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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र ते॒ पूर्वा॑णि॒ कर॑णानि वोचं॒ प्र नूत॑ना मघव॒न्या च॒कर्थ॑। शक्ती॑वो॒ यद्वि॒भरा॒ रोद॑सी उ॒भे जय॑न्न॒पो मन॑वे॒ दानु॑चित्राः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । पूर्वा॑णि । कर॑णानि । वो॒च॒म् । प्र । नूत॑ना । म॒घ॒ऽव॒न् । या । च॒कर्थ॑ । शक्ति॑ऽवः । यत् । वि॒ऽभराः॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । जय॑न् । अ॒पः । मन॑वे । दानु॑ऽचित्राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ते पूर्वाणि करणानि वोचं प्र नूतना मघवन्या चकर्थ। शक्तीवो यद्विभरा रोदसी उभे जयन्नपो मनवे दानुचित्राः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। ते। पूर्वाणि। करणानि। वोचम्। प्र। नूतना। मघऽवन्। या। चकर्थ। शक्तिऽवः। यत्। विऽभराः। रोदसी इति। उभे इति। जयन्। अपः। मनवे। दानुऽचित्राः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्गुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे शक्तीवो मघवन् राजन् ! विपश्चितो यद्या पूर्वाणि करणानि या नूतना प्र साध्नुवन्ति तान्यहं ते तथा प्र वोचं ये विभरा दानुचित्रा विद्वांसो मनव उभे रोदसी विज्ञापयन्ति तैः सह त्वं मनवेऽपो जयँस्तेषां सुखाय सत्कारं चकर्थ ॥६॥

    पदार्थः

    (प्र) (ते) तुभ्यम् (पूर्वाणि) प्राचीनानि (करणानि) कुर्वन्ति यैस्तानि साधनानि (वोचम्) उपदिशेयम् (प्र) (नूतना) नवीनानि (मघवन्) पूजितैश्वर्य (या) यानि (चकर्थ) करोषि (शक्तीवः) शक्तिर्बहुविधं सामर्थ्यं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (यत्) यथा (विभराः) ये विशेषेण विभरन्ति पोषयन्ति ते (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (उभे) (जयन्) (अपः) सूर्यो जलानीव शत्रुप्राणान् (मनवे) मनुष्याय (दानुचित्राः) चित्राण्यद्भुतानि दानानि येषान्ते ॥६॥

    भावार्थः

    हे राजादयो जना ! ये विद्वांसो युष्मान् सनातनीं राजनीतिं विजयोपायाँश्च शिक्षेरँस्तान् स्वात्मवद्भवन्तः सत्कुर्वन्तु ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वानों के गुणों को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (शक्तीवः) बहुत प्रकार की सामर्थ्य से युक्त (मघवन्) श्रेष्ठ ऐश्वर्य्यवाले राजन् ! बुद्धिमान् जन (यत्) जैसे (या) जिन (पूर्वाणि) प्राचीन (करणानि) साधनों और जिन (नूतना) नवीनों को (प्र) सिद्ध करते हैं, उन साधनों का मैं (ते) आपके लिये वैसे (प्र, वोचम्) उपदेश करूँ और जो (विभराः) विशेष करके पोषण करने और (दानुचित्राः) अद्भुत दानवाले विद्वान् जन (मनवे) मनुष्य के लिये (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को जनाते हैं, उनके साथ आप मनुष्य के लिये (अपः) सूर्य्य जैसे जलों को वैसे शत्रुओं के प्राणों को (जयन्) जीतते हुए उनके सुख के लिये सत्कार को (चकर्थ) करते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    हे राजा आदि जनो ! जो विद्वान् जन आप लोगों के लिये अनादिकाल से सिद्ध राजनीति और विजय के उपायों की शिक्षा करें, उनको अपने आत्मा के सदृश आप लोग सत्कार करें ॥६॥

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    विषय

    नये नये साहस कार्यों का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( मघवन् ) उत्तम ऐश्वर्यं के स्वामिन्! हे ( शक्तीवः ) शक्तिशालिन् ! ( यः ) जो तू ( उभे रोदसी ) अन्तरिक्ष और भूमि दोनों को जिस प्रकार धारण करता है उसी प्रकार ( उभे रोदसी ) एक दूसरे को रोक रखने वाली राजशक्ति और प्रजाशक्ति दोनों को ( विभर ) विविध उपायों से धारण, पालन करता है, ( मनवे ) मनुष्यों के हितार्थ ( दानुचित्राः अपः जयन् ) दान योग्य पदार्थों से अद्भुत रूप से समृद्ध ( अपः ) आप्त प्रजाओं को भी धारण करता है इसलिये मैं विद्वान् जन ( ते ) तेरे ( पूर्वाणि ) पूर्व के पुरुषाओं से स्वीकृत ( करणानि ) कर्त्तव्य और ( या नूतना चकर्थ ) जो तू नये २ कार्य करे उन सबका मैं ( प्र प्र वोचं) अच्छी प्रकार उपदेश करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवस्युरात्रेय ऋषिः ॥ १-८, १०-१३ इन्द्रः । ८ इन्द्रः कुत्सो वा । ८ इन्द्र उशना वा । ९ इन्द्रः कुत्सश्च देवते ॥ छन्द: – १, २, ५, ७, ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ , १० त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप । ८, १२ स्वराट्पंक्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु के पूर्व व नूतन कर्म

    पदार्थ

    १. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! (ते) = आपके (पूर्वाणि) = हमारा पालन व पूरण करनेवाले (करणानि) = कामों को (प्रवोचम्) = प्रकर्षेण प्रतिपादित करता हूँ- उनके महत्त्व को ज्ञानयज्ञों में कहता हूँ। हे मघवन् ! (या) = जिन (नूतना) = स्तुत्य कर्मों को आप (चकर्थ) = करते हैं, उन्हें मैं प्रतिपादित करता हूँ। प्रभु के पालनात्मक पूरणात्मक व स्तुत्य कर्मों का प्रतिपादन करता हुआ मैं प्रभु की उपासना करता हूँ। २. हे (शक्तीव:) = निरतिशय शक्तिसम्पन्न प्रभो ! (यद्) = जो आप (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को (विभराः) = विशेष रूप से धारित करते हैं वे आप (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए (दानुचित्रा:) = [चित्रदानाः सा०] अद्भुत दानवाले, अद्भुत शक्ति को प्राप्त करानेवाले व [दाप् लवने] अद्भुत प्रकार से वासनारूप शत्रुओं का विनाश करनेवाले (अपः) = कर्मों को (जयन्) = जीतते हैं। अपने उपासक के द्यावापृथिवी- मस्तिष्क व शरीर का धारण करते हुए आप उसे कर्मशील बनाते हैं। जिससे कि वह सब वासनाओं का विनाश कर पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के कर्म अद्भुत है। प्रभु द्यावापृथिवी का धारण करते हुए हमें भी उन कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं जो कि हमारी शक्ति का वर्धन करते हैं और हमारी वासनाओं को विनष्ट करते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजजनांनो! जे विद्वान तुमच्यासाठी सनातन राजनीती व विजयाचे उपाय सुचवितात त्यांचा तुम्ही आपल्या आत्म्याप्रमाणे सत्कार करा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of wealth, honour and excellence, commanding force and power, let me speak to you of the acts and instruments old and new which you have achieved and which you would achieve, which scholars and scientists, having immense knowledge and bearing immense possibilities of gifts for mankind, exploring both earth and the skies, would make it possible for you to win waters from the clouds and pranic energies from air.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the highly learned persons are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O powerful king ! endowed with much honored wealth, I tell you the means used by highly learned persons earlier and used by them now in recent times. You should honor those wonderfully liberal and thoughtful persons, who uphold very well (the earth and heaven and instruct all). Dwelling with them, you should achieve victory over (the Pranas) your enemies for the benefit of the thoughtful, and honor them with delight.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and officers of the State ! you should honor the highly learned persons and respect them. You should honor wonderfully liberal and thoughtful persons, who teach you ancient or eternal politics and the means to be used for achieving victory.

    Foot Notes

    (करणानि ) कुर्वन्ति यैस्तानि साधनानि । = Means by which acts are done. (अप:) सूर्यो जलानीव शत्रुप्राणान् । आपो वै प्राणाः ।। (Stph 3, 8, 2, 4) प्राणो ह, याप: (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे 3, 9 प्राणा वा आपः । तैत्ति 3, 2, 5, 2 ताण्ड्य 9, 9, 4) । = The Pranas or lives of the foes.

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