ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
तदिन्नु ते॒ कर॑णं दस्म वि॒प्राहिं॒ यद्घ्नन्नोजो॒ अत्रामि॑मीथाः। शुष्ण॑स्य चि॒त्परि॑ मा॒या अ॑गृभ्णाः प्रपि॒त्वं यन्नप॒ दस्यूँ॑रसेधः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इत् । नु । ते॒ । कर॑णम् । द॒स्म॒ । वि॒प्र॒ । अहि॑म् । यत् । घ्नन् । ओजः॑ । अत्र॑ । अमि॑मीथाः । शुष्ण॑स्य । चि॒त् । परि॑ । मा॒याः । अ॒गृ॒भ्णाः॒ । प्र॒ऽपि॒त्वम् । यन् । अप॑ । दस्यू॑न् । अ॒से॒धः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिन्नु ते करणं दस्म विप्राहिं यद्घ्नन्नोजो अत्रामिमीथाः। शुष्णस्य चित्परि माया अगृभ्णाः प्रपित्वं यन्नप दस्यूँरसेधः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठतत्। इत्। नु। ते। करणम्। दस्म। विप्र। अहिम्। यत्। घ्नन्। ओजः। अत्र। अमिमीथाः। शुष्णस्य। चित्। परि। मायाः। अगृभ्णाः। प्रऽपित्वम्। यन्। अप। दस्यून्। असेधः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे दस्म विप्र ! भवान् सूर्योऽहिं हन्ति अत्रौजो यन्निपातयति तत्करणं यथा तथा शत्रुबलं घ्नन्नत्र त्वं शुष्णस्य वृद्धिममिमीथाश्चिदपि मायाः पर्यगृभ्णाः प्रपित्वं यन् दस्यूनपासेधस्तस्मै ते तुभ्यं न्वित् सुखं प्राप्नुयात् ॥७॥
पदार्थः
(तत्) (इत्) एव (नु) (ते) तव (करणम्) करोति येन तत् (दस्म) उपक्षेतः (विप्र) मेधाविन् (अहिम्) मेघमिव दोषान् (यत्) (घ्नन्) विनाशयन् (ओजः) जलमिव बलम् (अत्र) अस्मिन् जगति (अमिमीथाः) निर्माणं कुर्याः (शुष्णस्य) बलस्य (चित्) अपि (परि) (मायाः) प्रज्ञाः (अगृभ्णाः) गृहाण (प्रपित्वम्) प्राप्तिम् (यन्) (अप) (दस्यून्) दुष्टान् (असेधः) निवारयतु ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वन् ! यथेश्वरेण सूर्य्यमेघसम्बन्धो निर्मितस्तथैवान्येऽपि बहवः सम्बन्धा रचिता इति वेद्यम् ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (दस्म) उपेक्षा करनेवाले (विप्र) बुद्धिमान् ! आप सूर्य्य (अहिम्) जैसे मेघ को वैसे दोषों को नाश करते हैं (अत्र) वा इस जगत् में (ओजः, यत्) जल के सदृश जो बल को गिराते हैं (तत्) वह (करणम्) साधन जैसे हो, वैसे शत्रु के बल का (घ्नन्) नाश करते हुए इस जगत् में तुम (शुष्णस्य) बल की वृद्धि का (अमिमीथाः) निर्माण करो (चित्) और (मायाः) बुद्धियों का (परि, अगृभ्णाः) सब ओर से ग्रहण करो और (प्रपित्वम्) प्राप्ति को (यन्) प्राप्त होते हुए (दस्यून्) दुष्टों का (अप, असेधः) निवारण करें उन (ते) आपके लिये (नु) तर्क-वितर्क के साथ (इत्) ही सुख प्राप्त होवे ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे विद्वन् ! जैसे ईश्वर ने सूर्य्य और मेघ का सम्बन्ध रचा, वैसे ही अन्य भी बहुत सम्बन्ध रचे, यह जानना चाहिये ॥७॥
विषय
राजा वा प्रधान का कर्त्तव्य । राष्ट्रवृद्धि, वा शत्रुनाश, शक्तिसंचय ।
भावार्थ
भा०-हे ( विप्र ) विविध ऐश्वर्यो वा उपायों से राष्ट्र को पूर्ण करने वाले ! विद्वन् ! राजन् ! ( यत् ) जो तू ( अहिम् ) सन्मुख आये वा सूर्यवत् कुटिल दुष्ट पुरुष को ( घ्नन् ) मारता हुआ ( अत्र ) उस राष्ट्र में ( ओजः ) अपना पराक्रम बल ( अमिमीथः ) तैयार करता है, ( शुष्णस्य चित् ) शत्रु के शोषण या संताप करने वाले बल के समान ही ( मायाः ) शत्रु नाशकारी शक्तियों और बुद्धियों को भी ( परि अगृभ्णाः ) सब प्रकार से धारण करता है, और ( प्रपित्वं ) प्राप्य उद्देश्य को आगे ( यन् ) प्राप्त करता हुआ ( दस्यून् अप असेधः ) नाशकारी दुष्टों को दूर करता है, हे ( दस्म ) शत्रुनाशक राजन् ! ( तत् इत् ) यह ही (ते करणं ) तेरा प्रधान कर्त्तव्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवस्युरात्रेय ऋषिः ॥ १-८, १०-१३ इन्द्रः । ८ इन्द्रः कुत्सो वा । ८ इन्द्र उशना वा । ९ इन्द्रः कुत्सश्च देवते ॥ छन्द: – १, २, ५, ७, ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ , १० त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप । ८, १२ स्वराट्पंक्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'दस्यु नाशक' प्रभु
पदार्थ
१. हे (दस्म) = दर्शनीय व दुःखध्वंसक (विप्र) = हमारा विशेष रूप से पूरण करनेवाले प्रभो ! (इत् नु) = निश्चय से (तत्) = वह (ते) = आपका (करणम्) = महत्त्वपूर्ण कर्म है (यत्) = कि (अहिं घ्नन्) = वासना को विनष्ट करते हुए आप (अत्र) = यहाँ हमारे जीवन में (ओजः) = शक्ति को (मिमीथाः) = निर्मित करते हैं । २. (शुष्णस्य) = इस शोषक 'काम' [= वासना] की (माया:) = छलयुक्त प्रपञ्चों को (चित्) = निश्चय से (परि अगृभ्णा:) = काबू करते हैं। इसके छलों से हमें बचाते हैं और (प्रपित्वं यन्) = समीपता को प्राप्त होते हुए (दस्यून्) = हमारी दास्यववृत्तियों को (अप असेधः) = सुदूर निषिद्ध करते हैं। दूर से ही इन्हें रोककर हमारे समीप नहीं आने देते।
भावार्थ
भावार्थ- हे प्रभो! आप हमारे समीप होते हुए हमारे शत्रुओं को दूर भगाते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वाना ! ईश्वराने जसा सूर्य व मेघाचा संबंध उत्पन्न केलेला आहे. तसेच इतरही पुष्कळ संबंध उत्पन्न केलेले आहेत, हे जाणले पाहिजे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That is your act, achievement and further possibility, generous ruler of the world, giver of gifts, and eminent scholar, since you break the clouds, destroy the serpentine demons of darkness, create prosperity and excellence for mankind here on earth, and, mastering the wondrous knowledge of the secrets of energy and techniques of power, you stall the negativities, make the waters flow and achieve further progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of learned persons is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wise man, destroyer of miseries ! like the sun destroys the cloud and diminishes its strength, you should augment your power by destroying the strength of the adversaries and take from all the wisdom or wise advice. Remove all wicked persons with the force or power. By so doing, let happiness be ever enjoyed by you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As God has established the relation between the sun and cloud, similarly he has made many other relations. Let this be known by all.
Foot Notes
(अहिम्) मेघमिव दोषान् । अहिरिरति मेधनाम (NG 1, 10,) । = The evils like the clouds. (मायाः ) प्रज्ञा: । मायेति प्रज्ञानाम (NG 3, 9)। = Intellects or noble advice, wisdom.
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