संत योगी तुझको भजते
    आया शरण में तेरी चरणों में स्थान दे
    मां की व्यथा प्रभु जी होगी सुननी।। 
    क्या करूं....... 
    जीवन प्रभुजी मेरा तुझपे निसार है
    पाने को प्रेम तेरा यह मन तरसे
    दिया ज्ञान का जला तू, अद्भुत प्रकाश दे
    अनबुझ रहे यह मन की, जलती अग्नि।। 
    क्या करूं...

    Vyakhya

    हे भगवन् तेरे बिना इस जीवन का क्या करूं? तेरे साथ रहूं तो तेरे ध्यान में ज्ञान का दीपक जला सकूं
    मैं जन्म जन्मांतर से मन के द्वार पर तेरी बात जोह रहा हूं, अब और इंतजार मत करा। 
    मैं मांगू या ना मांगू तो निरंतर मुझे वस्तुएं प्रदान करता रहता है उसपर भी तुम्हारा कोई स्वार्थ नहीं सब कुछ हम जीवो के लिए ही है। मैं भौतिक वस्तुएं क्या मांगू वह तो तू अपने आप दे देता है, पर मैं तुझे क्या दे दूं सब कुछ तो तेरा ही है इसलिए देने के लिए मेरे पास प्रार्थना स्तुति श्रद्धा भक्ति है, और अटूट प्रेम है। 
    तेरी दया की भी तो कोई सीमा नहीं जिसमें प्यार ही प्यार है इसलिए साधु संत योगी तेरा ध्यान करते हैं, मैं भी तेरी शरण के लिए तरस रहा हूं मेरे इस व्यथित हृदय को
    अपने संदर्शन से संतुष्टि दो। 
    इस प्रेम के लिए मैं अपना सर्वस्व जीवन निसार देना चाहता हूं ।  प्रभु कृपा करो ! दया करो !तुझे पाने के लिए मुझे अद्भुत प्रकाश दो ! हे अग्नि स्वरूप परमात्मा !  मेरे अंत:करण में भी अग्नि का प्रकाश करो यह अग्नि सर्वदा जलती ही रहे। जगमगाती रहे। 
    🕉🧘‍♂️

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    विषय

    चाकानन्त-चाकनन्त

    पदार्थ

    हे (अमृत) = अमर (धर्मन्) = परमात्मन्! (ये मर्ता) = जो मरणधर्मा मनुष्य (ते चाकनन्त) = तुझे चाहते हैं, (नू) = निश्चय से (ते) = वे तुझे (चाकनन्त) = सदा चाहते रहें। (ते) = वे मनुष्य (अंहः) = पाप को (मो आरन्) = मत प्राप्त हों। (उत) = और तू (तेषु) = उनमें (ओजः) = तेज (धेहि) = धारण कर, (यज्यून्) = यज्ञ करनेवालों का (वावन्धि) = संग कर जिससे हम (ते स्याम) = तेरे भक्त होवें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जो परमात्मा को चाहते हैं वे यज्ञशील होते हुए पाप कर्मों से दूर रहकर परमेश्वर सुतसोम अध्वर्यु ही मार्ग पर चलनेवाला है। यह 'गातुः' [ठीक मार्ग पर चलनेवाला] कहाता है। मार्ग पर चलने से यह त्रिविध दुःखों से दूर 'आत्रेय' होता है। यह प्रार्थना करता है कि -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो! जे लोक विद्या, सत्याचरण व परोपकार आणि अधर्माचा त्याग करून सर्वांच्या उपकाराची इच्छा ठेवतात ते धन्यवाद देण्यायोग्य असतात. आपणही त्यांच्याप्रमाणे व्हावे ही इच्छा बाळगावी. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord of immortality, Indra, those who love truth, knowledge and peaceful progress for themselves and others may abide loving and self sacrificing. May the mortals never come to suffer evil, never commit sin and crime. Bond with the yajakas who are committed to truth and holy action, vest them with honour and splendour, and bless us that we too, your own, be among them.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The significance of the mechanical engineering is narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! attracted by the immortality of soul, the persons who desire to have knowledge, humility and truthful conduct and desire them for others also; their aim is only at truth. They do not approach (go near or commit) sin. They associate themselves with the performers of Yajnas in the form of speaking truth and other ways. Please grant vigor to truthful persons and to those living among the prospective friends.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! blessed are the persons who seek knowledge, humility, truthful conduct and benevolence, and freedom from all unrighteous acts. They want to be good to all. Let us also desire to be the same.

    Foot Notes

    (चाकनन्त ) कामयन्ते । चाकनत् कान्तिकर्मा (NG 2, 6 ) । कान्तिः कामना । = Desire. (यज्यून् ) सत्यभाषणादियज्ञानुष्ठातृन् । यज-देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु । यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म ( Stph 1, 7, 1, 5, 11 ) यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म (Tai. 3, 2, 1, 4)। = The performers of truth-speaking and other yajnas.

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