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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
    ऋषिः - बभ्रु रात्रेयः देवता - इन्द्र ऋणञ्चयश्च छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ प्र द्र॑व हरिवो॒ मा वि वे॑नः॒ पिश॑ङ्गराते अ॒भि नः॑ सचस्व। न॒हि त्वदि॑न्द्र॒ वस्यो॑ अ॒न्यदस्त्य॑मे॒नाँश्चि॒ज्जनि॑वतश्चकर्थ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । प्र । द्र॒व॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । मा । वि । वे॒नः॒ । पिश॑ङ्गऽराते । अ॒भि । नः॒ । स॒च॒स्व॒ । न॒हि । त्वत् । इ॒न्द्र॒ वस्यः॑ । अ॒न्यत् । अस्ति॑ । अ॒मे॒मान् । चि॒त् । जनि॑ऽवतः । च॒क॒र्थ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ प्र द्रव हरिवो मा वि वेनः पिशङ्गराते अभि नः सचस्व। नहि त्वदिन्द्र वस्यो अन्यदस्त्यमेनाँश्चिज्जनिवतश्चकर्थ ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। प्र। द्रव। हरिऽवः। मा। वि। वेनः। पिशङ्गऽराते। अभि। नः। सचस्व। नहि। त्वत्। इन्द्र। वस्यः। अन्यत्। अस्ति। अमेनान्। चित्। जनिऽवतः। चकर्थ ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे हरिवः पिशङ्गरात इन्द्र राजँस्त्वं मा वि वेनः कामी मा भवेरमेनांश्चिज्जनिवतश्चकर्थ नोऽभि सचस्व शत्रुविजयाय प्रा द्रव यतस्त्वद्वस्योऽन्यन्नह्यस्ति स त्वमस्मान् सुखेन सम्बध्नीहि ॥२॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (प्र) (द्रव) धाव (हरिवः) प्रशस्ताश्वयुक्त (मा) (वि) (वेनः) कामयेः (पिशङ्गराते) यः पिशङ्गं सुवर्णादिकं राति ददाति तत्सम्बुद्धौ (अभि) (नः) अस्मान् (सचस्व) (नहि) (त्वत्) (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रद (वस्यः) वसीयान् (अन्यत्) अन्यः (अस्ति) (अमेनान्) अविद्यमाना मेना प्रक्षेपकर्त्र्यः स्त्रियो येषां तान् (चित्) (जनिवतः) जन्मवतः (चकर्थ) कुरु ॥२॥

    भावार्थः

    यो दीर्घं जीवितुं बलमुन्नेतुं राज्यं कर्त्तुं वर्धितुं च प्रयतते स एव कृतकृत्यो जायते ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (हरिवः) श्रेष्ठ घोड़ों से युक्त (पिशङ्गराते) सुवर्ण आदि के और (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले राजन् ! आप (मा, वि, वेनः) कामना मत करें अर्थात् कामी न हों और (अमेनान्) नहीं विद्यमान हैं, प्रक्षेप करनेवाली स्त्रियाँ जिनकी उनको (चित्) उन्हीं (जनिवतः) जन्मवाले (चकर्थ) करें और (नः) हम लोगों का (अभि, सचस्व) सब ओर से सम्बन्ध करें और शत्रु के विजय के लिये (प्र, आ, द्रव) अच्छे प्रकार दौड़े जिससे (त्वत्) आपसे (वस्यः) अत्यन्त वसनेवाला (अन्यत्) दूसरा (नहि) नहीं (अस्ति) है, वह आप हम लोगों को सुख से सम्बन्ध कीजिये ॥२॥

    भावार्थ

    जो अतिकालपर्य्यन्त जीवने, बल बढ़ाने, राज्य करने और वृद्धि करने के लिये यत्न करता है, वही कृतकृत्य होता है ॥२॥

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    विषय

    राजा अधर्म में पैर न रखे, समवाय बनावे, और राष्ट्र में अविवाहितों को विवाहित करके राष्ट्र की प्रजा-वृद्धि का प्रबन्ध करे ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( हरिवः ) अश्व सैन्यों के स्वामिन्! हे ( हरिवः ) मनुष्यों के राजन् ! स्वामिन् ! तू ( आ द्वव ) सब तरफ़ जा, ( प्र द्रव ) आगे बढ़ । ( मा वि वेनः ) कभी विपरीत, धर्मविरुद्ध कामना मत कर । हे (पिशङ्गराते ) सुवर्ण के दान देने और करादि में भी सुवर्ण एवं परिपक्व धान्य लेने हारे ! तू ( नः अभि सचस्व ) हम से समवाय बनाकर रह । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( तत् अन्यत् ) तुझ से दूसरा ( वस्यः ) श्रेष्ठ धनस्वामी भी ( नहि अस्ति ) नहीं है । आप ही ( अमेनान् चित् ) स्त्री रहित पुरुषों को भी ( जनिवतः) उत्तम स्त्री युक्त ( चकर्थ ) करो अर्थात् राजा अविवाहितों को विवाहित करने का प्रबन्ध करे । जिससे राष्ट्र की जन सम्पदा की वृद्धि हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवस्युरात्रेय ऋषिः ॥ १-८, १०-१३ इन्द्रः । ८ इन्द्रः कुत्सो वा । ८ इन्द्र उशना वा । ९ इन्द्रः कुत्सश्च देवते ॥ छन्द: – १, २, ५, ७, ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ , १० त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप । ८, १२ स्वराट्पंक्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ज्ञानग्रहण व ज्ञानप्रदान

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोवाले जीव ! (आ प्र द्रव) = सब प्रकार से हमारी ओर आनेवाला तू हो अथवा निरन्तर अपने कर्त्तव्य कर्मों में गति वाला तू हो । (मा) = 'तू' (विवेन:) = उपासक कामनावाला न होना। सदा (वेदाधिगम) = [ज्ञान-प्राप्ति] की कामनावाला बन तथा वैदिक कर्मयोग [वेदानुकूल कर्मों को करने] की कामनावाला हो । (पिशङ्गराते) = अलंकृत करनेवाले धनवाले। (नः) = हमें (अभि सचस्व) = प्रातः सायं दोनों समय संगत होनेवाला हो, अर्थात् प्रातः सायं ध्यान करने वाला तू बन । २. इस प्रकार करने पर हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (त्वद् अन्य:) = तेरे से भिन्न कोई (अन्यत्) = और (वस्य:) = उत्तम वसुओंवाला है- तूने ही अपने निवास को उत्तम बनाया है। (अमेनान् चित्) = वेदवाणी रूप पत्नी से रहित पुरुषों को (चित्) = भी तू (जनिवत:) = वेदवाणी रूप जायावाला (चकर्थ) = करता है, अर्थात् उनके लिए वेदज्ञान को देनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ– हमारे में सदा प्रभु प्राप्ति की कामना हो। हम ज्ञानधन से अपने को अलंकृत करें। औरों के लिए भी वेदज्ञान के देनेवाले बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो दीर्घजीवी, बलवर्धक, राज्यकर्ता असून वृद्धीसाठी यत्न करतो तोच कृतकृत्य होतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, commander of horse and speed of progress, giver of golden wealth, advance all round, be not lustful, be with us and share the honours. There is none better settled, successful and prosperous than you. Look after the unmarried, widows and widowers, help them to have a meaningful life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of a king is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! you are the possessor of good horses and giver of gold and other things, so don't be lustful, (given to lust). Come to us who make (build or manufacture) and have no wives (are Brahmacharis). Casting aside the miseries, leading with good wives or good life, you run swiftly to conquer your enemies. There is none who is more virtuous than you, therefore bring to us happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That man only is able to fulfil the mission of his life who always tries to live long to make his state advanced in all spheres to administer and develop his kingdom.

    Foot Notes

    (हरिवः) प्रशस्ताश्वयुक्त | इन्द्रस्य हरी । (NG 1, 15)। = Having good horses. (पिशङ्गराते ) यः पिशङ्ग सुवर्णादिकं राति ददाति तत्सम्बुद्धौ । रा-दाने । = Giver of gold, silver etc.

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